चुनावी मौसम, देश भक्ति का आलम

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चुनावी मौसम आते ही राजनीतिक पार्टियों के नेताओं में जबरजस्त देश भक्ति का आलम जाग उठता है। जो 15 अगस्त और 26 जनवरी के दिन देखने को मिलता है। हर प्रत्याशी के चुनाव प्रचार में गाने देश भक्ति के गाने बजते हैं। कार, आटो, से लेकर रिक्शा तक में हम जिएगें और मरेगें ए वतन तेरे लिए, दिल दिया है जान भी देंगें ए वतन तेरे लिए। वाह क्या राजनीति है? ये आलम सिर्फ चुनाव के समय ही जगता है। जब तक वोट नही पड़ जाता। अच्छा तरीका है जनता को लुभाने का। ये गाना बजते –बजते अचानक आवाज़ आती है अपने क्षेत्र के विकास के लिए फलां पर वोट देकर फलां को भारी मतों से विजयी बनाए। इतना ही नही ये पार्टियां अपने कार्यों के लिए गाना भी तैयार कर लेती है। जिसे चुनाव प्रचार में अपने बखान में बजाती रहती है। एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का खेल शुरू हो जाता है। हमने अपने कार्यकाल में क्षेत्र का इतना विकास किया है, तो दूसरा कहता है कि एक बार आप हमें अपना प्रतिनिधि बनाए मै आप के क्षेत्र में विकास की गंगा बहा दूंगा। अगर अपने विकास कार्यों पर इतना भरोसा है तो गुणगान करने की क्या जरूरत है? ये पब्लिक है सब जानती है। ये चुनावी वादे सिर्फ रैलियों में सुनाई पड़ते हैं। उसके बाद क्या कहा था, याद नही रहता है। किसी -किसी का तो ये आलम रहता है कि जीत के बाद क्षेत्र का दौरा करने में अपने को असहाय मससूस करते हैं। क्षेत्रवासियों को अपने प्रतिनिधि से मिलने के लिए भी पापड़ बेलने पड़ते हैं। बड़ी हसीं आती है और दुख ही होता है जब ये सुनने को मिलता है वोट किसी और को दिया है तो अपनी फरियाद भी उसी को सुनाओ। चुनावी दिनों में हाथ जोड़कर विनती कर जनता से अपना बहुमूल्य वोट हमे देना कहते हैं। जीतने के बाद परेशानी को नही सुनते। सुने भी क्या पांच साल तो राजा हैं। अगले चुनाव में फिर जनता को लॉलीपाप पकड़ा देंगें। कुछ प्रतिनिधि क्षेत्र के लिए अच्छा भी कार्य करते हैं। उनके क्षेत्र की जनता सराहना करते हुए चुनते भी है। अगर इन राजनीतिक पार्टियों को वो देश भक्ति का गाना समझ में आ जाए जिसे वो अपने चुनाव प्रचार में दिन भर इधर से उधर बजाते रहते हैं। तो शायद देश का कल्याण हो जाए। चलो देश का नही अपने क्षेत्र का ही कल्याण कर ले। जिसे लेकर लोग परेशान रहते हैं। ऐसे आटो पर देश भक्ति के गाना बजाने से कोई सच्चा देश भक्त साबित नही होता। वो भी सिर्फ चुनाव प्रचार- प्रसार में। उसके बाद तो राम जाने। कई तो रैलियों में भाषण देने में इतना मसहूल हो जाते हैं, कि राष्ट्र के सम्मान का प्रतीक तिरंगा झुका रहे या उसका अपमान हो कोई फर्क नही। बस कुर्सी मिल जाए किसी तरह। जो तिरंगें का सम्मान नही कर सकता वो राष्ट्र और क्षेत्र के लोगों का क्या करेगा। दिल्ली विधानसभा चुनाव सात फरवरी को है, राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों में देश भक्ति का आलम जाग उठा है। नतीजे आने तक ये आलम ऊफान भरता जाएगा।

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  1. अब तो चुनाव आयोग ऐसे नियम बनाए की रैलियां ,माइक ,चुनाव के वाहन की संख्या निश्चित हो. पाहिले दीवारों पर चुनाव के नारे/वोट की अपील आदि पोते जाते थे। चुनाव की पर्चियां अब आयोग ही उपलब्ध कराता है.इसी प्रकार वाहन और माइक भी आयोग ही दे. नामांकन भरने की जो आखरी तारिख है उसके एक हफ्ते बाद चुनाव। चुनाव की घोषणा होने के बाद सभी चंदे पर प्रतिबन्ध ,इसके बाद भी चंदा लिया जाए तो वह राजसात. रैलियां निकालने का समय वह जब शहर मैं यातायात का दवाब कम हो. एक नयी परम्परा चल पडी है. ”द्वारा मित्रमंडल” इस मित्रमंडल के अध्यक्ष का नाम पता कम से कम ६ माह पहिले पंजीकृत हो. इन हंगामों को रोका जा सकता है. और शांतिपूर्वक बिना हो हल्ले और कानफोड़ू शोर शराबे के चुनाव करवाये जा सकते हैं.

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