असम हिंसा राजनैतिक जवाबदेही की जरुरत

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प्रमोद भार्गव

एक बार फिर असम हिंसा की आग में झुलस गया है। असम के सोनितपुर और कोकराझार जिलों में नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ़ बोडोलैंड के सोंगबिजित धड़े ने करीब 75 निर्दोष व निरीह आदिवासियों की हत्या कर दी। इसके पहले मई 2014 और अगस्त 2012 में भी इन्हीं क्षेत्रों में सैकड़ों लोग सांप्रदायिक हिंसा में हताहत हुए थे। असम के कोकराझार,धुबरी,चिरांग और सोनितपुर इलाकों में उग्रवादी हिंसा का सिलसिला मामूली उतार-चढ़ाव के बाद कई दशकों से निरंतर है। इस खूनी इबारत को जारी रखने में अह्म भूमिका उल्फा यानी,यूनाईटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ़ असम की रही है। लेकिन इस समस्या के अर्से से बने रहने की एक वजह बोडो आदिवासी और बांग्लाभाषी मुस्लिम समुदायों के बीच इन क्षेत्रों में बिगड़ते जनसंख्यात्मक घनत्व और राजनीतिक स्वरूप लेकर पैदा हुई उस खाई से भी है,जिसके चलते बोडो आदिवासियों का दायरा सिमटता जा रहा है और देश का राजनीतिक नेतृत्व इस समस्या की जबावदेही से मुंह चुराता रहा है।

बीती शताब्दी में असम बांग्लादेशी घुसपैठियों के चलते लगातार प्रभावित होता रहा है। इसी की प्रतिक्रिया में असम आंदोलन की पृष्ठभूमि से उग्रवादी संगठन प्रगट होते रहे हैं। उल्फा इसी आंदोलन के गर्भ से पैदा हुआ उग्रवादी संगठन है। इसकी पृष्ठभूमि फिरंगी हुकूमत में ही तैयार हो गई थी। असम राजपत्र के मुताबिक 1826 में असम को अंग्रेजों ने भारत के भौगोलिक नक्षे में दर्ज किया था। इसके पहले इस पर चार साल बर्मा का शासन रहा। बाद में एक संघि के तहत असम ईस्ट इंडिया के सुपुर्द कर दिया गया। उल्फा ने यह संधि कभी स्वीकार नहीं की। लिहाजा वह स्वतंत्र असम की मांग करता रहा। आजादी के बाद पाकिस्तानी गुप्तचार संस्था आइएसआइ ने उल्फा के तंत्र को उकसाने का काम किया। आइएसआइ बेरोजगारों और शिक्षित बेरोजगारों के समूहों को धन और हथियार मुहैया कराकर इसमें ऊर्जा भरने का काम करता रहा। उल्फा ने एक दृष्टि पत्र जारी करके असम को स्वंतत्र राज्य बनाने की मांग भी की। उल्फा के ज्यादातर सदस्य हिंदू समुदायों से हैं,बावजूद वह पाकिस्तान की शह पर देश की अखंडता को चुनौती देता रहा है।

एनडीएफबी भी उल्फा की तर्ज का ही उग्रवादी संगठन है। इसे सोंगबिजित गुट के नाम से जाना जाता है। सोंगबिजित बोडो नहीं कार्बी है। ये अपनी मकसद पूर्ति के लिए बोडो और गैर बोडो के बीच हमला बोलकर विभाजित रेखा खींचते रहते हैं। सांप्रदायिक संघर्ष के लिए अल्पसंख्यक मुस्लिमों पर भी हमला बोल देते हैं। आदवासी बंगाली और नेपाली भी इनकी क्रूरता का शिकार होते रहते हैं। इस ताजा हमले में महिलाओं और दूध पीते बच्चों को मारकर इन्होंने अमानवीयता की सारी हदें पार कर दीं। इसीलिए अब केंद्र सरकार ने इनके सफाए का वीड़ा उठा लिया है।

संप्रभु बोडोलैंड राज्य की स्थापना के उद्देश्य से ये ऐसे संगठन हैं,जो पूर्वोत्तर से जुड़ी शांति-वर्ताओं में कभी शामिल नहीं हुए। अब इनके पास एके-47 जैसे आधुनिक हथियार हैं। इनके निशाने पर सुरक्षाकर्मी भी रहते हैं। अपहरण और हत्या को इन्होंने धंधा बना लिया हैं। इन्हें सीआइए और आइएसआर आर्थिक मदद के साथ अनेक प्रकार की सूचनाएं भी हासिल कराते हैं। यही नहीं,ये विदेशी ऐजेंसियां इन आतंकवादी संगठनों को दक्षिण पूर्व एशिआई देशों से हथियार खरीदने के लिए सूत्रधार का काम भी करती हैं। इसी कारण असम में अवैध हथियारों की उपलब्ध्ता जितनी है,उतनी अन्य किसी राज्य में नहीं है। इस बंदूक संस्कृति को नेस्तनाबूत किए बिना इन्हें काबू में लेना मुष्किल है।

स्वतंत्र बोडोलैंड के मकसद से बीएलटी यानी बोडोलैंड लिबरेशन टाइगर्स भी हथियारबंद गिरोह के रूप में वजूद में आया हुआ है। हालांकि एनडीएफबी के बड़े हिस्से ने बोडो स्वायत्त परिषद की स्थापना के साथ हिंसा का रास्ता छोड़ दिया है,लेकिन इसका सोंगबिजित गुट आंतक में भागीदार बना हुआ है। जाहिर है,ये ऐसे आतंकी गुट हैं,जो देश के भीतर असम आंदोलन की कोख से उपजे और बड़े उग्रवादी संगठनों में बदलते चले गए। अब केंद्र सरकार ने कठोर निर्णय लेते हुए एनडीएफबी के खिलाफ आॅपरेशन ‘आॅल आउट‘ शुरू कर दिया है। पुलिस अद्धसैनिक बल और सेना के इस संयुक्त अभियान में 9000 जवान लगाए गए हैं। सरकार ने इस बाबत भूटान और म्यामार सरकारों को भी सचेत कर दिया है। यह अभियान अरूणाचल प्रदेश में भी चलेगा। इस अभियान के जमीन पर उतरने से लग रहा है कि केंद्र सरकार अपनी जबावदेही के प्रति फिलहाल प्रतिबद्व दिखाई दे रही है।

असम में अक्सर बड़ी हिंसक वारदातें बांग्लादेश से आए घुसपैठियों और मूल बोडो आदिवासियों के बीच ही होती हैं। लेकिन ताजा घटना में एनडीएएफबी ने जनजातीय समूह पर हमला बोला है। बोडो और दूसरे जनजातीय समूहों के बीच भी खूनी टकराव होता रहा है। इस हिंसा की वजह आर्थिक सरोकारों से स्थानीय लोगों का नहीं जुड़ पाना है। इससे जनजातियों के बीच उमड़ा वैमन्स्य जब-तब उग्र रूप धारण कर खून-खराबे के रूप में पेश आता है। इसका समाधान स्थानीय समाजिक स्तर पर तलाशे जाने की बजाय अकसर गुवहाटी या दिल्ली में तलाशा जाता है। इसलिए यह समस्या बेनतीजा बनी हुई है। संविधान की छठी अनुसूचि में जनजातीय परिषदों के मार्फत समाधान तलाशने का प्रावधान है। इन्हीं के जरिए आर्थिक विकास की बुनियाद रखने की सलाह दी गई है। लेकिन यह प्रयास इसलिए खरे साबित नहीं होते,क्योंकि शासन प्रशासन के इरादे और प्रक्रिया में कहीं तालमेल नहीं होता है। यही स्थिति घुसपैठियों को लेकर बनी हुई है।

सन् 1946 में ही ‘फाॅरनर्स एक्ट‘ के तहत बांग्लादेशियों की अवैध घुसपैठ की पहचान सुनिश्चित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार को अधिकार संपन्न न्यायाधिकरण गठन का निर्देश दिया था। यह निर्देश असम समझौते के तहत दिया गया था। लेकिन भारत सरकार साठ साल की लंबी अवधि मिलने के बावजूद न्यायाधिकरण का गठन नहीं कर पाई। आखिरकार 5 दिसंबर 2006 को सर्वोच्च न्यायालय ने इस तथाकथित न्यायाधिकरण के गठन को संविधान का उल्लंघन मानते हुए खारिज कर दिया। तब से लेकर अब तक बांग्लाभाषी घुसपैठियों की पहचान केंद्र व राज्य के लिए संकट बनी हुई है। 1985 में असम गण परिषद ने असम से घुसपैठियों को बाहर निकाल देने के मुद्दे पर ही सरकार बना ली थी। इस मुद्दे को अमल में लाने की दृष्टि से असम के तात्कालीन मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत और राजीव गांधी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के बीच एक ‘असम समझौता‘भी हुआ था। इसके तहत घुसपैठियों को सीमा पर रोकना और असम की सीमा में आ चुके घुसपैठियों की पहचान कर उन्हें असम से खदेड़ना था। लेकिन इस समझौते पर अमल करने की इच्छाशक्ति कोई सरकार नहीं दिखा पाई। प्रसिद्ध समाजविज्ञानी संजीव बरूआ ने तो कहा भी है कि ‘घुसपैठ के मसले का सामाधान न होना अलगाववादी हिंसा और उससे जुड़े आंदोलनकारी संगठनों के अस्तिव में आने की मुख्य वजह है। इसी समझौते को अमल में लाने की प्रतिबद्वता मनमोहन सिंह सरकार भी बार-बार दोहराती रही,लेकिल कसौटी पर खरी नहीं उतरी। नतीजतन मनमोहन सरकार को न्यायालय की फटकार भी झेलनी पड़ी थी।

एक अनुमान के मुताबिक तीन करोड़ बांग्लादेशी भारत में अवैध रूप से प्रवेश कर चुके हैं। भारत में पहले राशन कार्ड और फिर आधार कार्ड ने इनकी घुसपैठ को सरल बनाया। इसी बिना पर असम तो असम राजधानी दिल्ली में भी भारतीय नागरिक होने का दावा करते हुए लाखों बांग्लादेशी रह रहे हैं। असम में तो ये मतदाता भी बन गए हैं। गैर सरकारी संगठन ‘असम पब्लिक वक्र्स‘ ने सर्वोच्च न्यायायलय में 2012 में एक याचिका दाखिल करके दावा किया था कि असम राज्य की मतदाता सूचि में 40 लाख घुसपैठियों के नाम दर्ज हैं। न्यायालय ने जब केंद्र सरकार से इस बाबत जबाव तलब किया तो सरकार ने जो हलफनामा दिया,उसमें वह घुसपैठियों की पैरवी करती दिखाई दी थी। हलफनामें में कहा गया‘धर्म और भाषा के आधार पर संदिग्ध मतदताओं की पहचान कर उनके नाम हटाने के बारे में एनजीओ का दावा गैरकानूनी,मनमाना और भारत के धर्मनिरपेक्ष व लोकतांत्रिक ढ़ांचे के विरूद्ध है।‘ जाहिर है,मनमोहन सिंह सरकार धर्म,भाषा और धर्मनिरपेक्षता के बहाने घुसपैठियों को प्रोत्साहित करने का काम करती रही है। लिहाजा यह बड़ी एवं भयावह समस्या जस की तस बने रहकर देश की आंतरिक सुरक्षा को खतरा बनी हुई है। कांग्रेस इस समस्या को इसलिए भी सुलटना नहीं चाहती,क्योंकि असम में घुसपैठीय बड़ी संख्या में मतदाता बन गए है। तरूण गोगोई की लगातार तीन बार सरकार बनाने में इस वोट बैंक की भी पृष्ठभूमि रही है। इसलिए घुसपैठियों के विरूद्ध राज्य सरकार का लचीला रूख बना हुआ है। गोया,जब विदेशी घुसपैठ से जुड़े मुद्दे का ही राजनीतिकरण होता रहेगा,तो राख के नीचे दबी चिंगारी बुझने वाली नहीं है।

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  1. भार्गव जी आपका लेख विश्लेषणात्मक है,लेख से कई बातें सामने आती हैं,प्रवक्ता पर ऐसे खोजपरक लेख पढना अपनी जानकारी मैं वृद्धि करना तो है ही साथ मैं समस्या का मूल रूप क्या है और यह समस्या क्यों बढ़ती गयी समझ मैं आता है. भारत विभाजन के समय कश्मीर समस्या उत्प्पन हुई और दिनोदिन बढ़ती गयी.इसी प्रकार बोडो /उल्फा/आदि संगठन अपनी ताक़त बढ़ाते रहे और हमारी सरकार सोती रही. क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों के चलते सरकारों ने घुसपैठियों को नागरिक बनाकर ,आधार कार्ड देकर ,मतदाता सूचि में नाम लिखवाकर सरकारें बना ली, इन सरकारों पर सर्वोच्च न्यायलय में याचिका डाली जाना चाहिए.pravkta डॉट कॉम अपने पाठकों से एप्पल जारी कर याचिका लड़ने के लिए धनराशि जुटाए, यह एक राष्ट्रीय कार्य होगा, आदरणीय भार्गवजी आप इस हिमालयी कार्य को करने के बारे मैं पाठकों से अपील तो करें

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