यह माकपा की हार है, वामपंथ की नहीं

राजीव रंजन प्रसाद

1) सचमुच अभी तो बदलाव हुआ नहीं है, बदलाव की संभावना उभरी है। इस उभार की अगली परिणति केन्द्र से यूपीए शासन का सत्ताच्यूत होना है। और भी कई जगह जो कथित विकास के डंके तले सरकारी रकम डकार रहे हैं; आमूल बदलाव वहाँ भी होंगे। जिन साम्राज्ञियों के यहाँ आदमकद मुर्तियाँ जनता के शोषण की शर्तों पर आकार ले रही हैं; वे ढूह में तब्दील होंगी।

2) ओसामा के अंत की तरह वामपंथी विचारधारा के अंत की भविष्यवाणी करने वाले नवप्रबुद्धों की टोली(भारत में मार्क्सवादियों ने खुद को काफी पहले से ही प्रबुद्ध घोषित कर रखा है) क्या गाँधी और लोहिया के विचारधारा को ठीक-ठीक समझती है? अगर नहीं तो वैक्लपिक सोच और राजनीति का बवंडर खड़ा करने के पीछे उसकी असली मंशा और निहितार्थ क्या है? यह माकपा की हार है, वामपंथ की नहीं।

3) मुझे स्मरण आ रहा है लोकप्रिय पुस्तक बालमुकुन्द गुप्त लिखित ‘शिवशम्भू के चिट्ठे’ का वह अंश जो ‘भारतमित्र’ के 30 मार्च 1907 ई0 में छपा था-‘जो जेल, चोर, डकैतों, दुष्ट, हत्यारों के लिए है जब उसमें सज्जनसाधु, शिक्षित, स्वदेश और स्वजाति के शुभचिन्तकों के चरण-स्पर्श हो तो समझना चाहिए उस स्थान के दिन फिरे।’ विडम्बना है कि आज देश की केन्द्र एवं अधिकांश प्रांतीय शासन-व्यवस्था जो कि सज्जनसाधु, शिक्षित, स्वदेश और स्वजाति के शुभचिन्तकों के लिए है; वह स्वार्थी, भ्रष्ट, बाहुबली, दागी, अपराधी और दुष्ट प्रकृति के राजनीतिज्ञों से अटी पड़ी है जिसका शायद ही दिन फिरे।

4) महानुभाव राजनीतिज्ञ भ्रम पाल सकते हैं, किन्तु जनता को अब बरगलाना या भरमाना आसान नहीं रहा। मुँहनोचवा मीडिया जो इस घड़ी पश्चिम बंगाल में ममतामयी राग अलाप रहा है; जल्द ही उसकी भौंहे तनी हुई दिखेंगी। मीन-मेख और आलोचना के नए प्रसंग शुरू होंगे। वाम पार्टी इस हार से उबरे तो ठीक;

अन्यथा भविष्य में जनता फिर उसे उबटन और राजतिलक लगा राज्याभिषेक करेगी; संभावना अतिक्षीण है। अतएव, नए सिरे से बहस-मुबाहिसे की सख़्त जरूरत है।

5) वह दिन लद गए जब ‘मार्क्स-मैनिफेस्टो’ और रूसी साहित्य जनता के भीतर सर्वहारा और बुर्जआ वर्ग को अलगाने में उत्प्रेरक का काम करती थी। जनता अपनी शर्तों पर विकास चाहती है। उसे नेहरु के देवालयों से मोहभंग हो गया है। उसके भीतर अपनी धरती-अपने आकाश के लिए जबर्दस्त लगाव पैदा हो चुका है। सेज की नवउदारवादी बसावट से उसे घृणा है। सिन्गूर, नन्दीग्राम और लालगढ़ माओवाद का अड्डा नहीं; बल्कि अपने हक के लिए हूज्जत करने वाले लोगों की जागरूक आबादी है।

6) पश्चिम बंगाल में पलते ताजा स्वप्न जिसके पालने में तृणमूल सरकार झुल रही है; को यही मीडिया यूटोपिया मान मातमी-धुन बजाना प्रसारित कर देगी।

क्योंकि यह अभिजन मीडिया है। एक ऐसे वर्ग की मीडिया जो बात तो गरीबों की करती है, पर गरीब नहीं है। वह घटना-क्षेत्र पर टीआरपी भुनाऊ राजनीतिज्ञ या असरदार चेहरे के साथ पहुँचती है, पहले हरगिज नहीं। चैनलों के शब्दवाचन से जनता के तन जलते और सिहरते अवश्य हैं, लेकिन मुक्ति नहीं मिलती है।

चैनल वाले कितने भी बेकार क्यों न हों, बेगार तो किसी कीमत पर नहीं हो सकते हैं। अतः पश्चिम बंगाल में सत्ता पलटी तो यह चालाक और हमलावर मीडिया मिशन-2012 के लिए कूच करेगा; लेकिन रूकेगा-थमेगा नहीं।

7) और भी बहुत कुछ…, लेकिन फिलहाल मैं दूसरों की सुनूं; उनका मुँह कुछ कहने के लिए खुल रहा है। जी, बोलिए जनाब!

1 COMMENT

  1. जब आपने कुछ कहा है तो सुनना भी आपके लिए वाजिब होगा और इसके लिए मुह तो खोलना ही होगा यह एक शोध क्षात्र की अधपकी टिपण्णी है अभी और शोध करना होगा और गहरे में जाना होगा .ममता बनर्जी तो आज की सिधांत विहीन विचारशून्य राज्नीति की बेमिशाल माडल है वैसे उनके जैसे चेहरे हर जगह मिल जायेंगे ऐसा घटाटोप छाया हुआ है कि प्रकाश कि किरण कि कोई उम्मीद नजर नहीं आती है सन १९९१ से जब से सोवियत रूस में कम्युनिष्ट विचारधारा वाली सत्ता का लोप हुआ तब एक स्वर से पूंजीवादी गुर्गों और उनसे पालित मिडिया ने शोर मचाया कि विचारधारा का अंत हो गया इतिहास का अंत हो गया द्वंदात्मक भौतिकवाद अर्थहीन हो गया इत्यादि .यह भी कहा गया कि दुनिया एक ध्रुवीय हो गई है .इस सबका क्या अर्थ है ? आज ज्यादा नहीं बीस वर्ष ही हुए है पूंजीवादी साम्राज्यवाद का नया संस्करण बाजारवाद औंधे मुह गिरा पड़ा है कोई उसे उठाने वाला नहीं है अमेरिकन बैंको का दिवाला यूरोपियन देशों कि आर्थिक बदहाली और अपने देश कि हालत तो किसी से छुपी नहीं है अभी ताज़ा खबर विजय माल्या कि उसका राजा का मछुआरा यानि किंगफिशर समुद्र में मछली मरते हुए डूब गया अब मनमोहन सिंह जनता के पैसों से जिसे उन्होंने तमाम तरह के करों के द्वारा छीन कर एक महाजाल मंगवा रहे है ताकि बेचारे माल्या के राजकीय मछुआरे को निकाला जा सके चाहे इसके लिए गरीब जनता २० रूपये रोज पर अपनी जिंदगी गुजारती रहे उन्हें कोई मतलब नहीं तो बात तो वहीँ रह गयी कि विचारधारा तो विचारधरा होती है वह कभी नहीं मरती उसके क्रियान्वयन में परिवर्तन हो सकता है इसलिए वामपंथ विचारधारा कि मृत्युका ख्वाब देखने वाले ख्वाब ही देखते रहेंगे ममता बनर्जी जिस सांड क़ी सवारी कर रही है जैसा स्पेन में मेतादर करते है वह सांड पटक कर कुचल भी देगा
    बिपिन कुमार सिन्हा

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