स्वतंत्र भारत के इतिहास में बीता वर्ष भ्रष्टाचार के विरुद्ध छेड़ी गई आंदोलन रूपी सबसे बड़ी मुहिम के रूप में याद किया जाएगा। देश में भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था कायम करने हेतु जनलोकपाल विधेयक संसद में पारित कराए जाने की मांग को लेकर अन्ना हज़ारे व उनके कुछ सहयोगियों द्वारा छेड़े गए इस आंदोलन को इतना बड़ा जनसमर्थन प्राप्त होते हुए देखा जा रहा था कि इस आंदोलन की तुलना लीबिया व ट्यूनिशिया जैसे देशों में फैले जनाक्रोश से की जाने लगी थी। भले ही टीम अन्ना के सदस्य इस भारी जनसमर्थन को अपनी संगठनात्मक उपलिब्ध या कुशल प्रबंधन क्यों न मान रहे हों परंतु दरअसल उनके साथ दिखाई देने वाला यह भारी जनसमूह वही जनसमूह था जोकि गत् कई दशकों से प्रतिदिन कहीं न कहीं अपने दैनिक जीवन के किसी न किसी मोड़ पर भ्रष्टाचार अथवा रिश्वतखोरी का सामना करता आ रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि आज आप देश के किसी भी नागरिक से बात करें तो वह भ्रष्टाचार से अत्यंत दु:खी व्यवस्था में व्याप्त रिश्वतखोरी के वातावरण से त्राहि-त्राहि करता दिखाई दे रहा है। हालांकि यह और बात है कि भ्रष्टाचार से दु:खी दिखाई देने वाला वही व्यक्ति स्वयं भ्रष्टाचार को कितना गले लगाता है तथा कितना प्रोतसाहित करता है या इस भ्रष्ट व्यवस्था में खुद कितना बड़ा हिस्सेदार है।
बहरहाल टीम अन्ना का इस बात के लिए देशवासियों को ज़रूर शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि अपने सदस्यों पर उछलने वाले तमाम कीचड़ के बावजूद उन्होंने पूरी मज़बूती से डटकर इस व्यवस्था का मुकाबला किया तथा आम नागरिकों को जागरुक करने व उन्हें इस मुहिम के साथ जोड़ने व सड़कों पर लाने में कामयाब रहे। परंतु टीम अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी इस आंदोलन के बाद पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के जो परिणाम सामने आए उन्हें देखकर तो ऐसा प्रतीत होता है गोया मतदाताओं पर इस आंदोलन का या तो कोई प्रभाव हुआ ही नहीं या फिर विपरीत प्रभाव हुआ। उदाहरण के तौर पर जनलोकपाल विधेयक को लेकर छिड़ी बहस के दौरान टीम अन्ना का सबसे प्रबल विरोध करने वाली समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में पहली बार इतने बड़े बहुमत से विजयी होकर सत्ता में आई। टीम अन्ना द्वारा उत्तर प्रदेश में अयोग्य प्रत्याशियों को न चुने जाने की अपील भी की गई थी। परंतु चुनाव परिणाम यह बताते हैं कि इस बार ऐतिहासिक रू प से राज्य में सबसे अधिक मतदान प्रतिशत तो रहा ही साथ-साथ दागी, दबंग व बाहुबली छवि रखने वाले तमाम नेता भी अपने-अपने चुनाव जीतने में कामयाब हुए। इतना ही नहीं बल्कि टीम अन्ना के मु य निशाने पर रही कांग्रेस पार्टी भी बावजूद इसके कि वह अपेक्षित सफलता नहीं प्राप्त कर सकी फिर भी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनावों की तुलना में न केवल 6 सीटों का इज़ाफा किया बल्कि कांग्रेस के वोट प्रतिशत में भी बढ़ोत्तरी हुई। प्रश्र्न यह है कि टीम अन्ना द्वारा चलाए गए आंदोलन के परिपेक्ष्य में उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों को किस प्रकार परिभाषित किया जाना चाहिए?
इसी प्रकार उत्तराखंड राज्य का भी चुनाव परिणाम कुछ अजीबो गरीब रहा। उत्तराखंड में भुवन चंद खंडूरी को एक साफसुथरी व सैनिक छवि रखने वाला ईमानदार नेता माना जाता है। मु यमंत्री बनते ही खंडूरी ने सर्वप्रथम अपने राज्य में लोकपाल बिल पारित कराया। अन्ना हज़ारे व उनकी पूरी टीम ने खंडूरी के इस कदम की सार्वजनिक रूप से तारीफ भी की। परंतु राज्य के चुनाव परिणाम टीम अन्ना द्वारा छेड़े गए आंदोलन के बिल्कुल विपरीत रहे। राज्य में भारतीय जनता पार्टी न केवल सत्ता से बाहर हो गई बल्कि स्वयं खंडूरी भी अपना चुनाव हार गए। इसके बजाए भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे दूसरे भाजपा उ मीदवार व पूर्व मु यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक विजयी रहे। उधर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के निशाने पर रहने वाली कांग्रेस पार्टी राज्य में सत्ता में वापस आ गई। सवाल यह है कि आखिर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की सड़कों पर दिखाई देने वाली सफलता व उनके आने वाले असफल परिणाम, आंदोलन में सक्रिय टीम अन्ना के सदस्यों का सरकार,संसद व संसदीय व्यवस्था पर आक्रमण करना तथा स्वयं तरह-तरह के आरोपों के घेरे में आना, कभी राजनेताओं को अपने मंच पर बिठाकर उन्हें अपने पक्ष में दिखाने की कोशिश करना तो कभी उन्हीं को चोर-उच्चका, बेईमान व भ्रष्ट आदि बताना जैसी कई बातें हमें क्या संदेश देती हैं? मुंबई में अपने अनशन की असफलता के बाद टीम अन्ना ने çव्हसिल ब्लोअर्स बिल के नाम पर पिछले दिनों जंतर-मंतर पर पुनज् एक दिवसीय अनशन किया। इस अनशन में कई ऐसे परिवारों के लोग भी शामिल हुए जिनके परिवार का कोई न कोई सदस्य अपनी ईमानदारी व कर्तव्यों की पालना करते हुए माफिया व भ्रष्टाचारियों के हाथों शहीद कर दिया गया था। इस एक दिवसीय आयोजन को भी जनता ने सिर-आंखों पर बिठाया और आंदोलन स्थल पर भारी सं या में लोग इकट्ठे हुए। परंतु इस पूरे आंदोलन की भी हवा उस समय निकल गई जबकि आंदोलन से जुड़े कई जिम्मेदार सदस्यों ने अपने उत्तेजनापूर्ण भाषण में संसद व संसद सदस्यों को अपमानित करने का प्रयास किया। मिसाल के तौर पर संसद में शरद यादव द्वारा दिए गए भाषण का वह संपादित अंश जंतर-मंतर पर दिखाया गया जोकि राजनेताओं की जनलोकपाल विधेयक के विरोध की मंशा को दर्शाता था। साथ ही मनीश सिसोदिया ने शरद यादव के भाषण की समाçप्त पर बड़े व्यंगात्मक ढंग से कहा क्वचोर की दाढ़ी में…..। और फिर जनता ने इसका जवाब दिया -’तिनकां’। इस प्रकार के और भी कई शब्द उसी मंच पर ऐसे इस्तेमाल किए गए जोकि किसी विशेष भ्रष्ट सदस्य के आचरण पर उंगली उठाने के बजाए पूरी की पूरी संसदीय व्यवस्था व समस्त सांसदों को कठघरे में खड़ा करने वाले प्रतीत हो रहे थे। परिणामस्वरूप पूरी संसद एक स्वर में टीम अन्ना के विरुद्ध संसद में संगठित हो गई तथा इनके इस प्रकार के गैर जिमेदाराना आचरण के विरुद्ध निंदा प्रस्ताव पारित कर दिया गया। यह तो भला हो रघुवंश प्रसाद सिंह जैसे सूझ-बूझ रखने वाले नेताआंे का जिन्होंने टीम अन्ना के कुछ सदस्यों की इस प्रकार की असंसदीय शैली की आलोचना तो की परंतु साथ-साथ उन्हें क्षमा किए जाने की बात कहकर संसद में चल रही टीम अन्ना विरोधी बहस की गंभीरता को भी कम कर दिया। अन्यथा मुलायम सिंह यादव सहित कई नेता ऐसे भी थे जो ऐसी अभद्र शैली का प्रयोग करने वालों को संसद के कठघरे में खड़ा करने तथा उनके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई करने तक की मांग कर रहे थे।
बहरहाल, संसद ने तो एक बार टीम अन्ना के उत्तेजित सदस्यों को उनके असंसदीय भाषणों के लिए माफ ज़रूर कर दिया है परंतु सदन में निंदा प्रस्ताव पारित कर उन्हें एक बार फिर यह एहसास ज़रूर करवा दिया है कि लाख कमियों,बुराईयों, आलोचनाओं व दाग-धब्बों के बावजूद अब भी देश की यही संसद सर्वोच्च है तथा देश के हित या अहित में जो कुछ भी कर पाने का सामथ्र्य है वह इसी संसद व संसदीय व्यवस्था में ही है। लिहाज़ा जनलोकपाल के नाम पर कथित रूप से समानांतर सरकार गठित किए जाने का टीम अन्ना के चंद सदस्यों का प्रस्ताव भी संसद में तभी पारित हो सकता है जबकि यह संसद उसे पारित करवाना चाहें जोकि कभी टीम अन्ना के सदस्यों के साथ बैठे दिखाई देते हैं तो कभी उनकी गालियां सुनते नज़र आते हैं। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से जुड़ी एक और ताज़ा घटना पिछले दिनों यह देखने को मिली कि इस आंदोलन का श्रेय लेने की होड़ में लगे अन्ना हज़ारे टीम के सदस्य व बाबा रामदेव जोकि कल तक इस आंदोलन के अलग-अलग ध्रुव के रूप में दिखाई दे रहे थे वे दोनों एक मंच पर नज़र आए। दोनों ने घोषणा की कि अब वे सामूहिक रूप से एक-दूसरे की ताकत को इक_ा कर व्यवस्था परिवर्तन के लिए संघर्ष करेंगे। जहां तक बाबा रामदेव का प्रश्र्न है तो वे तो पहले ही देश के राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री को अपने चरणों में बैठने वाला बताकर अपनी अहंकारपूर्ण शैली का परिचय दे चुके हैं। विदेशों से काला धन वापस लाने जैसी लोकलुभावनी बातें कहकर जनता को अपने विशेष अंदाज़ से अपनी ओर आकर्षित करने वाले बाबा रामदेव स्वयं टैक्स चोरी के शिंकजे में कसते जा रहे हैं। पिछले दिनों तहलका द्वारा यह सनसनीखेज़ खुलासा किया गया था कि किस प्रकार उनके ट्रस्ट ने लाखों रुपये के टैक्स की चोरी की थी। अभी तहलका द्वारा बाबा रामदेव के ट्रस्ट द्वारा की जाने वाली टैक्स चोरी के खुलासे की घटना को एक सप्ताह भी नहीं बीता था कि बाबा रामदेव की कंपनियों द्वारा निर्मित दवाईयों से भरा एक ट्रक जिसमें लगभग 13 लाख रुपये कीमत की दवाईयां लदी हुई थीं, उत्तराखंड के वाणिज्य विभाग द्वारा पकड़ा गया। बिना किसी रसीद व बिना टैक्स अदा किए हुए यह ट्रक रामदेव की कंपनियों द्वारा निर्मित दवाईयां लेकर जा रहा था।
सवाल यह है कि एक ओर तो बाबा रामदेव द्वारा काले धन व भ्रष्टाचार के संबंध में भाषण देना,जनता को उत्तेजित करना व दूसरी ओर उनकी कंपनियों का कथित रूप से स्वयं टैक्स चोरी जैसी गतिविधियों में शामिल होना और बाद में इन्हीं बाबा रामदेव का अन्ना हज़ारे के साथ भविष्य के जनआंदोलनों हेतु हाथ मिलाना जैसी बातें अपने-आप में विरोधाभासी तो हैं ही साथ-साथ यह सोचने के लिए भी पर्याप्त हैं कि यह आंदोलन व इसका नेतृत्व अपनी राह से भटक रहा है। इतना ही नहीं बल्कि बाबा रामदेव द्वारा दैनिक घरेलू उपयोग की वस्तुओं की बिक्री के क्षेत्र में उतरने की घोषणा करना भी इस बात का सुबूत है कि उन्हें योग सिखाने के बाद बढ़ाए गए अपने जनाधार का प्रयोग अपने व्यापार को बढ़ाने के लिए करने में अधिक दिलचस्पी है। इन हालात में बड़े अफसोस के साथ यह स्वीकार करना पड़ रहा है कि जिस भ्रष्टाचार विरोधी जनआंदोलन से देश के वास्तविक ईमानदार वर्ग को कुछ उ मीदें नज़र आ रहीं थीं शायद अब वह धूमिल होती दिखाई दे रही हैं। और यदि उपरोक्त कारणों के चलते यह आंदोलन कमज़ोर पड़ा या इसकी कमर टूट गई तो बकौल अन्ना हज़ारे फिर यह आंदोलन क्वअभी नहीं तो कभी नहींं की परिणिती पर ही पहुंच जाएगा और निश्चित रूप से यह देश के लिए तथा इस आंदोलन की सफलता की आस लगाए बैठे लोगों के लिए यह अत्यंत दुखदायी होगा।
यह लेख, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का अंधकारमय भविष्य, न केवल अपने शीर्षक के अनुकूल पूर्णतया परिभाषित करने बल्कि लेखक द्वारा पाठकों के मन में अन्तर्विरोधी सोच और उनके मूंह में शब्द डालने का क्रूर प्रयास है|
यह लेख अपने शीर्षक, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का अंधकारमय भविष्य, को न केवल पूर्णतया परिभाषित करने बल्कि लेखक द्वारा पाठकों के मन में अन्तर्विरोधी सोच और उनके मूंह में शब्द डालने का क्रूर प्रयास है|