संविधान की हुई जीत।

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बी. आर. कौण्डल

सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को असंवैधानिक ठहरा कर यह साबित कर दिया कि इस देश में संविधान सर्वोपरि है न की विधायिका। भारतीय संविधान में न्यायपालिका की स्वतंत्रता का प्रावधान किया गया है जिसकी सुरक्षा करना न्यायपालिका का धर्म है। हाल के फैसले में उच्चतम न्यायालय ने उस धर्म को निभाया है।

कहने वाले यह भी कह रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक प्रणाली में सुधारों को झटका दिया है लेकिन वास्तविकता यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने एनडीए सरकार के उन मनसूबों को झटका दिया है जिनके तहत यह सरकार किसी खास मानसिकता के लोगों को उच्च न्यायपालिका में भेजना चाहती थी जो केवल राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के माध्यम से संभव था।

यदि सरकार की मनसा साफ होती तो नियुक्ति आयोग में कानून मंत्री व प्रधान मंत्री की दखल अंदाजी को सर्वोपरि स्थान न देती। लेकिन ऐसा कर के सरकार ने यह साफ कर दिया की वह न्यायपालिका को विधायिका व कार्यपालिका के अधीन रखना चाहती थी। जोकि नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए बहुत घातक साबित होता।

law उच्चतम न्यायालय ने न्यायधीशों की नियुक्ति की नई व्यवस्था को ठुकराते हुए कहा कि संविधान के संशोधित अनुच्छेद 142ए(1) के ए और बी प्रावधानों में न्यायधीशों की नियुक्ति की व्यवस्था करने वाले एन जे ए सी में न्यायिक सदस्यों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है। जजों की नियुक्ति में न्यायपालिका की प्राथमिकता न होना न्यायपालिका की स्वतंत्रता के सिद्धांत का उल्लंघन है। इतना ही नहीं कोर्ट ने एनजेएसी में कानून मंत्री को शामिल करना संविधान में दिए गए न्यायपालिका की स्वतंत्रता और शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत के खिलाफ माना। कोर्ट ने एन जे ए सी में दो प्रबुद्ध नागरिकों को शामिल किया जाना भी संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन माना है।

सर्वोच्च न्यायालय का यह कथन सही है क्योंकि आयोग के गठन ने सरकार द्वारा मनोनीत सदस्यों के हाथ में वीटो पावर आ गई थी। जिसके चलते न्यायपालिका की स्वतंत्रता खतरे में आ गई थी। क्योंकि कार्यपालिका व विधायिका में बैठे मान्यवर सदस्य किस प्रकार से देश का संचालन कर रहे है यह किसी से छुपा नहीं। इसी के परिणामस्वरूप आज न्यायपालिका को वे कार्य भी करने पड़ रहे हैं जोकि कार्यपालिका व विधायिका की कर्तव्य सूची में आते है। जैसे-जैसे कार्यपालिका व विधायिका कार्य विमुख होती गई त्यों-त्यों न्यायपालिका की सक्रियता बढ़ती गई। आज नौबत यह आ गई है कि न्यायपालिका को विधायिका का मार्गदर्शक बनना पड़ रहा है। सरकार को चाहिए की वर्तमान हालातों के चलते न्यायपालिका को सर्वोपरि स्थान पर ही रखे व इसकी स्वतंत्रता को बनाए रखे। अन्यथा यदि न्यायपालिका का भी वही हाल हो गया जो आज कार्यपालिका व विधायिका है तो वह दिन दूर नहीं जब नागरिक स्वयं अपने अधिकारों की रक्षा के लिए सड़कों पर उतरेंगें तथा देश में अराजकता का माहौल बन जायेगा।

सर्वोच्च न्यायालय ने कोलेजियम व्यवस्था को बहाल तो कर दिया लेकिन उस व्यवस्था में भी कई खामिया सामने आई है। जिनको दूर करने का दायित्व भी अब उच्चतम न्यायालय का ही बनता है। इस उद्देश्य से उच्चतम न्यायालय ने 3 नवंबर को सुनवाई रखी है। जिसके परिणामों का पूरे देश को इंतजार है। कोर्ट ने इस बारे में सरकार व अन्य पक्षकारों से सुझाव मांगे है। जिस पर सरकार को भी अपना रूख साफ करना होगा।

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