तुर्की में लोकतंत्र के सूरज का अस्त होना

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ललित गर्ग-
तुर्की एक लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं, जहां हाल में सम्पन्न हुए चुनावों ने लोकतंत्र को कमजोर कर दिया है, इन चुनावों ने एक झकझोरने वाला सवाल खड़ा किया है कि क्या व्यक्ति-विशेष को सर्वशक्तिमान बनाकर लोकतंत्र की नींव को जर्जर नहीं किया गया है? सच्चे लोकतंत्र में व्यक्ति-विशेष नहीं बल्कि जनता को शक्तिशाली बनाने का उपक्रम होता है। जहां लोकजीवन अपनी स्वतंत्र अभिव्यक्ति से ही लोकतंत्र स्थापित करता है, जहां लोक का शासन, लोक द्वारा, लोक के लिए शुद्ध तंत्र का स्वरूप बनता है। लोकजीवन के इस मौलिक अधिकार को बाधित करना या इसके लिये उस पर अत्याचार करना, गंभीर चिन्ता का विषय है। चुनावों से लोकतांत्रिक प्रक्रिया की शुरूआत मानी जाती है, पर तुर्की के इन चुनावों ने लोकतंत्र का मखौल बनाया हैं। चुनावों में वे तरीके अपनाएं गए हैं जो लोकतंत्र के मूलभूत आदर्शों के प्रतिकूल हैं। यह एक ऐसा चुनाव था जो तुर्की में लोकतंत्र को मजबूत करने वाला नहीं, बल्कि उसकी जड़ें काटने वाला साबित हो सकता है।
तुर्की के इस चुनाव नतीजों में रेसेप तैय्यप एर्डोगान 53 फीसद वोट पाकर एक बार फिर राष्ट्रपति पद पर काबिज हो गए हैं। वही नहीं, उनकी एके पार्टी ने भी बहुमत हासिल कर लिया है। राष्ट्रपति पद के चुनाव में एर्डोगान के निकटतम प्रतिद्वंद्वी रिपब्लिकन पीपुल्स पार्टी (सीएचपी) के उम्मीदवार मुहर्रम इन्स को इकतीस फीसद वोट मिले। लेकिन यह विरोधाभासी एवं विसंगतिपूर्ण चुनाव था। लोकाचरण से लोक जीवन बनता है और इन स्थितियों से गुरजते हुए तुर्की लोकतंत्र आज अराजकता के चैराहे पर है। जहां से जाने वाला कोई भी रास्ता निष्कंटक नहीं दिखाई देता। इसे चैराहे पर खडे़ करने का दोष जितना जनता का है उससे कई गुना अधिक एर्डोगान का है जिन्होंने निजी व अपने दल के स्वार्थों की पूर्ति को माध्यम बनाकर इसे बहुत कमजोर कर दिया है। आज तुर्की में एर्डोगान सर्वशक्तिमान है, एक तानाशाह की तरह उनका दबदबा है और इस दबदबे को बनाने में उन्होंने लोकतंत्र की मर्यादा एवं सिद्धान्तों को ताक पर रख दिया है। कोई भी राष्ट्र इस तरह लोकतांत्रिक नहीं बन सकता।
एर्डोगान 2014 में राष्ट्रपति बनने से पहले ग्यारह वर्षों तक प्रधानमंत्री रहे थे। पहले प्रधानमंत्री और फिर राष्ट्रपति रहने के दौरान भी उन्होंने बड़ी निर्ममता, बर्बरता और निरंकुशता से राज-काज चलाया। विरोध या असहमति को बर्दाश्त कर पाना उनकी आदत में नहीं है। वे एकछत्र राज चाहते हैं, और इसी मकसद से उन्होंने संविधान बदलने के लिए जनमत संग्रह कराया। इक्यावन फीसद के मामूली बहुमत ने जिन संवैधानिक संशोधनों पर मुहर लगाई वे राष्ट्रपति को असीम अधिकार देते हैं, एर्डोगान को शक्तिशाली बनाती है।
नई संवैधानिक व्यवस्था के तहत सारी सत्ता राष्ट्रपति यानी एर्डोगान में केंद्रित होगी। प्रधानमंत्री का पद समाप्त कर दिया जाएगा। एर्डोगान ही उपराष्ट्रपति का और मंत्रियों का चयन करेंगे। देश के वरिष्ठतम जजों का चयन भी वहीं करेंगे। उन्हें न्यायपालिका में भी दखल देने का अधिकार होगा। वे आपातकाल यानी नागरिक अधिकारों को निरस्त करने की घोषणा भी कर सकते हैं। इस सब से जाहिर है कि तुर्की की नई व्यवस्था में किसी को कुछ भी बोलने, अंगुली निर्देश करने का कोई अधिकार नहीं होगा, जो कि लोकतांत्रिक प्रणाली की विशेषता मानी जाती है।
यह भी गौरतलब है कि ये चुनाव जिस माहौल में हुए उसे स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव का माहौल कतई नहीं कहा जा सकता। इसमें कोई संदेह नहीं कि एर्डोगान ने इस चुनाव में अपनी सत्ता एवं अधिकारों का जमकर दुरुपयोग किया है। निरंकुशता एवं अराजकता ही सर्वत्र छायी रही है। देश में दो साल से इमरजेंसी लागू रही है। वहां नब्बे फीसद मीडिया सरकारी कंपनियों के कब्जे में है। ऐसे में केवल एक ही पक्ष की बातें प्रचारित होती रही हैं। एर्डोगान को ही महिमामंडित किया गया है। हजारों विपक्षी कार्यकर्ता काफी समय से जेल में हैं। सत्ता से सहमति रखने वाले बौद्धिक और पत्रकार या तो जेल में डाल दिए या देश से पलायन कर गए। एर्डोगान को इन सब से संतोष नहीं हुआ, तो मनमाने ढंग से चुनाव कानून बदल दिए। नया चुनाव कानून अफसरों को यह अधिकार देता है कि वे ऐसे मतपत्र को भी स्वीकार कर सकते हैं जिस पर आधिकारिक मुहर न हो। इससे धांधली की आशंका को ही बल मिला और नतीजे आने के बाद चुनाव की निष्पक्षता पर सवाल उठे भी हैं। क्या यह लोकतंत्र है? इससे तो लोकतंत्र का कमजोर एवं डरा हुआ चरित्र ही सामने आया है।
निरंकुशता की संस्कृति तुर्की के लोकतंत्र की जड़ों में गहरी पैठ गयी है। ऐसे में जनादेश कैसा होगा, यह पहले से ही सर्वविदित हो जाता है। क्या इन तानाशाही स्थितियों के द्वारा जनता को पंगु, अशक्त और निष्क्रिय बनाकर लोकतंत्र की हत्या नहीं की जा रही है? एक मूल्यहीनता का वातावरण लोकतंत्र की बुनियाद को खोखला करता है। जब एक अकेले व्यक्ति का जीवन भी मूल्यों के बिना नहीं बन सकता, तब एक राष्ट्र मूल्यहीनता में कैसे शक्तिशाली बन सकता है? अनुशासन के बिना एक परिवार एक दिन भी व्यवस्थित और संगठित नहीं रह सकता तब संगठित देश की कल्पना अनुशासन के बिना कैसे की जा सकती है?
चुनाव ही लोकतंत्र का उत्सव है। इस वक्त मतदाता मालिक बन जाता है और मालिक याचक। इसी से लोकतंत्र परिलक्षित होता है। लेकिन तुर्की में ऐसा नहीं हुआ। वहां सभी मर्यादाएं, प्रक्रियाएं, मूल्य और आदर्श दम तोड़ने लगी हैं। वहां लोकतांत्रिक प्रणाली के तहत जिस तरह की शर्मनाक घटनाएं घट रही हैं, उसकी वजह से लोगों की आस्था संसदीय लोकतंत्र के प्रति कमजोर होना अस्वाभाविक नहीं है। लोकतंत्र के मूल्यों के साथ हो रहे खिलवाड़ की वजह से भविष्य का चित्र संशय से भरपूर नजर आता है।
चुनाव कहीं भी हो और किसी भी स्तर के हो, उनका शांतिपूर्ण और निष्पक्ष होना जरूरी है। बिना किसी भय या दबाव के होना भी जरूरी है। ऐसा नहीं होना लोकतंत्र की विफलता है। राष्ट्रपति पद के चुनाव में दूसरे स्थान पर रहे मुहर्रम इन्स ने भले ही दबे मन से नतीजों को स्वीकार कर लिया है, पर साथ में यह भी जोड़ा कि इन चुनावों को भयमुक्त माहौल में संपन्न और निष्पक्ष नहीं कहा जा सकता। सत्ता के तमाम दुरुपयोग के अलावा एर्डोगान धार्मिक धु्रर्वीकरण का सहारा लेने से भी बाज नहीं आए। इस सबको देखते हुए तुर्की के चुनाव अन्य लोकतांत्रिक राष्ट्रों के लिये एक चेतावनी भी हैं, कि हमें लोकतंत्र को बस चुनाव किसी तरह संपन्न हो जाने तक सीमित करके नहीं देखना चाहिए। लोकतंत्र का अर्थ सिर्फ चुनाव नहीं है। लोकतंत्र के लिए विरोध की आजादी, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, मीडिया की स्वतंत्रता, नागरिक अधिकारों की गारंटी, शक्तियों एवं सत्ता का विकेन्द्रीकरण, निगरानी और संतुलन की व्यवस्था भी जरूरी हैं। किसी भी देश में लोकतंत्र के प्रासाद को सुदृढ़ आधार प्रदान करने के लिये स्वतंत्रता, शांति, समानता और सह-अस्तित्व रूपी चार-स्तंभो की आवश्यकता होती है, इसी से लोकतंत्र का अस्तित्व टिका रह सकता है। इसी रोशनी में तुर्की में लोकतंत्र का सूरज कब चमकेगा?

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