संस्कृति में रीतिवाद के खतरे

जैसे विज्ञापन में रीतिवाद का महत्व होता है, प्रचार मूल्य होता है। विनिमय मूल्य होता है। उसी तरह लेखक संगठनों के द्वारा आयोजित कार्यक्रम भी होते हैं। उनका विज्ञापनमूल्य से अधिक मूल्य आंकना बेवकूफी है। जिस तरह मध्यकाल में आए बदलावों से संस्कृत के लेखक अनभिज्ञ थे उसी तरह आधुनिकाल में आए बदलावों को लेकर हिन्दी लेखक संगठन अनभिज्ञ हैं। वे रूढिबद्ध ढंग़ से अवधारणाओं का प्रयोग करते रहते हैं और यह देखने की कोशिश ही नहीं करते कि अवधारणा की अंतर्वस्तु बदल चुकी है।

मसलन् धर्मनिरपेक्षता पदबंध को ही लें, धर्मनिरपेक्षता का आपात्काल से संबंध जुड़ने के कारण अर्थ ही बदल गया। संविधान में जिस अर्थ में धर्मनिरपेक्षता को व्याख्यायित किया गया था वही अर्थ आपातकाल में नहीं रह गया। गैर कानूनी संविधान संशोधन के जरिए आपातकाल में अधिनायकवादी राजनीति के फ्रेमवर्क में धर्मनिपेरक्षता को संविधान के ‘आमुख’ में जोड़ा गया। उस समय समाजवाद पदबंध को भी जोड़ा गया था। फलत: धर्मनिरपेक्षता का आगमन अधिनायकवादी विचारधारा के अंग के रूप में हुआ और हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि अधिनायकवाद स्वभाव से प्रतिक्रियावादी होता है और यही धर्मनिरपेक्षता शाहबानो केस बाद, राममंदिर शिलान्यास के बाद वही नहीं रह गयी थी जिसकी संविधान निर्माताओं ने कल्पना की थी।

धर्मनिरपेक्षता के इस बदले अर्थ को आपात्काल के साथ जोड़कर देखे बिना समझना संभव नहीं है। धर्मनिरपेक्षता का दूसरा बड़ा संदर्भ शाहबानो प्रकरण और राममंदिर शिलान्यास है। धर्मनिरपेक्षता का कांग्रेस,संघ परिवार,साम्यवादी दलों में एक ही अर्थ नहीं है। यानी किसी भी अवधारणा,व्यक्ति,विचार आदि को स्थायी अर्थ नहीं दिया जा सकता।

आज हम जिसे ‘घटना’ कहते हैं और उसका घटना की तरह विवेचन करते हैं वह मूलत: ‘रेपचर’ या ‘ब्रेक’ है। हमें देखना होगा ‘ब्रेक’ में क्या बन रहा है और ‘ब्रेक’ के बाद क्या निकल रहा है।

आज भू.पू.सोवियत संघ के विभिन्न देशों में समाजवाद का अर्थ वही नहीं है जो सन् 1917 की अक्टूबर क्रांति के समय और बाद में था। हम याद करें किम इलसुंग को जिन्होंने उत्तरी कोरिया में समाजवाद और मार्क्सवाद पदबंध का इस्तेमाल ही नहीं किया और ‘जूचे’ विचारधारा के आधार पर आम लोगों को गोलबंद किया। क्योंकि मार्क्सवाद, कम्युनिस्ट पार्टी और समाजवाद के साथ उत्तरी कोरिया में असंख्य कलंक आख्यान जुड़े थे। इन पदबंधों से उत्तर कोरिया की जनता घृणा करती थी। यही अवस्था सोवियत संघ की भी है। आज वहां पर आम जनता में मार्क्सवाद और समाजवाद की कोई साख नहीं है। क्या बात है कि मार्क्सवाद, समाजवाद वहां पर अर्थहीन हो गए? इसका प्रधान कारण है जनता की इन पदबंधों के बारे में बदली हुई समझ, यह समझ अनुभव के आधार पर बनी है। कहने का तात्पर्य यह है कि अवधारणाओं का इस्तेमाल करते हुए आम जनता में इनके बदलते अर्थ को ध्यान में रखना चाहिए महज नेता, पार्टी, किताब आदि में जो अर्थ लिखा है अथवा बताया गया है उस पर चलने का अर्थ है अवधारणा के अंदर घट रहे परिवर्तनों से अनभिज्ञता और अर्थ परिवर्तन की उपेक्षा।

क्या पश्चिम बंगाल में पैंतीस सालों से भी ज्यादा शासन करने और भारत में सात दशकों तक कम्युनिस्ट आंदोलन के विकास के बाद क्या समाजवाद का वही अर्थ रह गया है जो आरंभ में सोचा गया था? कहने का तात्पर्य यह है प्रत्येक पदबंध और अवधारणा के सुनिश्चित अथवा निर्धारित अर्थ का लोप हुआ है। ऐसे में लेखक संगठनों की वही स्थिति नहीं रह सकती जो घोषणाओं और प्रस्तावों में बयां की गयी है।

लेखक संगठन इसलिए काम नहीं करते कि उन्हें तर्क, वितर्क,संवाद, विवाद अथवा विवेकवादी विमर्श तैयार करना है। बल्कि इसलिए काम करते हैं कि उन्हें विचारधारा विशेष का वर्चस्व स्थापित करना है। उल्लेखनीय है लेखक संगठनों की भारत में भूमिका शीतयुध्द के आगमन के साथ ही खत्म हो गयी थी। पुराने प्रगतिशील लेखक संघ का सन् 1953 में समापन हुआ, कालान्तर में 1972-73 में शीतयुद्ध के चरम दौर में पुन:जन्म हुआ। समाजवाद के अंत के दौर में जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच जैसे संगठनों का जन्म हुआ। इन तीनों के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बुनियादी अंतर नहीं है। इनके प्रकाशनों में छपी सामग्री में भी बुनियादी दृष्टिकोणगत अंतर नहीं है। इसके बावजूद ये तीनों अलग संगठन के रूप में मौजूद हैं महज राजनीतिक कारणों से।

इन तीनों संगठनों के सांस्कृतिक कार्यक्रम मूलत: उदारवादी सचेतनता और मानवाधिकारों की अभिव्यक्ति करते हैं। साथ ही पार्टीजान आधार पर काम करने की पुरानी पद्धति का निषेध करते हैं। एक ही वाक्य में कहें हिन्दी में सक्रिय तीनों बड़े लेखक संगठन ‘प्रतीकात्मक सांस्कृतिक स्पेस” बनाते हैं। यह साझा सांस्कृतिक स्पेस है। इन संगठनों के द्वारा जितने भी कार्यक्रम किए जाते हैं वे सबके सब प्रतीकात्मक हैं। ‘प्रतीकात्मक सांस्कृतिक स्पेस’ का राजनीतिक लक्ष्य के साथ मेल है।

इन तीनों संगठनों में साझा तत्व है कि जनता को कभी सांस्कृतिक एजेण्डा नहीं बनाया गया बल्कि ‘पावर’ को केन्द्र में रखकर कार्यक्रम किए गए। ‘पावर’ को केन्द्र में रखकर जब सांस्कृतिक एजेण्डा तय होगा तो वह गैर-बहुलतावादी होगा। ‘हम’ और ‘तुम’ के विभाजन पर टिका होगा। ‘हम’ और ‘तुम’ के आधार पर ही समीक्षाशास्त्र विकसित किया गया। दोस्त-दुश्मन तय किए गए। एक ही विचारधारा के आधार पर एकजुट करने पर जोर दिया गया। फलत: इन संगठनों में सहमत एकजुट थे, असहमत बाहर थे। यह मध्यकालीनबोध का यह आधुनिक संस्करण है। सहमति का बहुत ही सीमित और संकुचित आधार चुना गया।

सहमति और सांगठनिक क्षमता का आधार राजनीतिक वफादारी को बनाया। राजनीतिक वफादारी का सबसे बड़ी क्षमता के रूप में सामने आना नयी बात नहीं है यह दरबारी संस्कृति की केन्द्रीय विशेषता थी आजकल लेखक संगठनों के रीतिवाद की विशेषता है। राजनीतिक वफादारी को राजनीतिक प्रतिबद्धता के रूप में पेश किया गया। ऐसा करते हुए लेखकबंधु भूल गए कि लेखक की लेखन और जनता के आलावा किसी से भी प्रतिबध्दता नहीं होती। उसीकी सहमति और असहमति का स्रोत ये ही दोनों हैं। जनता बदली तो लेखन भी बदला, सहमति और असहमति का आधार भी बदला। इस बदलाव की प्रक्रिया को लेखक संगठन अभी हजम करने की स्थिति में नहीं हैं।

‘हम’ और ‘तुम’ के आधार पर ही ”नैतिक श्रेष्ठता” और ”राजनीतिक सटीकता” का दावा किया गया। ”नैतिक श्रेष्ठता” को सही राजनीतिक लाइन के आधार पर श्रेष्ठ ठहराने की कोशिश की गयी। यह मूलत: ‘नैतिकता’ और ‘राजनीति’ का यांत्रिकबोध ही है जो इस तरह के निष्कृट मूल्यांकन तक ले जाता है। नैतिक तौर पर दूसरे से श्रेष्ठ ठहराने के चक्कर में विशेष किस्म के असमानताबोध का प्रचार किया जाता है। फलत: संगठन के सांस्कृतिक लक्ष्य गायब हो जाते हैं और उनकी जगह वफादारी प्रमुख रूप ले लेती है।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

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