हम पृथिवी पर रहते हैं और इससे जीवन पाते हैं। पृथिवी में ही हम श्वांस लेना आरम्भ करते हैं, जीवन भर लेते हैं और मृत्यु के अवसर पर अन्तिम श्वांस लेकर इस शरीर को छोड़कर अपने कर्मों व प्रारब्ध के अनुसार ईश्वर की व्यवस्था से नया जन्म, योनि व जीवन पाते हैं। हमारी पृथिवी हमारे सूर्य का एक ग्रह है और चन्द्रमा हमारी पृथिवी का उपग्रह है जो सूर्य से प्रकाश लेकर हमें रात्रि के समय में ज्योतित व प्रकाशित होकर प्रकाश को पृथिवी पर परावर्तित कर रात्रि के अन्धकार को दूर करता है। चन्द्रमा से ही हमारी ओषधियों में रस उत्पन्न होता है वा भरा जाता है। पृथिवी की ही भांति सूर्य के मंगल, बुध, बृहस्पति आदि अन्य अनेक ग्रह हैं जो अपनी धूरी पर घुमते हुए सूर्य की परिक्रमा करते हैं। इन सभी ग्रहों के भी अपने-अपने एकाधिक उपग्रह हैं। सभी ग्रहों व उपग्रहों की सूर्य से दूरी, परिभ्रमण का समय, उनके मास व दिन का परिमाण पृथिवी की तुलना में भिन्न है। यह सब मनुष्यों को आश्यर्चान्वित वा विस्मित करता है और सोचने को विवश करता है कि आखिर इस सृष्टि वा ब्रह्माण्ड को किसने बनाया है? महर्षि दयानन्द के सामने भी यह प्रश्न व इससे जुड़े कुछ अन्य प्रश्न उपस्थित हुए अतः उन्होंने सृष्टि की उत्पत्ति से सम्बन्धित सभी प्रश्नों व उनके वेद पर आधारित समाधान को प्रस्तुत करने के लिए अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश को चुना। सत्यार्थ प्रकाश का आठवां अध्याय सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय से जुड़े हुए प्रश्नों का समाधान करता है।
सबसे पहले उन्होंने सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व की अवस्था वा स्थिति पर विचार व समाधान प्रस्तुत किया है। वह बताते हैं कि सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व प्रलय की अवस्था होती है। प्रलयावस्था में यह सब जगत अन्धकार से आवृत था। प्रलयावस्था में न पृथिवी थी, न आकाश था और न हि द्युलोक। प्रकाश करने वाला सूर्यादि कोई गृह व पिण्ड भी नहीं था और न हि प्रकाशित होने वाले पृथिवी व चन्द्र आदि अन्य गृह व उपग्रह। मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग और वृक्षादि प्राणीजगत भी उस प्रलयावस्था में नहीं था। उस समय केवल तीन नित्य वा अनादि पदार्थ थे। एक प्रकृति, दूसरा जीव तथा तीसरा ब्रह्म वा ईश्वर। यह तीनों पदार्थ नित्य, अनादि, अनुत्पन्न, अजर व अमर होने से विद्यमान थे। वेदों में इस स्थिति का प्रमाण ऋग्वेद का 1/164/20 मन्त्र है जो कि निम्न हैः
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्ति अनश्नन्नो अभिाचाकशीति।।
इस मन्त्र में दो सुपर्णों जीव व ईश्वर तथा वृक्ष द्वारा प्रकृति के होने का वर्णन किया गया है। विवेक से भी यही सिद्ध होता है कि संसार बनने से पहले ईश्वर व जीव तो अपने सत्य व स्वाभाविक स्वरूप में उपस्थित थे तथा यह जड़ सृष्टि अपनी कारणावस्था में थी जो कि परमाणुओं अथवा परमाणुओं से पूर्व की अवस्था थी।
इसके पश्चात सृष्टि वा जगत की उत्पत्ति के कारणों पर विचार करना समीचीन है। इस ब्रह्माण्ड व जगत की उत्पत्ति के तीन कारण हैं। प्रथम निमित्त, द्वितीय उपादान कारण और तृतीय साधारण कारण। निमित्त कारण वह होता है जो किसी वस्तु को बनाता है वह सदैव चेतन सत्ता व तत्व होता है। जिस वस्तु से बनाता है वह उपादान कारण कहलाता है। निमित्त कारण बनने से पूर्व व रचना के बाद अपरिवर्तनीय वा अपने मूल स्वरूप में रहता है। उपादान कारण परिवर्तित होता है। निमित्त कारण मुख्य व गौण दो प्रकार का होता है। प्रथम मुख्य कारण ईश्वर है जो मूल प्रकृति से इस दृश्य मान जगत, सूर्य, पृथिवी व चन्द्र तथा पृथिवीस्थ पदार्थों यथा अग्नि, जल, वायु, आकाश, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि को बनाता है। दूसरा गौण निमित्त कारण जीव अर्थात् जीवात्मा होता है जो जो कर्मानुसार जन्म मनुष्य का जन्म होने पर पृथिवी में से कुछ पदार्थों को लेकर अपनी आवश्यकता के अनुसार अनेक प्रकार के कार्यान्तर करता है जैसे कि अपने लिए निवास, वृक्षों की लकड़ी से शय्या, कुर्सी-मेज, रेलगाड़ी, वायुयान, कार, साईकिल, कम्प्यूटर, मोबाइल आदि पदार्थ। यह उल्लेखनीय है कि ईश्वर ने मनुष्य, पशु व पक्षी आदि प्राणियों को प्रकृति से निर्मित्त अन्न तथा दूसरे गौण निमित्त कारण जीवात्मा को संयुक्त कर बनाया है जिसके विधान व प्रक्रिया से हम सभी परिचित हैं। ईश्वर व जीवात्मा से भिन्न अन्य कारण जो दूसरे स्थान पर है वह उपादान कारण है। उपादान कारण उसे कहते हैं जिसके बिना कुछ न बने तथा वही अवस्थान्तर होकर बिगड़े और बने। जगत् का उपादान कारण प्रकृति है। इसे इस संसार को बनाने की सामग्री कहते हैं। यह जड़ अर्थात् ज्ञान और संवेदना शून्य होने के कारण स्वयं अपने मूल स्वरूप से परमाणु व अणु रूप में अथवा संसार रूप में और संसार रूप से प्रलय रूप में स्वयं नहीं आ सकती। यह प्रकृति चेतन व ज्ञान स्वरूप परमात्मा द्वारा ही प्रकृति से परमाणु, अणु व कार्य जगत् के रूप में उत्पन्न होकर व रचना की अवधि पूरी होने पर प्रलयावस्था में आती है। कहीं-कहीं जड़ से जड़़ बन और बिगड़ भी जाते हैं। जिस प्रकार परमेश्वर द्वारा निर्मित बीज पृथिवी में गिर कर और जल को पाकर वृक्षाकार हो जाते हैं एवं अग्नि आदि जड़ पदार्थों के सम्पर्क में आकर बिगड़ जाते हैं। वृक्षों की तरह नाना प्रकार के पदार्थों का नियमपूर्वक बनना व बिगड़ना, उनका जन्म व मृत्यु व अन्य परिवर्तन परमेश्वर व जीवात्माओं के ही अधीन है। जगत की उत्पत्ति का तीसरा कारण साधारण कारण कहा जाता है। यह किसी रचना व वस्तु के बनने में साधन व सहयोगी अथवा साधारण निमित्त होता है। जगत के बनाने में परमात्मा से भिन्न, परमात्मा का ज्ञान, दर्शन और बल तथा दिशा, काल और आकाशादि-ये सब साधन तथा साधारण निमित्तकारण हैं।
कुछ लोग, धार्मिक विद्वान व मत विशेष इस संसार को प्रकृति से बना हुआ न मानकर परमात्मा से बना हुआ ही स्वीकार करते हैं जिस प्रकार से घड़ा मिट्टी से बना होता है। यह विचार या मान्यता सत्य नहीं है। घडा़ मिट्टी से बनता है तो मिट्टी के गुण घड़े में देखने को मिलते हैं। इसी प्रकार यदि यह जगत् परमात्मा से बना होता तो जगत् में परमात्मा के गुण भी घड़े में मिट्टी के गुणों के समान दिखाई देने चाहिये थे। इस सूर्य, पृथिवी व चन्द्रमा आदि जगत् में परमात्मा के गुण व धर्म नहीं हैं। इसके कारण निम्न हैं:
- परमात्मा अपने स्वरूप से सत्य, चित्त व आनन्दस्वरूप अर्थात् सच्चिदानन्दस्वरूप है परन्तु यह जगत् कार्यरूप अवस्था में असत् अर्थात् सदा-सर्वदा एक समान न रहने वाला अर्थात् सदा न रहने वाला और कालान्तर में प्रलय की अवस्था को प्राप्त होने वाला है। यह जड़ और आनन्द शून्य भी है, अतः यह ईश्वर से बना हुआ नहीं है अर्थात् नित्य, अनादि, एकरस ईश्वर इसका उपादान कारण नहीं है।
- परमात्मा सदा सर्वदा अज अर्थात् अजन्मा है और यह संसार अजन्मा न होकर उत्पन्न होता है। संसार का यह 3 परमात्मा अदृश्य है और यह जगत् दृश्यमान वा साकार रूप वाला।5 परमात्मा विभु अर्थात् सर्वव्यापक है और यह जगत परिछिन्न।
- परमात्मा ने जगत को किस प्रयोजन से बनाया। इसलिए कि यदि वह न बनाता तो सभी जीव प्रलयावस्था में निश्चेष्ट पड़े रहते और जगत के सुखों से वंचित रहते। जगत् के बनने से बहुत से पवित्रात्मा जीव मुक्ति के साधनों का उपाय योग-ध्यान-संन्ध्या-हवन-स्वाध्याय-माता-पिता-आचार्य-देश-सेवा आदि का कार्य करते हैं और मोक्ष के आनन्द को प्राप्त होते हैं जिस प्रकार महर्षि दयानन्द हुए हैं, ऐसा अनुमान है। पूर्व जन्म व सृष्टि में जीवात्मा को अपने किए हुए पुण्य व पाप कर्मों के फल न मिल पाते, उनके फलों को देने के प्रयोजन से ईश्वर ने सृष्टि को बनाया है। सृष्टि का प्रयोजन यह भी है कि ईश्वर में सृष्टि को बनाने का ज्ञान, बल व शक्ति है। अतः उसने अपने इस गुण को सृष्टि रचकर जीवों के हितार्थ प्रकाशित किया है। इसी प्रकार से ईश्वर के अनेक स्वाभाविक गुण यथा न्याय, दया, वात्सल्य तथा परोपकार आदि भी जगत् की रचना करने पर ही सफल होेते हैं अन्यथा नहीं। यह सब सृष्टि वा जगत् की रचना के प्रयोजन हैं।
- यह भी शंका उत्पन्न होती है कि ईश्वर निराकार होने से कैसे सृष्टि की रचना कर सकता है? इसका उत्तर है कि सृष्टि की रचना के लिए ईश्वर को साकार मानने की आवश्यकता नहीं है। यदि ईश्वर साकार होता तो इस अपरिमित विशाल ब्रह्माण्ड की रचना कर ही न सकता। जिस प्रकार से सभी मनुष्य साकार व शरीरधारी हैं, साकार होने के कारण हम अणु, परमाणु और प्रकृति को अपने वश में नहीं ला सकते। इसी प्रकार से यदि ईश्वर साकार व देहधारी होता तो वह उन सूक्ष्म पदार्थों से स्थूल जगत् न बना सकता। इसलिये निराकार परमेश्वर अपनी अनन्त शक्ति, बल और पराक्रम द्वारा सब कार्य करता है जो कि जीव और प्रकृति से कभी हो नहीं सकते। देहधारी न होने से परमात्मा प्रकृति से भी सूक्ष्म है और उसमें व्यापक है अतः वह सूक्ष्म प्रकृति को पकड़कर जगदाकार कर देता है। यदि ईश्वर साकार या शरीरयुक्त होता तो वह ईश्वर ही न होता क्योंकि इस स्थिति में वह ईश्वर के कार्यों को न कर पाता। इसका यह कारण भी है कि शरीरधारी प्राणी परिमित शक्तिवाला, देश काल से परिच्छिन्न, क्षुधा, तृषा, शीतोष्ण, ज्वर तथा पीड़ा आदि से युक्त रहता है और जो इनसे युक्त है वह ईश्वर कैसा? अर्थात् कदापि नहीं। इस कारण परमेश्वर शरीर धारण नहीं करता अर्थात् वह निराकार ही जगत् का निर्माण करने की सामथ्र्य रखता है। इससे ईश्वर के अवतार लेने व मूर्ति पूजा का भी निषेध होता है।
- इस लेख में हमने सृष्टि रचना से पूर्व संसार की स्थिति, ईश्वर द्वारा सृष्टि की रचना, सृष्टि रचना के कारण व प्रयोजन तथा ईश्वर के स्वरूप आदि पर महर्षि दयानन्द की मान्यताओं को प्रस्तुत किया है जो कि पूर्ण तर्कसंगत एवं विज्ञान के आधार पर स्वीकार्य हैं। आशा है कि वैज्ञानिक बुद्धि रखने वाले बन्धु इस लेख में महर्षि दयानन्द के विचारों से सहमत होंगे।
- 4 परमात्मा अखण्ड है और इस जगत के खण्ड हो सकते हैं अर्थात् यह अणुओं में विभाजित होता है।
- गुण व धर्म ईश्वर के गुण व धर्म के विपरीत वा भिन्न है।