मौजूद किसान आंदोलन भटका मूल उदेश्यों से राजनैतिक महत्वाकांक्षा पूरी करने का बना अड्डा

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 भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबी है कि इसमें असहमति को सहमति के बराबर का दर्जा दिया गया है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष की परिकल्पना ही लोक को निरंकुश होने से बचाने के लिए की गई है। लेकिन क्या ‘विपक्ष’ या फिर ‘असहमति’ को ‘विरोध’ की संज्ञा दी जा सकती है? क्या आवश्यकता पड़ने पर असहमति जताने के लिए व्यवस्थित किए गए तंत्र के एक हिस्से को किसी भी मसले पर सहमति नहीं जतानी चाहिए? इन दो मूल प्रश्नों पर अगर गंभीरता से विचार करेंगे, तो हमें आज केंद्र की राजनीति में विपक्षी पार्टियों के रवैये को समझने में ख़ासी मदद मिल सकती है। मोदी सरकार जो भी फ़ैसले कर रही है,कांग्रेस नीत विपक्षी पार्टियां उसका विरोध कर रही हैं।कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों की लड़ाई जारी है।तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसान प्रदर्शन कर रहे हैं। दिल्ली के बॉर्डर सहित देश के विभिन्न हिस्सों मे किसान आंदोलित हैं और तीनों कृषि कानूनों के वापस लिए जाने की मांग कर रहे हैं।वर्तमान कृषि आंदोलन को एक विशेष राज्य और एक विशेष समूह तक सीमित बताया जा रहा है। यह बात सही भी है क्योंकि वर्तमान कृषि आंदोलन पंजाब और हरियाणा के किसानों के बीच अधिक दिख रहा है।इसका एक ठोस कारण यह भी है कि इन तीनों कृषि कानूनों का सबसे अधिक प्रभाव पंजाब और हरियाणा में ही रहने वाला है। पंजाब और हरियाणा में देश की सबसे अधिक कृषि मंडियां हैं और वहां के किसान मंडियों के जरिये एमएसपी के लाभ को जानते हैं. बाकी देश के अन्य हिस्से जिनमें प्रमुख रूप से उत्तर प्रदेश और बिहार के किसानों को कृषि की मूलभूत जरूरतों और कृषि मंडियों से दूर रखा गया।
किसान अन्नदाता हैं। भारत के भाग्यविधाता हैं। उनके अधिकार की हरहाल में रक्षा होनी चाहिए। किसान आंदोन भारत का आंतरिक मुद्दा है। लेकिन इसकी आड़ में विदेशी ताकतें देश के आंतरिक मामले में दखल दे रही हैं। किसान आंदोलन का स्वरूप जिस तेजी से बदल रहा है उससे इसके राजनीतिक इस्तेमाल की आशंका बढ़ गयी है। सरकार की जिद से भी स्थिति खराब हुई है। किसान पहले केवल एमएसपी की लिखित गारंटी चाहते थे। लेकिन अब के तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग कर रहे हैं। लेकिन इसके नाम पर भारत बंद करने, आवश्यक सेवाओं को रोकने का फैसला कहां तक उचित है ?  क्या किसान आंदोलन की आग पर राजनीतिक दल अपनी रोटियां सेंकना चाहते हैं ? पंजाब के किसान नेता देश भर के किसानों को इसमें शामिल होने की अपील कर रहे हैं। लेकिन क्या कभी पंजाब के किसान नेताओं ने ओडिशा के कालाहांड़ी, पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी और बिहार के बदहाल किसानों के लिए आवाज उठायी है ? क्या पिछड़े राज्यों के किसानों की कोई अहमियत नहीं?

 दिल्ली की सीमाओं पर तीन कृषि कानूनों के विरोध मे चल रहा किसान आंदोलन अब पूरी तरह से हिंसक हो गया है।बलात्कार,छेडछाड की घटना,जिंदा जलाना,जानलेवा हमला करना और अब तो आंदोलन मे शामिल लोगों दवारा तालिबान की तरह एक व्यक्ति की निर्शंस हत्या कर दी गई और सयुंक्त किसान मौर्चे के नेताओ दवारा घटना को अंजाम देने वाओ से कोई संबंध नहीं है कह कर घटना से पल्ला झाडना दिखा रहा है कि आंदोलन को जिंदा रखने के लिए तथाकथित किसान नेता किसी हद तक जा सकते है।

किसान आंदोलन की शुरुआत जहां पंजाब से हुई वहीं इसका प्रभाव केवल तीन राज्यों पंजाब, हरियाणा एंव राजस्थान मे ही देखने को मिल रहा है,इसके पीछे भी दिलचस्प कहानी है। एक तरफ जहां पंजाब व राजस्थान मे कांग्रेस की सरकार है जो आंदोलन के लिए फंडिंग समेत सभी व्यवस्थाएं मुहैया करवा रही है तो वहीं हरियाणा मे बीजेपी के खिलाफ एक विशेष वर्ग खिलाफत का माहौल बनाने की कौशिश कर रह है।आंदोलन स्थलों पर कांग्रेस,कंम्यूनिस्ट पार्टियों सहित विपक्षी दलों दवारा सहयोग किया जा रहा है।

आंदोलन के तथाकथित सभी किसान नेताओं का कंम्यूनिस्ट पार्टियों से रिश्ता रहा है।जिसके कारण आंदोलन पूरी तरह से किसानों के हाथों से निकलकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि धुमिल करने की कौशिश करने वाले वांमपंथियो के हाथों मे चला गया है।वांमपंथी दल जिनका कभी देश के सात राज्यों मे शासन होता था, अब केवल केरल तक सीमित हो गए है।किसान आंदोलन के जरिए अपने अस्त होते राजनैतिक अस्तित्व को बचाने के लिए इनका संघर्ष जारी है। 

लोकसभा के 38 प्रतिशत सांसद किसान
सबसे बड़ी बात ये है कि मौजूदा लोकसभा के 38 प्रतिशत सांसद किसान हैं।ये आश्चर्य की बात है कि भारत में हर तीन में से एक सांसद किसान है। लेकिन फिर भी किसान आज सड़क पर हैं और नेता अपने अपने शाही बंगलों में आराम से बैठकर टे​लीविजन पर आंदोलन की तस्वीरें देख रहे हैं।
आंदोलन को जिंदा रखने के लिए कृषि कानूनो के बारे मे फैलाई जा रही झूठी अफवाहों और उनके बारे में सत्य… 

सवाल –  कृषि कानून में एमएसपी का जिक्र नहीं।
जवाब – बिल में एमएसपी का जिक्र है। मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तीकरण और संरक्षण) समझौता अध्यादेश, 2020 के 5 वें पॉइंट में गारंटेड प्राइस अथवा उपयुक्त बेंच मार्क प्राइस का जिक्र है, यानी एमएसपी का।
क्या लिखा है 5 वें पॉइंट में- 
खेती की उपज की खरीद के लिए भुगतान की जाने वाली कीमत का निर्धारण और कृषि समझौते में ही उल्लेख किया जा सकता है और अगर ऐसी कीमत भिन्नता के अधीन है, तो इस समझौते के तहत 
A-  ऐसे उत्पाद का गारंटेड प्राइस 
B – गारंटेड प्राइस के अतिरिक्त राशि, जैसे बोनस या प्रीमियम का स्पष्ट संदर्भ। यह संदर्भ मौजूदा मूल्यों या दूसरे निर्धारित मूल्यों से संबंधित हो सकता है। गारंटेड प्राइस सहित किसी अन्य मूल्य के निर्धारण के तरीके और अतिरिक्त राशि का उल्लेख भी कृषि समझैते में होगा। 
सवाल : एमएसपी आखिरकार खत्म हो जाएगी।
जवाब : एमएसपी के सिस्टम पर कृषि कानूनों का कोई असर नहीं पड़ा है।वर्तमान में MSP का संचालन राज्य एजेंसियों के जरिए किया जाता है। एमएसपी की खरीद एनडीए सरकार के लिए उच्च प्राथमिकता है।केंद्र की मोदी सरकार ने कई मौकों पर एमएसपी में वृद्धि की है और अतीत में किसी भी सरकार की तुलना में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों से अधिक खरीद की है।
सवाल : APMC मंडियों के राजस्व को होगा नुकसान
जवाब – राज्यों और उनमें मौजूद APMC के पास अभी भी मंडी फीस बढ़ाने समेत कई शक्तियां हैं। कृषि कानूनों में APMC को नहीं छुआ गया है, वो जैसे काम करती रही हैं, वैसे काम करती रहेंगी।कृषि बिल पर उनका प्रभाव नहीं पड़ेगा।

सवाल –  उद्योगपति किसानों की जमीन हड़प लेंगे
जवाब – यह असंभव है। किसान इस कानून के तहत संरक्षित हैं। कानून के 8 वें पॉइंट के मुताबिक, कोई भी कृषि समझौता इन उद्देश्य से नहीं किया जाएगा। किसानों की भूमि या परिसर की बिक्री और बंधक समेत कोई भी हस्तांतरण
सवाल : कानून राज्यों को राजस्व पैदा करने से रोकेगा, जिससे मंडियां बंद हो सकती हैं।
जवाब : APMC मंडियां अब भी किसानों के साथ काम कर रही हैं। कृषि कानूनों ने इन्हें और प्रभावी, कम भ्रष्टाचार वाली, और प्रतियोगिता का माहौल पैदा करने वाली बन गई हैं। इससे भ्रष्टाचार खत्म होगा और बिचौलियों की खात्मा होगा।
सवाल : कृषि बिल किसानों के भुगतान को लेकर कुछ नहीं करते. वहीं एजेंट्स जो कि वैरीफाई किए हुए होते हैं, वो किसानों का भुगतान सुनिश्चित करते हैं.
जवाब : कृषि कानूनों के तहत इस बात का प्रावधान किया गया है कि किसानों को उनकी फसल का भुगतान उसी दिन किया जाए, या फिर अगले तीन व्यावसायिक दिनों के भीतरः अगर इसमें कोई भी कोताही बरती जाती है तो उसके लिए कानून प्रावधान हैं।ये कानूनी उपाय किसानों को धोखाधड़ी से बचाते हैं।
सवाल : किसानों का इसके जरिए शोषण होगा? 
जवाब : कृषि सुधारों के तहत विवाद के समाधान की बात की गई है जो शोषण करने वाले व्यापारियों से किसानों को बचाने का काम करते हैं।
आखिर क्या है न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 
एमएसपी यानी मिनिमम सपोर्ट प्राइस या फिर न्यूनतम सर्मथन मूल्य सरकार की तरफ से किसानों की अनाज वाली कुछ फसलों के दाम की एक प्रकार की गारंटी होती है। राशन सिस्टम के तहत जरूरतमंद लोगों को अनाज मुहैया कराने के लिए इस एमएसपी पर सरकार किसानों से उनकी फसल खरीदती है। अगर कभी फसलों की कीमत बाजार के हिसाब से गिर भी जाती है, तब भी केंद्र सरकार तय न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ही किसानों से फसल खरीदती है ताकि किसानों को नुकसान से बचाया जा सके।
एमएसपी किसी भी फसल की पूरे देश में एक ही होती है। अभी केंद्र सरकार 23 फसलों की खरीद एमएसपी पर करती है। कृषि मंत्रालय, भारत सरकार के अधीन कृषि लागत और मूल्य आयोग (कमीशन फॉर एग्रीकल्चर कॉस्ट एंड प्राइजेस CACP) की अनुशंसाओं के आधार पर एमएसपी तय की जाती है।
वर्ष 2015 में भारतीय खाद्य निगम  के पुनर्गठन का सुझाव देने के लिए बनी शांता कुमार समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि एमएसपी का लाभ सिर्फ 6 प्रतिशत किसानों को ही मिल पाता है जिसका सीधा मतलब है कि देश के 94 फीसदी किसान एमएसपी के फायदे से दूर रहते हैं। वर्तमान में सरकार के अनुसार देश में किसानों की संख्या (किसान परिवार) 14.5 करोड़ है, इस लिहाज से 6 फीसदी किसान मतलब कुल संख्या 87 लाख हुई।
■ फसलों की कीमत कैसे तय होती है और तय कौन करता है?
वर्ष 2009 से कृषि लागत और मूल्य आयोग एमएसपी के निर्धारण में लागत, मांग, आपूर्ति की स्थिति, मूल्यों में परिवर्तन, मंडी मूल्यों का रुख, अलग-अलग लागत और अन्तराष्ट्रीय बाजार के मूल्यों के आधार पर किसी फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करता है।
कृषि मंत्रालय यह भी कहता है कि खेती के उत्पादन लागत के निर्धारण में नकदी खर्च ही नहीं बल्कि खेत और परिवार के श्रम का खर्च (बाजार के अनुसार) भी शामिल होता है, मतलब खेतिहर मजदूरी दर की लागत का ख्याल भी एमएसपी तय करने समय रखा जाता है। एमएसपी का आकलन करने के लिए सीएसीपी खेती की लागत को तीन भागों में बांटता है।
ए2, ए2+एफएल और सी2, ए2  में फसल उत्पादन के लिए किसानों द्वारा किए गए सभी तरह के नकदी खर्च जैसे- बीज, खाद, ईंधन और सिंचाई आदि की लागत शामिल होती है जबकि ए2+एफएल में नकद खर्च के साथ पारिवारि श्रम यानी फसल उत्पादन लागत में किसान परिवार का अनुमानित मेहनताना भी जोड़ा जाता है।वहीं सी2 में खेती के व्यवसायिक मॉडल को अपनाया जाता है। इसमें कुल नकद लागत और किसान के पारिवारिक पारिश्रामिक के अलावा खेत की जमीन का किराया और कुल कृषि पूंजी पर लगने वाला ब्याज भी शामिल किया जाता है।
■ जब पैदावार बढ़ेगी तब खरीद कौन करेगा?
एमएसपी को कानून का दर्जा देने में सरकार के सामने क्या दिक्कते हैं? इसके बारे मे देश के कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि एमएसपी को कानूनन अनिवार्य बनाना बहुत मुश्किल है। पूरी दुनिया में कहीं भी ऐसा नहीं है। इसका सीधा सा मतलब यह भी होगा कि राइट टू एमएसपी। ऐसे में जिसे एमएसपी नहीं मिलेगा वह कोर्ट जा सकता है और न देने वाले को सजा हो सकती है।”
“अब मान लीजिए कि कल देश में बाजरे या चावल का उत्पादन बहुत ज्यादा हो जाता है और बाजार में कीमतें गिर जाती हैं तो वह फसल कौन खरीदेगा? कंपनियां कानून के डर से कम कीमत में फसल खरीदेंगी ही नहीं। ऐसे में फसल किसानों के पास ऐसी ही रखी रह जायेगा। लोगों को इसके दूसरे पहलुओं पर भी विचार करने चाहिए।” 
देश में अभी जिन फसलों की खरीद एमएसपी पर हो रही है, उसके लिए हमेशा एक ‘फेयर एवरेज क्वॉलिटी’ तय होता है। मतलब फसल की एक निश्चित गुणवत्ता तय होती है, उसी पर किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलता है। अब कोई फसल गुणवत्ता के मानकों पर खरी नहीं उतरती तो किसान तो उसे कैसे खरीदा जायेगा? अभी तो व्यापारी फसल की गुणवत्ता कम होने पर भी खरीद लेते हैं, लेकिन कानून बनने के बाद यह कैसे संभव हो पायेगा जब फसल की कीमत फिक्स कर दी जायेगी? इसके लागू करना मुश्किल होगा। व्यापारियों के सामने बड़ी मुश्किल आयेगी।
■ पैसा कहां से आयेगा, बढ़ सकता है आयात
कृषि नीतियों के जानकार और कृषि अर्थशास्त्रीयों का मानना है  कि अगर केंद्र सरकार एमएसपी को अनिवार्य कानून बनाती है तो उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती पैसों की होगी और इसका इसका एक असर यह भी होगा कि देश में कृषि उत्पादों का आयात बढ़ सकता है।
 “केंद्र सरकार की कमाई ही सालाना 16.5 लाख करोड़ रुपए है जबकि अगर उसे सभी 23 फसलों की खरीद एमएसपी पर करनी पड़े तो सरकार को इसके लिए 17 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च करने पड़े सकते हैं। अगर सरकार एमएसपी को अनिवार्य कानून बना देगी तो वह तो सभी फसलों पर लागू होगी, बस धान या गेहूं पर ही तो नहीं होगी। दूसरी फसलों के किसान भी तो मांग करेंगे। अगर यह हुआ तो अभी के कुल बजट का लगभग 85 फीसदी हिस्सा सरकार एमएसपी पर ही खर्च कर देगी।”
■ विश्व व्यापार संगठन का दबाव
सब्सिडी के कारण देश को विश्व व्यापार संगठन के सामने झुकना पड़ता है। हमें उन्हें बताना पड़ता है कि हमारे यहां गरीबी है, हमें सब्सिडाइज फूड (छूट पर भोजन) देना पड़ता। इसीलिए सरकार खाद्य सुरक्षा नीति भी लेकर आई। हमें अपने कृषि बाजार खोल देने चाहिए। अभी भी हम कई उपज पर सब्सिडी देकर उसका निर्यात कर रहे हैं। मतलब पहले हम पैदा करने के लिए सब्सिडी दे रहे हैं फिर उसका व्यापार करने के लिए सब्सिडी दे रहे हैं।

बिचौलिए प्रदर्शन को भड़का रहे हैं ?
अभी तक एफसीआई अढ़तियों के माध्यम से किसानों तक माल का पैमेंट पहुंचाते थे। उन्हें हर ट्रांजेक्शन पर 2.5% कमीशन मिलता है। पंजाब में बिचौलिओं को सिर्फ गेहूं और धान के लिए करीब 3300 करोड़ का कमीशन मिला। इसमें दालें, तेल बीज, कपास, गन्ना और सब्जियां शामिल नहीं हैं। बिचौलिओं के संगठन मजबूत हैं और किसान सीधे किसी को फसल नहीं बेंच सकता था। किसानों को फसल की एमएसपी का सिर्फ 30% मिलता है, जबकि बिचौलिओं को पंजाब में दोगुना फायदा मिलता है।
कृषि कानूनो का विरोध जता रहे कैप्टन अमरिंदर व भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ने रखी थी इन कानूनों की पटकथा
पंजाब में प्राइवेट सेक्टर को कृषि सेक्टर में लाने के लिए साल 2006 में तत्कालीन कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार ने एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट संशोधन एक्ट पारित किया था और प्राइवेट मंडियों के लिए रास्ता खोल दिया था। इसके बाद 2012 में जब पंजाब में प्रकाश सिंह बादल सरकार सत्ता में आई तो उन्होंने पंजाब कांट्रैक्ट फार्मिंग एक्ट 2013 पारित कर दिया। कांग्रेस द्वारा बनाई गई कृषि कमेटी के तत्कालीन चेयरमैन मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने भी कृषि कानूनों को तुरंत लागू करने की हिमायत की थी।“इन कानूनों को ही कॉपी कर मोदी सरकार ने तीन कृषि कानून बनाए हैं”।यह हम नहीं, बल्कि पंजाब के  प्रसिद्ध कृषि विशेषज्ञ और अर्थशास्त्री पद्म भूषण सरदारा सिंह जौहल कह रहे है। उनका आगे कहना है कि “केंद्र सरकार ने तीन कृषि कानूनों को अमलीजामा पहनाकर किसान हित में बड़ा कदम उठाया है”। 5 दिसंबर 2012 को खुद सांसद दीपेंद्र सिंह हुडडा ने संसद में बोलते हुए McDonald’s और पेप्सिको को हरियाणा में कांट्रैक्ट फार्मिंग के लिए आमंत्रित किया, जिससे वे 24 इंज (2 फुट) का आलू उगा सकें। विपक्ष में होने के कारण आज बादल परिवार से लेकर कैप्टन अमरेंद्र सिंह और खुद पूर्व सीएम हुड्डा इन कानूनों को ‘पाप’ कहकर किसानों को बरगला रहे है। प्रश्न ये है कि यदि इन कानूनों ‘पाप’ मान लें तो इसके पापी  भी बादल, कैप्टन और हुड्डा हैं। अपने कानूनों की खिलाफत कर ये तीनों सिर्फ राजनैतिक रोटियां सेंक रहे हैं।
एमआरपी की तरह एमएसपी को कानूनी मान्यता देनी चाहिए सरकार को
लेकिन यहां सरकार को भी एक काम जरूर करना चाहिए और वो ये कि एमएसपी को उसी तरह से कानूनी मान्यता दिलानी चाहिए जैसे एमआरपी को हासिल है क्योंकि, अगर देश में एक चिप्स का पैकेट या कोल्ड ड्रिंक की बोतल एमआरपी पर बिक सकती है और उद्योगपतियों तक एक तय मुनाफा पहुंच सकता है तो फिर किसानों की फसल की कीमत फिक्स क्यों नहीं की जा सकती।फिलहाल तो एमएसपी की स्थिति भी ऐसी है कि भारत के सिर्फ 6 प्रतिशत किसान ही एमएसपी पर अपनी फसल बेच पाते हैं।94 प्रतिशत किसानों को तो इससे भी कम कीमत पर अपनी फसल बेचनी पड़ती है।
कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि एमएसपी की जगह सरकार किसानों को प्रति हेक्टेयर ज़मीन के हिसाब से 10 हज़ार रुपये की राशि देने लगे तो ज्यादा बेहतर होगा, देश भर में इसे लागू करने का खर्च 1 लाख 97 हज़ार करोड़ रुपये के आसपास बैठेगा और ये एमएसपी पर आने वाले खर्च के लगभग बराबर है।

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