मानव और प्रकृति में संतुलन

0
686

इन दिनों प्रायः देश के किसी ने किसी भाग से गांव में घुस आये बाघ, हाथी आदि जंगली जानवरों की चर्चा होती रहती है। बस्ती के आसपास मित्र की तरह रहने वाले कुत्ते और बंदरों का आतंक भी यदा-कदा सुनने को मिलता रहता है। कुछ राज्य सरकारें इनकी नसबंदी करा रही हैं। इससे लाभ होगा या हानि, यह तो 20-25 साल बाद ही पता लगेगा।

मानव और पशु-पक्षियों का साथ सदा ही रहा है। सृष्टि में शाकाहारी से लेकर मांसाहारी तक, लाखों तरह और आकार-प्रकार के प्राणी हैं। उनमें से कई का तो हमें अभी तक पता ही नहीं है। जैसे शरीर में कई अंग दिखायी देते हैं, तो कई नहीं। कुछ छोटे हैं, तो कुछ बड़े। फिर भी हर अंग का अपना महत्व एवं उपयोग है। सब एक-दूजे पर आश्रित हैं। यही स्थिति विभिन्न जीव-जंतुओं की है। इसलिए कुछ जीवों को सृष्टि से पूरी तरह मिटा देने के प्रयास कभी भी उचित नहीं कहा जा सकता।

एक बार चीन सरकार ने तय किया कि छोटी चिड़ियां बहुत अन्न खा लेती हैं, अतः उन्हें मार दिया जाए। एक निश्चित दिन सब लोग अपनी छतों पर आ गये। शोर मचाकर चिड़ियों को उड़ाया गया। जैसे ही वे थककर बैठने लगतीं, लोग उन्हें फिर उड़ा देते। कुछ ही घंटों में करोड़ों चिड़ियां मर गयी; पर अन्न की बर्बादी उस साल पहले से भी अधिक हुई। क्योंकि वे चिड़ियां अन्न के साथ ही खेती के लिए हानिकारक कीड़े भी खा लेती थीं। चिड़ियों के मरने से कीड़ों की संख्या बहुत बढ़ गयी और वे पूरी फसल खा गये। ऐसे उदाहरण विश्व इतिहास में एक नहीं, हजारों हैं; लेकिन अब मानव जनसंख्या, के साथ ही भौतिक सुविधाओं की होड़ भी बढ़ रही है। अतः प्राकृतिक संसाधनों का तेजी से विनाश किया जा रहा है। अतः पशु भी मजबूरी में हिंसक और उपद्रवी हो रहे हैं।

लगभग 15 साल पुरानी बात है। मैं उन दिनों लखनऊ में रहता था तथा गरमी में खुली छत पर सोता था। एक बार अचानक उस मोहल्ले में आने वाले बंदरों की संख्या बहुत बढ़ गयी। अतः मुझे अंदर सोने पर मजबूर होना पड़ा। कारण ढूंढने पर पता लगा कि लगभग पांच कि.मी. दूर का जंगल साफ कर एक नयी कालोनी बन रही है। वहां के बंदर ही परेशान होकर शहर में आ रहे हैं।

यही स्थिति हाथियों और बाघ आदि की है। मनुष्य अपने आवास, व्यापार या मनोरंजन के लिए जंगल में घुस रहा है, तो जानवर कहां जाएं ? देहरादून, हरिद्वार और ऋषिकेश की सड़कों पर प्रायः हाथी आ जाते हैं। उनके आते ही वाहन चुपचाप पीछे हटकर खड़े हो जाते हैं। जल स्तर गिरने से कई जंगलों में तालाब सूख गये हैं। अतः प्यासे पशु मीलों दूर गंगा तक आ जाते हैं। मांसाहारी पशु रात में शिकार करते हैं और दिन में सोते हैं; पर दिन में उन जंगलों की सड़कों पर वाहन दौड़ने लगे हैं। पर्यटक उनकी नींद खराबकर फोटो खींचते हैं। जंगलों में बने होटलों के शोर से भी पशु परेशान होते हैं। जहां जंगलों में रेल लाइनें हैं, वहां भी यही समस्या है।

ऐसी समस्याओं का हल दो और दो चार जैसा सरल नहीं है। विकास केे लिए सड़क और रेलगाड़ियां जरूरी हैं। बढ़ती जनसंख्या के लिए घर भी चाहिए। शहरीकरण के रुकने की भी कोई संभावना नहीं है। अतः हमें प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर चलना सीखना होगा। जितना हम ले रहे हैं, उससे कुछ अधिक उसे नहीं लौटाएंगे, तो भावी पीढ़ियों को बहुत कष्ट भोगने होंगे। यद्यपि विज्ञान कई चीजों का उत्तर ढूंढ लेता है; पर कई बार वह 25 साल बाद नयी समस्या बन जाता है।

1965 के युद्ध के समय अमरीका ने हमें गेहूं देने से मना कर दिया था। तब हम अन्न के मामले में आत्मनिर्भर नहीं थे। ऐसे में राजनीतिक नेतृत्व ने कृषि वैज्ञानिकों को चुनौती दी। इससे हुई ‘हरित क्रांति’ से हम खाद्यान्न में आत्मनिर्भर तो हुए, पर रासायनिक खाद और कीटनाशकों से खेतों की उर्वरता घट गयी। अतः हर बार अपेक्षाकृत अधिक खाद आदि लगने लगीं। रासायनिक अन्न और चारे से मानव और पशुओं में नये रोग आ गये। कम समय की फसलों से पानी का खर्च बढ़ गया। अतः जल की समस्या आ गयी। अब सब परेशान हैं कि क्या करें ?

यही हाल बढ़ती गरमी का है। इससे निबटने को विज्ञान ने फ्रिज और ए.सी. आदि बना दियें; पर अब ध्यान आ रहा है कि जितने ए.सी. लग रहे हैं, गरमी उतनी ही बढ़ रही है। सूर्य और धरती के बीच की ओजोन परत लगातार छीज रही है। हिमानियों के पिघलने से समुद्र आगे बढ़कर निकटवर्ती नगरों और देशों को निगल रहे हैं। अतः चांद पर बस्ती बसाने की बात होने लगी है।

इस बारे में हिन्दू चिंतन सही दिशा दिखाता है। भारत में अच्छा खाना-पहनना कभी मना नहीं था। देवताओं को 56 व्यंजनों का भोग लगता था। आम आदमी की थाली में भी चार-छह चीजें रहती थीं। सोने-चांदी के बरतनों का प्रयोग भी होता ही था। आज भी बच्चे के अन्नप्राशन पर चांदी के छोटे चम्मच, कटोरी या गिलास देते हैं। मंदिर में अष्टधातु की मूर्तियां, स्वर्ण मुकुट और आभूषण आम बात हुआ करती थी; लेकिन उपभोग पर संयम का चाबुक भी था। ‘ईशोपनिषद’ में सृष्टि की हर चीज को ईश्वर की बताकर ‘त्येन त्यक्तेन भुंजीथा’ (त्यागपूर्वक उपभोग करो) कहा गया है। प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर चलने का अर्थ यही है।

एक 75 वर्षीय बुजुर्ग को अखरोट का पेड़ लगाते देख एक यात्री ने कहा, ‘‘बाबा, तुम्हारे पांव शमशान की ओर मुड़े हैं। 40 साल बाद जब यह पेड़ फलेगा, तब तुम कहां होगे ?’’ बुजुर्ग ने हंसकर कहा, ‘‘मैंने बचपन और जवानी में जिन पेड़ों के अखरोट खाये थे, वे मेरे दादा और पिता ने लगाये थे। ये पेड़ में अपने नाती-पोतों के लिए लगा रहा हूं।’’

छोटी होने पर भी कहानी का अर्थ बड़ा है। प्रकृति के साथ चलने का अर्थ केवल आज नहीं, तो कल और परसों के बारे में सोचना भी है। इसलिए भारत की हर समस्या अमरीका या इंग्लैंड की तरह हल नहीं होगी। विकास का अर्थ बड़ा घर और गाड़ी; बिजली, पानी और शराब का अधिक उपभोग; कपड़े, गहने या जूतों से भरे कमरे नहीं है। विकास का अर्थ है मानव और प्रकृति के बीच संतुलन। भगवान ने हमारी तरह ही पशु-पक्षी और पेड़-पौधों को भी बनाया है। इनके साथ सामंजस्य बनाकर चलने का काम सृष्टि में सबसे अधिक बुद्धिमान प्राणी होने का दावा करने वाले मनुष्य का ही है।

– विजय कुमार

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here