लोकतंत्र का पर्व बनाम लोक कल्याण की भावना

एम. अफसर खां सागर
हर साल की तरह इस साल भी हम स्वतंत्रता दिवस का जश्न बड़े धूम-धाम से मना रहे हैं और मनाना भी चाहिए क्योंकि बड़ी कुर्बानियों के बाद देश को आजादी मिली है। कहीं शहादतों के कशीदे पढ़े जा रहे हैं तो कहीं लोकतंत्र का बखान मगर इन सबके बीच भूखतंत्र पर चर्चा मौन है। मुझे अपने मुल्क की आजादी पर फख्र और गुमान है। लाल किले पर फहरते तिरंगा को देख कर मेरा ही नहीं बल्कि राष्ट्र के हर नागरिक का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है मगर आजादी के इतने अरसे बाद भी देश के विभिन्न हिस्सों से भुखमरी, किसानों की आत्महत्या, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी की खबरें आए दिन मीडिया की सुर्खियां बन रही हैं जोकि मन को व्यथित कर देने वाली हैं। 15 अगस्त 1947 को जब देश ने गुलामी की जंजीरों को तोड़कर खुली हवा में सांस लिया था, तो उस दिन हमने कई संकल्प लिए, कई प्रतिज्ञाएं की और मन में आशा के कई दीप जले। देश के करोड़ो नागरिकों ने आजादी के वक्त मुल्क की तरक्की और खुद के मुस्तकबिल के लिए बेशुमार सपने संजोये थे। उनको लगा कि आजादी मिलने के बाद उनके जीवन में चमत्कारी बदलाव आयेगा। राजनैतिक आजादी के साथ आर्थिक आजादी का भी सपना साकार होगा। अपनी सरकार होगी। अपने लोग होंगे। अपनी व्यवस्था होगी। लेकिन आजादी के इतने लम्बे समय के बाद भी जिन शानदार प्रतिमानों, मूल्यों और आदर्शों पर हमारा स्वाधीनता संग्राम खड़ा था, वे तमाम मूल्य और आदर्श आज अप्रासंगिक लगने लगे हैं। स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए राजनैतिक आजादी के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक आजादी का होना बेहद लाजमी है। आर्थिक आजादी का मूलमंत्र है आर्थिक विकेन्द्रीकरण तथा आत्मनिर्भरता। अगर सरकारी आंकड़ेबाजी से हटकर देखें तो आज भी देश के तकरीबन 70 प्रतिशत लोग मूलभूत जरूरतों से वंचित हैं। अर्थव्यवस्था का भण्डार महज चन्द लोगों के हाथों में सिमट सा गया है, जिस वजह से देश अनेक गम्भीर समस्याओं मसलन गरीबी, बेकारी, बाल मजदूरी, किसान आत्महत्या आदि से दो चार है। इसीलिए लोग आजादी के जश्न से ज्यादा भूख के ताण्डव से जूझने में मशगूल हैं।

independenceदेश के स्वतंत्रता आन्दोलनों में लोगों ने जिस उम्मीद और सपनों को लेकर खुद का बलिदान दिया, उनका सिर्फ और सिर्फ यही सपना रहा होगा कि आजाद भारत की खुली फिजां में हमारी आने वाली नस्लें अपनी भाषा, राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली अपनायेंगे। शोषण मुक्त और समतामूलक समाज का निर्माण होगा। देश की नौकरशाही भ्रष्टाचार से मुक्त जनता के प्रति जवाबदेह होगी। विदेशी आत्मनिर्भरा से मुक्त होकर हम अपने पैरों पर खड़े होंगे। अपनी जरूरत के सामानों का निमार्ण स्वयं करेंगे। हम ऐसे समाज का निर्माण करेंगे जिसमें कोई भी व्यक्ति भूखा न रहे, जिसमें हर हाथ को काम और हर किसान को उसकी जरूरत के सामान मुहैया हो और जिसमें ऐसी चिकित्सा सेवाएं हों, जिनके चलते मुल्क के किसी बीमार को इलाज के आभाव में दम न तोड़ना पड़े मगर ये तमाम सपनें पूरी तरह कोरी कल्पना के सिवा कुछ नहीं। हर अरमान, हर ख्वाब आजाद भारत में ध्वस्त हो गये हैं। ऐसा नहीं है कि आजादी के बाद देश ने तरक्की नहीं किया है, लेकिन विकास किन लोगों का और किस कीमत हुआ है, यह खुद अपने में एक सवाल है। विश्व मंच पर हम जरूर अपने सामरिक ताकतों और विकास के नए पैमानों की बात करते हैं मगर आम आदमी के सरोकारों से जुड़ी बुनियादी समस्याओं पर आजादी के इतने बरसा बाद भी हम वहीं के वहीं नजर आते हैं।

गरीब-अमीर के बीच की दूरी निरंतर बढ़ रही है। शोषित दिन-ब-दिन और कमजोर हुआ है। समाज में व्याप्त सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक विषमताओं में कोई खास बदलाव नहीं दिख रहा है। घर वापसी और लव जेहाद की आवाजें बुलन्द हो रही हैं। राष्ट्रवाद का नारा बुलन्द कर सियासी रोटीयां सेकी जा रही हैं। एफडीआई के जरिये विदेशी अर्थनिवेश को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिससे देश के छोटे व्यापारियों पर व्यापक असर पड़ने का खतरा है। भारी विदेशी पूंजी निवेश से देश को दुबारा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के रूप में आर्थिक उपनिवेश का रास्ता खोला जा रहा है। देश में विदेशी शिक्षा के नाम पर गैर देशज संस्कृति को बढ़ावा दिया जा रहा है। ऐसे परिवेश में ईमानदारी, मेहनत और परोपकार जैसे मूल्य बेमानी होते जा रहे हैं। कारपोरेट कल्चर की वजह से आज पैसा और भोग-विलास सबसे बड़े मूल्य हो गये हैं।

राष्ट्रपिता बापू ने कहा था कि भारत गांवों का देश है। भारत की आत्मा आज भी गांवों में ही बसती है। मगर विकास के पैमाने पर आज भी सबसे ज्यादा गांव ही उपेक्षित हैं। देश की रीढ़ माना जाने वाला किसान दिन-रात पसीना बहा कर अन्न पैदा कर रहा है मगर उचित मूल्य न मिलने की वजह से खेती सबसे घाटा का सौदा बन गया है, यही वजह है कि आज किसान आत्महत्या करने पर मजबूर है। देश में गांव और किसान के उत्थान के नाम पर केन्द्र व प्रदेश की सरकारों द्वारा अनेकों बड़ी-बड़ी योजनाएं बनीं मगर कुछ धरातल पर पहुंची और कितनी फाइलों की जीनत बन कर रह गयीं। इन सबके बीच भ्रष्टाचार के कदाचार ने इनके हालात को और बदतर बना दिया। देश के किसानों की हालत बद से बदतर होती चली गयी। साहूकारों, ठेकेदारों, व्यापारीयों, अफसरों और नेताओं के घर दौलत की बरसात हुई मगर देश का किसान दिन ब दिन कमजोर होता गया। देश का गांव आज भी मूलभूत जरूरतों से महरूम है। स्वास्थ, शिक्षा, सड़क, बिजली और पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं से देश के अनेक गांव आज भी कोसों दूर हैं। देश में गरीबी कम करने की जगह सरकार ने गरीबी का पैमाना ही कम कर दिया। कितना हास्यपद लगता है कि जिस सरकार को देश की जनता खुद की बेहतरी के लिए चुनकर सत्ता के शिखर पर बैठाती है। उसकी के मंत्री करोड़ों रूपये जनता के लिए कानून बनाने के नाम पर डकार जाते हैं और जब बात गरीबी की आती है तो गरीबी का पैमाना ही घटा दिया जाता है।

यहां सोचने का मकाम है कि हम जिस आजादी का जश्न हर साल मनाते हैं, उसके पीछे छिपे निहीतार्थ को कभी हमने समझने का प्रयास किया है? लाल किला से महज झण्डा फहराने भर से देश का आमजन खुद को आजाद महसूस करेगा? आजादी का मतलब सिर्फ राजनैतिक नहीं वरन आर्थिक आजादी भी है, जो उस गांधी की मूल सोच थी जिस गांधी के नाम की माला जप कर हमारे मुल्क के सियासतदां आपनी सियासी दुकान चमकाते हैं तथा उस गांधी के जीवन की अन्तिम जीजिविषा थी, जिस गांधी के जीवन वृत्त पर विश्व शोध करने पर मजबूर है। कड़कड़ाती सर्दी में सड़क के किनारे जिन्दगी जीने के लिए संघर्ष करते उस बुजूर्ग से पूछिए आजादी का मतलब, शायद दो वक्त की रोटी से बढ़कर उसके लिए आजादी का कोई दूसरा मतलब नहीं होगा। अभी वक्त है कि फिर से हम आजादी के सच्चे अर्थ को समझें। इसके लिए एक बार फिर हमें आजादी के त्याग और तपस्या का अनुष्ठान करना होगा। असल में आजदी का अर्थ है कि हमारी संभावनाओं का, हमारी उर्जा और प्रतिभा का सम्पूर्ण विकास हो न की इनका और उनका विकास हो। देश के विकास के लिए कागजी आंकड़ेबाजी की जगह सरकारों को विकास के लिए ठोस और कारगर कदम उठाने की जरूरत है। भय, भूख और भ्रष्टाचार मुक्त समाता मूलक समाज की स्थापना हो जिसमें हर हाथ को काम और हर नागरिक को गौरव पूर्ण जीवन जीने का एहसास हो सके, जो अब तक हमारे नुमाइन्दों के नारों में सिमट कर रह गया है। आवश्यकता है इसे जमीन पर उतारने की ताकि हम सब सर्वांगीण विकास को महसूस कर सकें और उसको जी सकें। सिर्फ लोकतंत्र का पांच साला पर्व मना कर अगर हम आजादी का जश्न मना रहे हैं तो यह आजादी के मजाक के सिवा कुछ नहीं है! हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि हमारे युवा मुल्क में बीसवीं सदी में अस्सी के दशक के बाद जो पीढि़यां जन्मी हैं, उनमें बहुतों को ना तो देश की आजादी के विषय वस्तु का बोध है और ना ही वह इस महासंग्राम के अमर शहीदों, जुनूनी योद्धाओं और स्वतंत्रा सेनानीयों को जानते ही हैं। ऐसे सूरते हाल में जिस मुल्क की आजादी के 68 साल बाद ही उसकी भावी पीढ़ी के मस्तिष्क से अपने देश के इतिहास और भूगोल के प्रति विलोपन की समस्या पैदा हो जाए, उस मुल्क की आजादी अक्षुण रह पाएगी? इसका मूल कारण है आजादी के बाद हमारे देश के राजनेताओं की स्वेच्छाचारीता और आत्ममुग्धता। विडम्बना तो यह है कि 21वीं सदी में हमारे राजनेता आजादी के दीवानों की कसमें तो जरूर खाते हैं लेकिन मकबरे खुद का बनवाने में यकीन करना शुरू कर दिए हैं। इस हालात में हमारी पीढि़यों को आजादी के महासमर की गाथाओं, उनके नायकों, उनकी कर्म स्थलियों से कौन परिचित करायेगा? असली आजादी लोकतंत्र के पर्व में लोक कल्याण की भावना को मजबूत बना कर ही मिल पायेगी।

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