खैरात में बांटी कोयला खदानें

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प्रमोद भार्गव

जैसे-जैसे परत-दर-परत कोयला खदान आबंटन की जांच आगे बढ़ रही है,वैसे-वैसे घोटाले की तस्दीक पुख्ता हो रही है। इस पड़ताल का जो ताजा खुलासा सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने किया है,उसमें राजग,संप्रग और संयुक्त मोर्चा संस्कारों को भी जबरदस्त झटका लगा है। क्योंकि अदालत ने 1993 से लेकर 2010 के बीच जितने भी खदानों के आबंटन हुए हैं,उन्हें गैरकानूनी माना है। जिस तरह से तदर्थ आधार पर 17 साल तक आंख मूंच कर आबंटन होते रहे,उस परिप्रेक्ष्य में अदालत को यहां तक कहना पड़ा कि ये आबंटन विवेक और दिमाग का इस्तेमाल बिना किए गए। यह टिप्पणी जाहिर करती है कि हम अपनी प्राकृतिक संपदा की सुरक्षा के लिहाज से कितने लापरवाह हैं। हालांकि इस खुलासे की परछाईं में बिजली उत्पादन और गति पकड़ रही अर्थव्यवस्था के प्रभावित होने का खतरा भी मंडरा गया है।

मुख्य न्यायाधीश आर.एस लोढ़ा,न्यायमूर्ती मदन बी लोकुर और कुरियन जोसेफ की खंडपीठ ने कुल 218 खदानों के आबंटन कि जांच की ओर पाया कि राष्ट्रिय संपदा के अनुचित तरीके से वितरण प्रक्रिया में कतई निष्पक्षता और पारदर्षिता नहीं अपनाई गई। अदालत ने राज्य सरकारों को भी इस बाबत कठघरे में खड़ा करते हुए साफ किया कि राज्य सरकारों के सार्वजानिक उपक्रम वाणिज्यिक उपयोग के लिए कोयले का उत्खनन करने के पात्र नहीं हैं। जबकि राज्य सरकारें अल्ट्रा मेगा बिजली परियोजनाओं के बाहने कोयला कारखानों को बेचकर व्यापार करने लग गई थीं। कोयले की दलाली का यह खेल 1993 से 2017 तक बेधड़क व निष्कंटक चलता रहा और इस दलाली में कांग्रेस के पीवी नरसिम्हा राव,राजग के अटल बिहारी वाजपेयी,संयुक्त मोर्चा के एचडी देवगौड़ा एवं इंद्रकुमार गुजराल और फिर मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली केंद्र सरकारें अपने हाथ काले करती रहीं। इस काली करतूत के जरिए सबसे ज्यादा रेवडि़यां बांटने का काम मनमोहन सिंह ने किया। ये आबंटन झारखंड छत्तीसगढ़,महाराष्ट्र,पश्चिम बंगाल ओडि़शा और मघ्यप्रदेश में राज्य सरकार की बिजली कंपनियों के अलावा निजी कंपनियों और व्यक्तिगत स्तर पर किए गए। अदालत ने 14 जुलाई 1993 से शुरू होकर 2010 तक आबंटन संबंधी 36 बैठकों की जांच की है और निष्कर्श निकाला कि खदानों के सभी आबंटन,सरकारी व्यवस्था संबंधी सिफारिशों को आधार मानकर किए गए,जो कि शत-प्रतिशत कानून को नजरअंदाज करके किए गए। साथ ही अपनाया गया तरीका गैरकानूनी था। गैरकानूनी इसलिए था,क्योंकि कोयला खदानों के राष्ट्रियकरण कानून के तहत मनमाने तरीके से और मनमाने उपयोग के लिए खदानें आबंटित नहीं की जा सकती हैं। राज्य सरकारों के उपक्रम व्यापार के लिए कोयला उत्पादन की पात्रता नहीं रखते हैं। राष्ट्रियकरण कानून की धारा के तहत पात्र श्रेणी को ही कोल-खण्डों के आबंटन की इजाजत दी जा सकती है। किसी सरकारी उपक्रम की सहयोगी संस्था बनकर अथवा कोई संगठन या एसोसिएशन बनाकर भी कानूनन खदानें नहीं हथियाई जा सकती हैं। खदान आबंटन की पात्रता की श्रेणी में लौह,इस्पात और बिजली का उत्पादन करने वाली इकाइंया आती हैं। सभी केंद्र सरकारों ने कोयला राष्ट्रियकरण अधिनियम का सरासर उल्लघंन करते हुए गैर लोहा,इस्पात और बिजली उत्पादन से जुड़ी कंपनियों को खदानें दी। इनमें संगीत,गुटखा,बनियान,मिनरल वाटर और समाचार-पत्र छापने वाले संस्थान भी शामिल हैं। इनमें से जिन संस्थानों ने नया उर्जा उत्पादन संयंत्र लगाने का अनुबंध किया था,एक ने भी नहीं लगाया।

कोयला घोटाले को क्रमबार कैग,सीबीआई और सुप्रीम कोर्ट ने उजागर करने का काम किया है। इसे दबाने की भी सरकारी स्तर पर बहुतेरी कोशिशें हुई हैं। हाल ही में एक साक्षात्कार में कोलगेट घोटाले का आॅडिट करने वाले पूर्व नियंत्रक व लेखा महापरीक्षक विनोद राय ने दावा किया है कि ‘संप्रग सरकार के पदाधिकारियों व नेताओं ने दबाव बनाया था कि मैं कोलगेट और राष्ट्रमंडल खेल घोटालों से जुड़ी आॅडिट रिपोर्ट से कुछ नामों को हटा दूं ।‘ यह पूरा खुलासा राय की अक्टूबर में आने वाली किताब ‘नाॅट जस्ट एन एकाउंटेट‘ में होगा। इसके पहले इस घोटाले से जुड़ी जो चैंदहवीं एफआईआर सीबीआई ने दर्ज की थी,उनमें प्रसिद्ध उद्योगपति कुमार मंगलम बिड़ला के साथ पूर्व कोयला सचिव प्रकाशचंद्र पारिख का नाम भी दर्ज था। बिड़ला की हिंडाल्को कंपनी के नाम कुछ कोल-खंड आबंटित हुए हैं। इस गड़बड़ी में नाम आने पर पारिख ने एक हिंदी समाचार चैनल को साक्षात्कर देते हुए कहा था,‘प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नाम तो एफआईआर में फस्र्ट कांसिपिरेटर मसलन बतौर प्रथम साजिशकर्ता के रूप में दर्ज होना चाहिए,क्योंकि आबंटन संबंधी अंतिम निर्णय उन्हीं के थे। वो चाहते तो मेरी सिफारिशों को खारिज कर सकते थे।‘ मनमोहन सरकार में कानून मंत्री रहे अश्विनी कुमार ने सीबीआई की स्थिति रिपोर्ट बदलवाने में गैर कानूनी भूमिका का निर्वाह किया था। इस हकीकत का खुलासा हुआ तो कुमार को मंत्री पद गंवाना पड़ा था। सुप्रीम कोर्ट के महाधिवक्ता भी स्थिति रिपोर्ट प्रधानमंत्री कार्यालय को दिखाने के ऐवज में नप चुके हैं। इन प्रपंचो ने ही साफ कर दिया था कि खदान आबंटन में बड़ी गड़बडि़या की गई हैं। इसीलिए स्थिति रिपोर्ट में फेरबदल और कैग की जांच से नाम हटाने के लिए विनोद राय पर मनमोहन सरकार ने दबाव बनाया था। भला हो देश की निष्पक्ष न्यायपालिका का कि उसने देशवासियों के भारोसे को तो कायम रखा ही, उच्च स्तर पर राजनेताओं,नौकरशाहों और उद्योगपतियों की सांठगांठ से चल रही बंदरवांट को भी जनता के सामने ला दिया।

गैर सरकारी संगठन काॅमन काज द्वारा जारी जनहित याचिकाओं पर व्यापक सुनवाई करते हुए अदालत ने अपनी निगरानी में इस घोटाले की जांच सीबीआई को सौंपी थी। इस परीक्षण में अदालत इस नतीजे पर तो पहुंच गई है कि 218 खदानों का आबंटन नियम विरूद्ध हुआ है। इनमें 105 खदानें निजी कंपनियों को,99 सरकारी कंपनियों को 12 अल्ट्र्रा मेगा बिजली और 2 खदानें सीटीएल परियोजनाओं को बांटी गई हैं। अदालत सुनवाई के दौरान 41 कोयला खदानों का आबंटन रद्द कर चुकी है। कैग ने अनियमित खदान आबंटनों से सरकारी खजाने को करीब 1.64 लाख करोड़ रूपय का नुकसान होने का अंदाजा लगाया था। लेकिन जांच का दायरा बढ़ने पर यह आकलन बढ़कर 1.86 लाख करोड़ रूपए हो गया है। फिलहाल अदालत ने आबंटन रद्द नहीं किए है। इस संबंध में शीर्ष न्यायालय फैसला 1 सितंबर को सुनाएगी।

यदि ये खदानें रद्द हो जाती हैं तो देश की अर्थव्यस्था को बड़ा झटका लगना स्वाभाविक है। क्योंकि जब 1.76 लाख करोड़ का 2जी स्पेक्ट्र्रम घोटाले से पर्दा उठा था और सुप्रीम कोर्ट ने स्पेक्ट्र्र्रम के 122 आबंटन रद्द कर दिए थे तो मनमोहन सरकार की विकास दर का ग्राफ नीचे गिर गया था। कोयला घोटाले के बाद तो विकास दर पर जैसे विराम ही लग गया। जीडीपी दर 4-5 फीसदी के बीच झूलती रही। कोलगेट का साया भी अर्थव्यस्था पड़ा है। नियमगिरी की पहाडि़यों पर अदालत द्वारा बाॅक्साइट के खनन पर लगाई रोक के बाद वेदांता व अन्य कई कंपनियों ने अपने बोरिया-बिस्तर ही समेटना शुरू कर दिए थे। अब यदि सितंबर को अदालत कोयला खनन के पट्टे रद्द कर देती है तो अर्थव्यस्था तो चौपट होगी ही,प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विकास और रोजगार के जो सपने देश की अवाम को दिखाए हैं,उन पर भी पानी फिरना तय है। क्योंकि बिजली कंपनियांे ने कोयले के उत्खनन पर करीब 2.75 लाख करोड़ का निवेष किया हुआ है। कई राष्ट्रिय और निजी बैंकों का धन भी इन कंपनियों में लगा है। जाहिर है,आबंटन खारिज हुए तो कंपनियों और बैंको की आर्थिक स्थिति लड़खड़ा जाएगी। इसलिए सरकार को चाहिए कि वह स्पष्ट और पारदर्शी खनिज आबंटन संबंधी नीति बनाए। सौर्य उर्जा संयंत्रों को बढ़ावा दे और सौ शहरों को स्मार्ट सिटियों में बदलने की बजाय,ग्रामीण विकास और कृषि क्षेत्र को गति दे। क्योंकि औद्योगिक विकास आखिरकार प्राकृतिक संपदा के बेहिसाब दोहन पर आधारित है और कोई भी संपदा प्रकृति के गर्भ में अटूट नहीं है। एक दिन उसे समाप्त होना ही है

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