आर. सिंह
आज (15 जून) सबेरे-सबेरे जब समाचार पत्र खोला तो प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित एक समाचार ने बरबस मेरा ध्यान खींच लिया और समाचार पढने के बाद तो मैं एक तरह से बुझ सा गया. समाचार था गंगा बचाओ आंदोलन का योद्धा 115 दिनों के अनशन के बाद मौत के मुँह में चला गया. समाचार तो यह होना चाहिये था कि गंगा बचाओ आंदोलन का एक योद्धा 115 दिनों तक लडने के बाद अंत में हत्यारों के हाथों काल-कवलित हुआ. ऐसे भी यह कोई नयी बात नहीं है. यह तो हमेशा होता आया है.
स्वामी निगमानंद जैसे लोग ऐसे ही गुमनामी की मौत के लिये पैदा होते हैं. इस पैंतीस वर्षीय साधु को जिसका शायद अपना कोई अनुयायी भी नहीं था क्या गरज पड़ी थी कि वह शासन तंत्र से बैर मोल लेता. उस बेचारे का दोष क्या था? आखिर क्यों की गयी उसकी हत्या और वह भी उस राज्य में जहाँ का मुख्य मंत्री अपने नैतिक मूल्यों का दंभ भरता है. उस स्वामी का कसूर केवल यही था न कि वह वही बात दुहरा रहा था जिसके लिये अब तक अरबों रूपये न्योछावर किये जा चूके हैं. क्यों उसकी बात को कोई महत्व नहीं दिया गया?
क्यों अखबार में खबर तब आयी जब हत्यारे अपना कार्य सम्पन्न करने में सफल हो गये? क्यों इन अखबार वलों ने और टी.व्ही.वालों ने इस गंगा बचाओ आंदोलन वाले समाचार को और स्वामी निगमानंद की हत्या के प्रयत्न को कोई प्रमुखता नहीं दी? क्यों सब देखते रहे मौन हो कर यह तमाशा? क्यों नहीं स्वामी निगमानंद को बचाने का प्रयत्न किया गया? क्यों नहीं मानी गयी उनकी मांगें? क्यों लोग उनको तिल-तिल कर मौत के मुँह में जाते हुए देखते रहे?
यही नहीं, समाचार तो यह है कि वह नौजवान साधु कुछ लोगों की आँख का ऐसा किरकिरी बन गया था कि उन्हें जल्द से जल्द रास्ते से हटाने के लिए जहर की सूइयां दी गयी. और यह सब हुआ प्रशासन की आँखों के सामने. अपने अंतिम दिनों में वे उसी अस्पताल में थे,जहाँ बाबा रामदेव का इलाज चल रहा था.क्यों नहीं किसी का उनकी ओर ध्यान गया? क्या वे स्वार्थ के लिये लड़ रहे थे? वे तो उस गंगा को को बचाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे रहे थे जिसको हम सब अपनी जननी मानते हैं. एक होनहार सुपुत्र तो शहीद हो गया, पर माँ का क्या होगा? क्या अब भी हम जगेंगे? क्या गंगा को बचाने का आंदोलन सर्व व्यापी होगा? या केवल औपचारिक जांच के बाद उनके केस को रफा दफा कर दिया जायेगा और हम भूल जायेंगे कि स्वामी निगमानंद नामक किसी प्राणी ने इस धरती पर कभी जन्म लिया था.
बरबस याद आ जाती है स्वर्गीय यतीन दास की. स्वतंत्रता आंदोलन का वह सिपाही जेल में अनशन के दौरान शहीद हुआ था.वह गुलामी का माहौल था,फिर भी उसकी मौत पर आँसू बहाने के लिए जेल में उसके साथी मौजूद थे,पर आज आजाद भारत में स्वामी निगमानंद की मौत पर आँसू बहाने वाले आँखों की कमी पड़ गयी है.
मेरे जैसे एक आम आदमी के साथ मिल कर उनको श्रंद्धांजलि के रूप में दो बूंद आँसू का दान दे दीजिए.
आदरणीय आज्ञा का पालन हुआ है| आपकी कुछ रचनाएं पढी भी हैं| आपको बहुत बहुत साधुवाद| किसी अन्य समय बहुत सी बातें करूंगा| धन्यवाद| कविता भी भावपूर्ण और प्रभावशाली है| विशेषकर अंत सब कुछ कह देता है|
सिंह साहेब के साथ मै भी अपनी श्रधांजलि देना चाहता हूँ .क्या हो गया है हमारे देश को और हमारे देशवासिओं को .हम पूरी तरह से एक संवेदनहीन समाज में जी रहे है अब कोई राष्ट्रीय और सामाजिक मुद्दा हमें झकझोरता नही है ये चीजे खबर तो बनती है बस सिर्फ खबर ही रहती है उससे ज्यादा नहीं निगामानान्दा तो प्रतीक भर है गंगा हमारी चेतना की संवाहक है हमारे देश में अन्य नदिया भी है पर वे गंगा जैसी नहीं है गंगा हमारे लिए ज्ञान का प्रतीक भी है .पर क्या कहा जाये ज़माने को क़ि वह आज नदी क्या एक नाले में परिवर्तित होने को विवश है .मैंने नर्मदा प्रसाद उपाध्याय का एक निबंध पढ़ा था नदी तुम बोलती क्यों नहीं हो .हम यह कहना चाहेगे क़ि नदी ने तो बहुत पहले ही मौन धारण कर लिया था अब तो वो बोलना भी चाहेगी तो जुबान ही कट ली गई है ऐसे में कितने निगमानंद अपनी जान दे denge यह pata नहीं यह एक rastriya shok है .bipin kr sinha