माफी के मजे… !!

तारकेश कुमार ओझा
क्या पता महाभारत काल में धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन को अंधे का पुत्र
अंधा… जैसा संबोधन कहने के बाद उत्पन्न कटुता को दूर करने के लिए
द्रौपदी के पास सॉरी कहने का कोई विकल्प था या नहीं  या भीषण युद्ध
छिड़ने के बाद रावण के पास आइ एम… एक्सट्रीमली सॉरी…. कहने का कोई
आप्शन था या नहीं। लेकिन जो होना था वह तो खैर हो ही गया। तत्कालीन
पात्रों को इस बात का आभास शायद न हो कि कलियुग में ऐसे तमाम युद्ध बड़ी
सहजता से महज सॉरी बोल कर रोका जा सकेंगे। आज के दौर में माफी के बड़े
मजे हैं। किसी को भी खंजर से चुभने वाले शब्दों के साथ गंभीर आरोपों के
वाण से घायल कर दो और पानी जब खतरे के निशान से ऊपर बहता नजर आए तो
तत्काल माफीनामा भेज कर एक – दूसरे के गले लग लो। वर्ग  संघर्ष  की
समस्या यहां भी है। सामान्य लोगों की जिस बात पर नौबत जेल जाने या लाठी
चलने की आ जाए, वही एक वर्ग के लोग न सिर्फ बोलते बल्कि व्यापक चर्चा के
बीच उस पर कई – कई दिनों तक  कायम भी रहते हैं। लेकिन जब लगता है कि अब
माफी मांग लेने में भी भलाई है तो कैमरे के सामने … आइ एम..
एक्सट्रीमली सॉरी बोल कर अपनी  सजा खुद ही माफ  करवा लेते हैं। उन्हें
उदारतापूर्वक माफी मिल  भी जाती है।  ऐसा न करने वाले सचमुच बड़े घाटे
में रहते हैं। कई बार कुपात्र सरकार द्वारा पुरस्कृत – प्रशंसित हो जाते
हैं , लेकिन गलती का आभास होने पर सरकार माफी मांगने में देर नहीं लगाती।
इसी तरह अक्सर निर्दोष लोग दंडित – पीड़ित होते हैं , इस मामले में भी
गलती का भान होने पर व्यवस्था माफी मांग लेती है। मेरे एक निकट संबंधी
अपनी बददिमागी के लिए कुख्यात थे। हर कोई कहता था कि बंदा दिल का बुरा
नहीं है। लेकिन उनकी जुबान आजीवन उनके काबू में कभी रही नहीं। ताव में
आकर किसी को कुछ भी बोल देने की बीमारी  असाध्य रोग की तरह आजीवन उनके
पीछे लगी रही। इसके चलते न जाने कितनी ही बार नौबत नात – कबीलों में
लाठियां चलने की आ  गई।  उनकी इस बुरी आदत का खामियाजा लंबे समय तक उनके
वंशजों को भी भुगतते रहना पड़ा। उनके वैकुंठगमन के बाद नई पीढ़ी ने जमाने
के हिसाब से चालें चलना सीख संतुलन साधने का खेल सीखा। हालांकि इस परिवार
के लोग अब भी अफसोस के साथ कहते हैं कि बाबा ने अपने जमाने में बदजुबानी
न की होती तो आज वे बहुत आगे होते।

सचमुच माफी के बड़े मजे हैं। अपने
शहर में मैं एक ऐसे शख्स को जानता हूं जो एक खास विचारधारा से प्रेरित
हैं। अपने विचारों की खातिर किसी से भी उलझ पड़ना उसकी खासियतों में
शामिल है। उसकी दूसरी खासियत यह है कि तमाम नामचीनों से उलझने के बावजूद
कभी उसका बाल भी बांका नहीं हुआ। इस पर कई लोगों को हैरत होती रही है।
हालांकि जानकार इसे उसका प्रायोजित  कार्यक्रम बताते रहे हैं। कहते हैं
चर्चा में आने के लिए वह किसी से भी उलझ पड़ता। लेकिन पानी को खतरे के
निशान से ऊपर उसने कभी जाने नहीं दिया। अकेले में मिलते ही वह खार खाए
बैठे शख्स से उदारता पूर्वक  न सिर्फ क्षमा याचना करता बल्कि यह कहना भी
नहीं  भूलता कि उसका उससे बड़ा शुभचिंतक कोई नहीं है… उस दिन तो मैं
यूं ही आपके धैर्य की परीक्षा ले रहा था … वगैरह – वगैरह जैसी तमाम
दलीलें…।

बदतमीजी झेलने वाला भी बिल्कुल मंजे हुए राजनेता की तरह उसे
यह कहते हुए क्षमा कर देता कि किसी से झगड़ा करना हमारा मकसद नहीं।
तुम्हें जब अपनी गलती का अहसास हो हो चुका है तो चलो  आज से हम बेस्ट
फ्रेंड बन जाते हैं। दूसरी ओर देखने वालों में भौंकाल अलग बनता कि कमाल
का बंदा है… दबंगों से उलझ पड़ता है… लेकिन कमबख्त का बाल बांका भी
नहीं होता। उलटा  बदतमीजी सहने वाला उसे अपना खास दोस्त बना लेता है। इस
तरह कमबख्त का शुमार शुरू  से सुखी – सफल लोगों में रहा है। इसकी बानगी
राजनीति में भी जब – तब देखने को मिलती रही है। हाल में माफी  नामे का
नया सिलसिला हैरान करना वाला है।  कुछ साल पहले जो जेम्स बांड की तरह रोज
नये – नये रहस्योद्घाटन कर देश में सनसनी फैलाते थे। आज माफीनामे की
श्रंखला शुरू कर चुके हैं। वाकई माफी के बड़े मजे हैं…।
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तारकेश कुमार ओझा
पश्चिम बंगाल के वरिष्ठ हिंदी पत्रकारों में तारकेश कुमार ओझा का जन्म 25.09.1968 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में हुआ था। हालांकि पहले नाना और बाद में पिता की रेलवे की नौकरी के सिलसिले में शुरू से वे पश्चिम बंगाल के खड़गपुर शहर मे स्थायी रूप से बसे रहे। साप्ताहिक संडे मेल समेत अन्य समाचार पत्रों में शौकिया लेखन के बाद 1995 में उन्होंने दैनिक विश्वमित्र से पेशेवर पत्रकारिता की शुरूआत की। कोलकाता से प्रकाशित सांध्य हिंदी दैनिक महानगर तथा जमशदेपुर से प्रकाशित चमकता अाईना व प्रभात खबर को अपनी सेवाएं देने के बाद ओझा पिछले 9 सालों से दैनिक जागरण में उप संपादक के तौर पर कार्य कर रहे हैं।

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