डॉ. मयंक चतुर्वेदी
वक्त बदलता है तो परिस्थितियां कैसे बदलती हैं, इसका अंदाजा कम-ज्यादा सभी को रहता ही है। लेकिन ऐसा बहुत कम होता है कि होने वाले बदलाव एकदम व्यापक पैमाने पर देखने को मिल जायें। देश में सोलहवीं लोकसभा में व्यापक जन समर्थन के साथ सरकार बनाने में भाजपा के सफल होने के बाद जो तस्वीर आज उभर रही है, उसे देखकर यही कहना होगा कि देश की जनता ने भले ही सही चुनाव में दस वर्षों का लम्बा समय लिया, किंतु अपने लिए केंद्र में सरकार ऐसी चुनी है, जो हर उस विषय पर काम करना चाहेगी जो देश के लिए जरूरी होने के बाद भी बहुमत के अभाव में संसद में पास नहीं हो पाते थे। नई सरकार से सभी को आस है कि वह बे-रोक-टोक संख्या बल के सामर्थ्य से संसद में देश हित के कानून बना पायेगी और आवश्यक जरूरी बदलाव भी कर सकेगी।
भारतीय संसद में लम्बे समय से अटका महिला आरक्षण का विषय कुछ ऐसा ही मामला है जिसे पास होते देखने की मंशा पूरे देश की है पर इसके लिए आवश्यक बहुमत संसद में कभी नहीं जुट सका जो इसे कानून में बदल सकता। लेकिन वर्तमान में हालात बदल गए हैं, देश के प्रधानमंत्री मनमोहन नहीं नरेंद्र मोदी हैं, जो अपने सख्त निर्णयों के लिए खासी पहचान रखते हैं, ऐसे में देश की पचास प्रतिशत अबादी को उन पर भरोसा है कि वह जो निर्णय लेंगे वह देश और यहां की आधी आबादी के हक में होगा।
भारत के अभी तक के संसदीय इतिहास में यह पहली बार है कि महिलाएं सबसे अधिक संख्या में जीत कर आई हैं। सोलहवीं लोकसभा में 61 महिला उम्मीदवार जीत कर पहुंची हैं, जबकि 543 सदस्यीय लोकसभा में महिला उम्मीदवारों की संख्या 2009 में 58 रही थी। उसके और पीछे जायें तो 2004 में 45 और 1999 में 49 महिलाएं विजयी रथ पर सवार हो संसद में पहुंची थीं। लोकसभा में सबसे कम महिलाएं 1957 में दिखीं, जब उनकी संख्या सिर्फ 22 थी।
सन् सत्तावन से अब तक की संसदीय यात्रा में हालांकि सभी राजनीतिक दलों ने महिलाओं को अपना उम्मीदवार बनाने में संख्यात्मक बढ़ोत्तरी तो की, लेकिन वह उस मायने में कदापि नहीं रही जितनी देश की आधी आबादी हकदार रही है। यहां कुछ सक्रिय महिलाओं को टिकिट जरूर दिया जाता रहा है पर वह भी अधिकांश मामलों में तभी दिया गया, जब किसी कारण से पारिवारिक पुरूष वर्ग अपने परंपरागत क्षेत्र से लोकसभा चुनावों में खड़ा नहीं हो सका या ऐसे घरानों से जो पहले राजशाही जीवन जीते आए हैं लेकिन भारत में प्रजातंत्र आ जाने के बाद अपने को कमजोर मानते हैं, उन परिवारों में मां, बेटी, बहू और यहां तक कि नातिन भी चुनावी समर में उतरती हुई नजर आयी हैं। इसके परिणाम स्वरूप देश में लोकतंत्र व्यवस्था के अंतर्गत एक-दो उदाहरणों को छोड़ दिया जाए तो प्रभावशाली आम महिला नेत्रत्व आज तक नहीं उभर सका है।
हालांकि यह भी सच है कि विधायिका में आम महिलाओं के लिए स्थान आरक्षित करने के प्रयास काफी लंबे अर्से से चल रहे हैं। 1974 में महिलाओं की स्थिति पर गठित एक समिति ने राजनीतिक निकायों में महिलाओं की कम संख्या पर प्रकाश डाला था और सिफारिश की थी कि पंचायतों व शहरी स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए स्थान आरक्षित किये जाने चाहिए। इस समिति के दो सदस्यों ने संपूर्ण विधायिका में महिलाओं के लिए सीटों के आरक्षण की सिफारिश की थी। सन् 88 में महिलाओं के लिए नेशनल प्रस्पेक्टिव प्लान में पंचायतों, शहरी निकायों व राजनीतिक दलों में महिलाओं के लिए 30 फीसदी आरक्षण की संस्तुति की गई थी। वहीं संसद में 1993 में 73वें व 74वें संविधान संशोधन के जरिए नगर निगमों व पंचायतों को संवैधानिक दर्जा देने के साथ ही इनमें महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटें आरक्षित करने का प्रावधान किया गया। संविधान में लोकसभा व राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात के अनुसार सीटें आरक्षित करने का प्रावधान है, लेकिन इनमें महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने का कोई प्रावधान नहीं है।
देश की पचास फीसद आबादी आज अपने लिए यदि विधायी स्तर पर 33 फीसद सीटों के आरक्षण की मांग कर रही है तो क्या इसे ज्यादा मांगना कहा जा सकता है ? वह भी इसीलिए कि वे राजनीति में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित कर सकें और देश में हो रहे महिला अत्याचारों पर अंकुश लगाने में अपना प्रत्यक्ष अधिकतम योगदान दे पायें। पिछले 14 वर्षों से केंद्र की सत्ता में काबिज कई सरकारों ने लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 आरक्षण देने संबंधी महिला आरक्षण बिल पास कराने का प्रयत्न किया, लेकिन इसमें उन्हें सफलता नहीं मिल सकी है। हां, इतना जरूर है कि इस दिशा में केंद्र सरकार को मार्च 2010 में उस समय आंशिक किंतु एक बड़ी सफलता अवश्य मिली थी जब इस प्रावधान के लिए लाए गये 108वें संविधान संशोधन विधेयक को राज्यसभा की मंजूरी दे दी गई। बिल के राज्यसभा में पारित हो चुकने के बाद से यह लोकसभा से अभी तक अपनी स्वीकृति का इंतजार कर रहा है।
इस बिल को लेकर राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी व लोकजन शक्ति जैसी क्षेत्रीय पार्टियों को लगता है कि इसके पास हो जाने से उनके प्रभाव क्षेत्र में कमी आ जाएगी। यह दल मांग करते हैं कि महिलाओं को नहीं समाज के पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण के अंदर आरक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए। यही कारण रहा कि यह बिल लोकसभा तीन बार संसद के पटल पर रखा गया और तीनों बार यह विधेयक भारी शोर-शराबे के कारण पूरी तरह से निष्प्रभावी हो गया।
भारत में महिलाओं के प्रतिनिधित्व पर दृष्टि डाली जाए तो संसद में चुने गए प्रतिनिधियों और विधान परिषद सहित राजनीति के हर पहलू में उनका प्रतिनिधित्व कम है। वर्तमान संसद में उनका प्रतिनिधित्व 10.10 फीसद सीटों पर है और 1.5 फीसद महिला मंत्री हैं, जबकि प्रमुख विकास प्रक्रियाओं की चर्चा में उनका योगदान सात फीसद का ही है। जबकि देश के राजनेताओं को यह समझा चाहिए कि दुनिया के लगभग 100 देशों में राजनीतिक प्रक्रिया में महिलाओं की उपस्थिति सुनिश्चित करने के उद्देश्य से आरक्षण का प्रावधान किया गया है। डेनमार्क, नॉर्वे और स्वीडन की राजनीति में महिलाओं का काफी अच्छा प्रतिनिधित्व है। रवांडा जैसे कुछ देशों में तो महिलाओं की संख्या संसद में पुरुषों के मुकाबले बहुत ज्यादा 56 प्रतिशत तक है। स्वीडन 47, दक्षिण अफ्रीका 45, आइसलैंड 43, अर्जेन्टीना 42, नीदरलैंड्स 41 और नॉर्वे व सेनेगल में 40 प्रतिशत तक महिलाओं के लिए पुरूषों ने अपने देश की मातृ शक्ति के लिए स्थान आरक्षित किए हुए हैं।
देश में नई सरकार के गठन के बाद जिस तरह प्रधानमंत्री विदेशों में भारत का डंका बजा रहे हैं, आंतरिक मोर्चे पर एक के बाद एक सफलतम निर्णय ले रहे हैं, उन्हें देखकर जरूर देश की आधी आबादी को लगने लगा है कि अब उनके भी अच्छे दिन आने वाले हैं। मोदी सरकार संसद के शीतकालीन सत्र में महिला आरक्षण विधेयक पेश करेगी उन्हें यही आशा है। यह आस इसीलिए भी बंध गई है क्यों कि अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री नजमा हेपतुल्ला ने कहा है कि वह चाहेंगी कि महिला विधेयक लोकसभा से पारित हो जाए, क्योंकि महिलाओं को बराबरी के अवसर देने के लिए यह जरूरी है। जब केंद्रीय मंत्रीमण्डल का सदस्य यह कह रहा हो, तब उसके अर्थ यही निकाले जायेंगे कि इस विषय को लेकर संसद में विधेयक लाने के लिए उनकी पार्टी में आम सहमति बन गई है।
शीतकालीन सत्र आगामी 24 नवंबर से शुरू हो रहा है। भाजपा, उसके सहयोगी दल और विपक्षी कांग्रेस महिला आरक्षण विधेयक के समर्थन में पहले से हैं और आज जिनका संख्या बल इस बिल को पास कराने के लिए पर्याप्त है। ऐसे में इस विधेयक को संसद में पास होने में देरी नहीं होनी चाहिए। नहीं तो लाख देश हित के काम करलें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पूरी टीम, उनके सत्ता में रहते हुए यदि यह महिला आरक्षण विधेयक संसद में पास नहीं हो सका तो केंद्र की भाजपा सरकार को लेकर यही माना जाएगा कि महिला अधिकारों के संरक्षण को लेकर उसकी नियत मे खोट है, जो पहले उसके विपक्ष में बैठने के कारण दिखाई नहीं दे रही थी और अब सत्ता आते ही प्रकट हो गई ह