संपूर्ण भारत कभी गुलाम नही रहा Part 11

akbarअकबर की बहुत सी विजयों के उपरांत भी महाराणा प्रताप महान हैं
राकेश कुमार आर्य ,

अकबर का महिमामंडन उचित नही
अब हम अकबर पर पुन: चर्चा करते हैं। अकबर चित्तौड़ को लेने में सफल हो गया और हमारे इतिहासकारों द्वारा उसे महान होने का गौरव भी दे दिया गया। हम उसे प्रचलित इतिहास में इसी नाम से पढ़ते हैं, पर उसकी महानता को इतिहास पर थोपते ही ‘भारत का इतिहास’ मर गया। अपने गौरवपूर्ण अतीत से मानो भारत का संबंध विच्छेद हो गया। क्योंकि अकबर को महान कहते ही भारत का महान सपूत महाराणा प्रताप सिंह अचानक एक डाकू या लुटेरा, या उपद्रवी उग्रवादी बन गया। हमारे विद्यालयों में प्रचलित इतिहास की पुस्तक में बच्चों के बालमन में ही महाराणा का तिरस्कार करने और अकबर को पुरस्कार देने का भाव भर दिया जाता है। अकबर का यह महिमामंडन किसी भी दृष्टिकोण से उचित नही कहा जा सकता।

इतिहास का महत्व
‘भारतीय इतिहास पर दासता की कालिमा’ के लेखक सियाराम सक्सेना लिखते हैं-‘‘इतिहास का राष्ट्र उत्थान में वही महत्व है जो एक कुटुम्ब में उसके महान पूर्वजों की गाथा का होता है। जैसे हम अपने पूर्वजों की गाथा सुनकर कि वह कितने विद्वान थे शूर थे, पराक्रमी थे, ऊंचे संगीतज्ञ थे-अपने को महान बनाने का प्रयत्न करते हैं। उसी प्रकार राष्ट्र भी अपनी प्राचीन भव्यता, शूरतापूर्ण पराक्रमी ज्ञान-विज्ञान से भरे इतिहास को जानकर ऊंचे उठते हैं, और यश को प्राप्त होते हैं। इतिहास ही प्राचीनता को आधुनिकता से जोड़ता और भविष्य का निर्माण करता है। संसार में कितने देश व जातियां उठीं और नष्ट हो गयीं न अब सुकरात का ग्रीक है, न जूलियस सीवर का रोम है, न वह पिरेमिड वाला मिश्र है, न वह प्राचीन प्रतिभाशाली ईरान है, सब नष्ट हो गये, उनकी प्राचीनता व आधुनिकता में कोई कड़ी जोडऩे वाली नही रही, राष्ट्र ही मर गये, क्योंकि इतिहास से संबंध न रहा, भारत के जीवित रहने का एकमात्र कारण उसके प्राचीन इतिहास में गौरव और विशालता में हिंदुओं का विश्वास था। उसको मिटाने का पाश्चात्य लोगों ने कितना प्रयास किया, यह तथ्य किसी से छिपा नही है।’’

राणा संग्रामसिंह की संतानों के साथ न्याय करो
भारत के हिंदू इतिहास के गौरव और विशालता को राष्ट्रघाती दृष्टिकोण अपनाकर लोगों ने छिपाने का प्रयास किया है। उसी दृष्टिकोण के कारण बाबर की संतानें पूजनीय और राणा संग्राम सिंह की संतानें उपेक्षित हो गयीं। जबकि होना यह चाहिए था कि भारत की स्वतंत्रता के अपहत्र्ता की संतानों के स्थान पर स्वतंत्रता के रक्षकों का गुणगान होना चाहिए था।

संरक्षक बैरम खां को भी नही पचा पाया अकबर
बैरम खां अकबर का संरक्षक था। उस व्यक्ति ने सम्राट हेमू के कारण भयभीत अकबर का उस समय संरक्षक बनना स्वीकार किया था, जब कोई भी मुगल सरदार या सेनानायक उसके साथ आना तक उचित नही मानता था, और 24 दिन तक लोग इस असमंजस में फंसे रहे कि हुमायूं की मृत्यु के पश्चात अकबर को उसका उत्तराधिकारी घोषित करें या न करें। तब बैरम खां ने साहस का परिचय दिया और वह अकबर का संरक्षक बनकर सामने आया। उसकी सेवाएं मिलते ही अकबर को मुगलों ने हुमायूं का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। परंतु अभी उसे शासक भी बनना था, तो बैरम खां ने हेमू का अंत कराके उसे शासक भी बनवा दिया। यहीं से अकबर के सम्राट बनने का मार्ग प्रशस्त हुआ।

जिस बैरम खां के अकबर पर अनेक और अविस्मरणीय उपकार थे और जो अत्यंत निश्छल भाव से अकबर की सेवा में तत्पर रहता था, उसी को अपने मार्ग में बाधा समझकर अकबर ने उससे मुक्ति प्राप्त करनी चाही।

हम इस विषय में आगे बढऩे से पूर्व अकबर के आधीन हुए क्षेत्र राज्यक्षेत्र पर विचार करें तो हमें ज्ञात होता है कि प्रारंभ में बहुत थोड़े से क्षेत्र पर उसका अधिकार था। जैसा कि एलफिंस्टन का कथन है-‘‘अकबर के शासन काल के पहले वर्षों में अकबर का राज्य पंजाब, आगरा तथा दिल्ली के आसपास के प्रदेशों तक सीमित था। तीसरे वर्ष में उसने बिना युद्घ लड़े ही अजमेर पर अधिकार कर लिया। चौथे वर्ष के प्रारंभ में उसने ग्वालियर का दुर्ग प्राप्त कर लिया और बैरम खान के पतन के कुछ समय पूर्व उसने अफगानों को लखनऊ तथा गंगा के साथ-साथ पूर्व में जौनपुर तक के समस्त प्रदेश से निकाल दिया।’’ (संदर्भ: हिस्ट्रीशीट ऑफ इंडिया पृष्ठ 210)

निष्ठावान बैरम खां के साथ किया गया क्रूर अन्याय
इस कथन से स्पष्ट है कि अकबर को शून्य से शिखर की ओर बढऩे का मार्ग बैरम खां ने उपलब्ध कराया। जब वह कुछ नही कर सकता था और बच्चों व किशोरों की भांति केवल शरारतें ही कर सकता था, उस समय उसके लिए बैरम खां ने इतने आत्मीय भाव से मार्ग प्रशस्त करना आरंभ किया कि इतने आत्मीय भाव से तो हुमायूं भी उसके लिए मार्ग प्रशस्त नही कर सकता था।

अब उसी बैरम खां को अकबर ने हटाने का निर्णय ले लिया। बैरम खान बाबर के शासन काल में भारत आया था, और उसने बाबर के साथ-साथ हुमायूं की भी मन लगाकर सेवा की थी। अकबर ने उसे प्रारंभ में सम्मान देते हुए सरहिंद की जागीर दे दी थी और उसे सम्मानवश वह खान बाबा कहकर पुकारा करता था। पर चार वर्ष में ही अकबर का बैरम खां से मन भर गया। उसने बैरम खां का संरक्षण समाप्त कर स्वतंत्र रूप से शासन करना चाहा। उस समय अकबर ने अपने शासन के चौथे वर्ष में अब्दुल लतीफ के माध्यम से बैरम खां से कहला दिया-‘‘मुझे आपकी ईमानदारी और राज्यशक्ति पर पूरा-पूरा भरोसा था। इसलिए मैंने राज्य का सब काम आपको सौंप दिया था, और मैं केवल आनंद करता था। अब मैंने निश्चय कर लिया है कि शासन सूत्र अपने हाथ में ले लूं। इसलिए मैं चाहता हूं कि आप मक्का की यात्रा करें। एक अर्से से आपका यह विचार भी था।’’

बैरम खां का करा दिया अंत
बैरम खां ने समझ लिया कि राजनीति कूटनीति के कपट-जाल बुनकर अपनी छलनीति में उसे फंसा रही है। इसलिए उसने समय की गंभीरता को समझते हुए अकबर के प्रस्ताव को स्वीकार करने में तनिक भी देरी नही की। उसने अकबर के प्रस्ताव पर अपनी सहमति व्यक्त कर दी। पर उसके निश्छल मन को अकबर के इस कृत्य से असीम पीड़ा इुई। वह मौन रहकर अपने महल में चला गया, तभी अकबर के चाटुकारों ने उसे अतिशीघ्र महल छोडक़र मक्का जाने का बादशाह का आदेश भी दे दिया। इसे बैरम खां ने अपने स्वाभिमान पर की गयी एक चोट समझा और उसने मक्का जाने के स्थान पर अकबर के विरूद्घ विद्रोह कर दिया।

बैरम खां को समझ तो आयी -पर देर से आयी। अब वह वृद्घ हो चुका था उसके साथी उसका साथ छोडक़र अकबर के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त कर चुके थे। समय की सुई विपरीत दिशा में घूमने लगी थी, पर स्वाभिमान की चोट तो व्यक्ति को बेचैन कर ही देती है और फिर उसी बेचैनी में से फूटती है-विद्रोह की ज्वाला। और यही ज्वाला बैरम खां के शरीर के रोम-रोम से फूट पड़ी थी। फलस्वरूप उसका और अकबर का सामना जालंधर में हो गया। बादशाह की विशाल सेना को जब कभी बैरम खां लेकर चला करता था, तो उसकी विशालता के दर्शन करके स्वयं उसकी छाती चौड़ी हो जाया करती थी और शत्रु को वह परास्त करने में भी सफल हुआ करता था, पर आज विधि की विडंबना देखिए कि वही सेना उसे गिर$फ्तार करने या मारने के लिए तैयार खड़ी थी। कुछ ही देर में युद्घ का परिणाम आ गया। बैरम खां को निर्णायक पराजय मिल गयी। कहा जाता है कि अकबर ने उसे क्षमा कर दिया और उपहार देकर मक्का जाने की आज्ञा दे दी। जब बैरम खां मक्का के लिए जा रहा था तो मार्ग में पटन नामक स्थान पर एक पठान ने उसकी हत्या कर दी।

अनेकों इतिहासकारों ने बैरम खां के पतन को अकबर के शासन काल की दुखद घटना कहा है और उसकी मृत्यु पर दुख व्यक्त करते हुए उस पर शंका व्यक्त की है कि वह अकबर के संकेत पर ही मरवाया गया था।

स्पीकर के अनुसार-‘‘अकबर ने बैरम खां को उसी प्रकार हटा दिया, जैसे कैंसर विलियम द्वितीय ने बिस्मार्क को हटा दिया था।’’

खान बाबा का अंत कर खानखाना से दिखाया प्रेम
वास्तव में बैरम खां का वध किया जाना अथवा उसे अपमान जनक से ढंग से पदच्युत करने से अकबर की मानसिकता का पता चलता है। अच्छा होता कि उसे या तो किसी प्रांत का सूबेदार बना दिया जाता या, किसी महत्वपूर्ण पद पर उसकी नियुक्ति कर दी जाती। अकबर ने अपने संरक्षक बैरम खां के पुत्र को संरक्षण अवश्य दिया, और उसका पालन -पोषण भली प्रकार राजकीय कोष से कराया गया। यही बच्चा आगे चलकर अब्दुर्रहीम खानखाना के नाम से प्रसिद्घ हुआ। खानबाबा का विनाश कर दिया और उसके पुत्र खानखाना का समग्र विकास किया, पर क्यों? यह प्रश्न आज तक अनुत्तरित है।

विजय अभियानों पर चल पड़ा अकबर
1460 ई. में बैरम खां से मुक्ति प्राप्त करके अकबर ने अपने कथित विजय अभियान आरंभ किये। उसने अपने विजय अभियान की प्राथमिकता की सूची में 1561 ई. में मालवा अभियान को स्थान दिया। मालवा उस समय बाजबहादुर के आधीन था। यह मुस्लिम शासक एक हिंदू स्त्री रूपमती से प्रेम करता था और उसके प्रेम की वासना में अंधा होकर राजकाज से विमुख था। इसे अकबर ने अपने लिए स्वर्णिम अवसर माना और शासन से विमुख शासक के राज्य पर आक्रमण कर दिया। बाजबहादुर परास्त होकर दक्षिण की ओर भाग गया और उसकी प्रेयसी ने आत्महत्या कर ली। इस प्रकार मालवा पर अकबर का आधिपत्य हो गया। आगे चलकर बाजबहादुर ने अकबर से क्षमा याचना की तो अकबर ने उसे मनसबदारी प्रदान कर दी।

गोण्डवाना अभियान
उस समय गोण्डवाना पर वीर नारायण का शासन था, उसकी वीरमाता रानी दुर्गावती थी। जिनके विषय हम आगे चलकर यथोचित स्थान पर चर्चा करेंगे। इस हिंदू शासक पर अकबर के कहने से कड़ा के सूबेदार आसफ खां ने आक्रमण कर दिया। रानी ने आत्महत्या कर ली और वीरनारायण को मुगलों ने मार दिया। इस प्रकार गोण्डवाना पर भी अकबर का आधिपत्य हो गया। यह घटना 1564 ई. की है। इसके पश्चात चित्तौड़ पर 1567 ई. में अकबर द्वारा चढ़ाई की गयी। जिसका उल्लेख हम पूर्व के अध्याय में कर चुके हैं। जी.एन. शर्मा के अनुसार इस आक्रमण की सूचना होते ही विशेष बात यह रही थी कि-‘‘अकबर के आक्रमण की सूचना मिलते ही मेवाड़ की मंत्रिपरिषद ने निश्चय किया कि राणा उदयसिंह को पश्चिमी मेवाड़ में किसी सुरक्षित स्थान पर भेज दिया जाए। यद्यपि राणा पहले इस बात के लिए नही माने, लेकिन मंत्रिपरिषद के आग्रह पर उन्हें अपना निश्चय परिवर्तित करना पड़ा तथा अपने परिवार सहित सुरक्षित स्थान पर जाना पड़ा।’’

रणथम्भौर और कालिंजर की विजयें
चित्तौड़ अभियान के पश्चात 1569 ई. में अकबर ने रणथम्भौर और कालिंजर की विजयें की। रणथंभौर का शासन उस समय सुरजन हाड़ा था। जिसके दुर्ग का घेराव अकबर ने 1569 ई. में कर दिया था। सुरजन हाड़ा ने थोड़े से संघर्ष के पश्चात ही अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी। रणथंभौर को अकबर ने अपने साम्राज्य में मिला लिया और सुरजन हाड़ा को उसने गढक़ण्टक का किलेदार बना दिया था। इसी प्रकार कालिंजर के शासक रामचंद्र ने शीघ्र ही अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली और अकबर ने कालिंजर को अपने साम्राज्य में मिला लिया। इसके पश्चात कई राजपूतों ने अकबर से वैवाहिक संबंध स्थापित किये और अपनी कन्याएं देकर भारत के स्वाभिमान को ठेस पहुंचाई। इनमें आमेर के शासक बिहारीमल का नाम सबसे ऊपर है, जिसने अपनी पुत्री जोधाबाई का विवाह अकबर के साथ कर दिया था।

कुछ अन्य विजय अभियान
इसके पश्चात अकबर का मेवाड़ के महाराणा प्रताप से संघर्ष हुआ। जिसका विवरण हम आगे चलकर करेंगे। महाराणा प्रताप के विषय में स्मिथ का कथन है कि-‘‘प्रताप को उत्तराधिकार में एक तेजस्वी वंश का यश तथा उपाधियां प्राप्त हुई थीं, किंतु न तो उसके पास राजधानी थी और न साधन। उसके जाति-बिरादरी वाले लोग पराजयों से हतोत्साहित हो चुके थे किंतु अपनी जाति का श्रेष्ठ शूरत्व उनमें अभी भी विद्यमान था।’’

1572 ई. के पश्चात अकबर ने अपना ध्यान गुजरात की ओर लगाया। 1572 ई. में उसने वहां के शासक मुजफ्फरशाह पर आक्रमण कर दिया। मुजफ्फरशाह भी अकबर की विशाल सेना का सामना करने में असफल रहा। इसलिए उसने भी शीघ्र ही अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। सूरत पर उस समय इब्राहीम मिर्जा का शासन था, जिसे हटाकर अकबर ने वहां भी अपना झण्डा लहरा दिया। तत्पश्चात अकबर बंगाल की ओर चला। 1574 ई. में अकबर ने बंगाल के शासक दाऊद से हकरोई नामक स्थान पर संघर्ष किया और उसे परास्त कर अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया। तब अकबर ने काबुल कंधार, अफगानिस्तान, उड़ीसा, कश्मीर सिंध व बिलोचिस्तान की ओर कूच किया। उसने काबुल को 1585 ई. में, कश्मीर को 1586 ई. में उड़ीसा को 1592 ई. में कंधार को 1595 ई. में तथा बिलोचिस्तान को 1595 ई. में अपने साम्राज्य में मिला लिया था। इसी प्रकार 1590 ई. में सिंधु पर अधिकार स्थापित कर लिया।

दक्षिण भारत की ओर अकबर
अकबर से दक्षिण भारत भी अछूता नही रहा, उसने उधर भी कदम बढ़ाये। यह अलग बात है कि दक्षिण ने अकबर को अधिक मुंह नही लगाया और यह पर्याप्त परिश्रम के उपरांत भी दक्षिण भारत के बीजापुर, अहमद नगर, तथा गोलकुण्डा के शासकों से अपनी अधीनता स्वीकार नही करा सका। जब अब्दुर्रहीम खानखाना और शाहजादा मुराद ने अहमदनगर को घेरा तो वहां की शासिका चांद बीबी ने उनका डटकर मुकाबला किया। कड़े संघर्ष के पश्चात चांद बीबी ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। चांदबीबी को कुछ वर्ष पश्चात मार दिया गया।

कर्नल टॉड का मत है….
अकबर की विभिन्न विजयों के संबंध में कर्नल टॉड का कथन है कि-‘‘मुगल साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक अकबर ही था। वही प्रथम सफल विजेता था, जिसने राजपूतों की स्वतंत्रता नष्ट कर दी। उसने लोगों को जंजीरों में जकड़ा किंतु उनके ऊपर सोने का मुलम्मा चढ़ा दिया। इन जंजीरों की राजाओं को आदत पड़ गयी। क्योंकि बादशाह ने अनी शक्ति का उपयोग ऐसे ढंग से किया था कि राजपूतों का जातीय अभिमान बना रहा और कभी कभी उनके अकीर्तिकर राग द्वेष भी चलते रहे, परंतु उसकी विजयों के पूर्ण रूप से दृढ़ होने से पूर्व उसकी तलवार ने इन सैनिक कौमों की कई पुश्तें काट दीं, और उनकी चमक-दमक और कीर्ति खत्म कर दी। उसकी गणना शहाबुद्दीन, अलाउद्दीन और दूसरे विनाशक विजेताओं में हो गयी, लाखों लोग उसकी प्रशंसा करने लगे, जैसे उसकी जाति के किसी पुरूष की नही की गयी थी।’’

संपूर्ण भारत का विजेता नही था अकबर
अकबर के कथित विजय अभियानों से तो ऐसा लगता है कि वह संपूर्ण भारतवर्ष का ही बादशाह था, परंतु ऐसा नही था। बंगाल से आगे सारा पूर्वोत्तर भारत और म्यांमार बर्मा तक का क्षेत्र उससे अछूता ही रहा, इसके अतिरिक्त नेपाल और अधिकांश दक्षिणी भारत भी उसके शासन के अधीन कभी नही आ सके। भारत किसी भी शासक के लिए किसी रोटी का ग्रास नही बन सका कि जब जैसे चाहा तोड़ लिया और निगल गये। भारत विद्रोह और स्वतंत्रता की भूमि थी, जिसमें हर पग पर क्रांति की ज्वालाएं धधकती थीं। अकबर भी शांति पूर्वक समस्त भारत को एक साथ और एक ध्वज के नीचे लाने में कभी सफल नही हुआ था।

कन्या सौंपने वाले राजाओं का हो गया था सामाजिक बहिष्कार
भारत के अधिकांश हिंदू समाज ने आमेर-बीकानेर और जैसलमेर के उन राजाओं का सामाजिक बहिष्कार सा कर दिया था। जिन्होंने अपनी कन्याएं अकबर को सौंपकर उससे वैवाहिक संबंध स्थापित किये थे। यह परंपरा आज तक चली आती है कि हिंदू समाज में इन राज्यों के राजाओं को कोई सम्मान नही देता, पर इन राजाओं को सदा लताड़ते रहे महाराणा प्रताप को लोग आज तक सम्मान देते हैं।

यद्यपि अकबर ने राजा भगवान दास को पंजाब का सूबेदार बना दिया था, तथा राजा मानसिंह को तो शाही परिवार के व्यक्ति की बराबर की 7,000 की मनसबदारी भी दे दी थी, परंतु इसके उपरांत भी लोग उसे सम्मान न देकर वन-वन की खाक छानने वाले महाराणा प्रताप को आज भी सम्मान देते हैं। इससे यही सिद्घ होता है कि यश राजभवनों के ऐश्वर्यपूर्ण जीवन से उत्पन्न नही होता है, अपितु वह तो परिश्रम और त्याग की झोंपड़ी से ही उत्पन्न होता है। हमें निस्संकोच स्वीकार करना चाहिए कि इस विषय में महाराणा सबसे आगे रहे कि उन्हें देश की जनता ने सच्चा हिंदू हितैषी, सच्चा देशभक्त, सच्चा नायक और सच्चा ‘महाराणा’ मानकर सम्मानित किया है। लोकमत की मान्यता और राजा की महानता

चाहे किसी भी इतिहासकार ने अकबर को कितना ही महिमामंडित क्यों न किया हो पर किसी राजा की महानता का पता उसके विषय में इतिहास की पुस्तकों को पढक़र नही चल पाता है। राजा की महानता का पता चलता है-लोकमत की मान्यता का अध्ययन करके। हमारा प्रश्न है कि क्या भारत में सबने रामायण पढ़ी है, जो सभी राम को अच्छा और रावण को बुरा समझते हैं? उत्तर यही आएगा कि सबने रामायण नही पढ़ी। यही बात महाभारत के विषय में भी कही जा सकती है, कि वह भी सबने नही पढ़ी। पर सबकी मान्यता है कि युधिष्ठिर ठीक था और दुर्योधन गलत था। यही बात अकबर और महाराणा के विषय में है-लोगों का नायक अकबर न होकर महाराणा प्रताप है। लोक का यह प्रमाणपत्र ही महाराणा की श्रेष्ठता को सिद्घ कर देता है। क्रमश:

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