राजनीतिक सुधार का पहला कदम चुनाव सुधार

के. एन. गोविंदाचार्य

यदि हमारी चुनाव प्रणाली दोषरहित हो जाए तो काफी समस्याएं अपने आप सुलझ जाएंगी। देश की राजनीति स्वत: भारतपरस्त और गरीबपरस्त होने की राह पर चल पड़ेगी, क्योंकि जनता को इसी की जरूरत है।

चुनावों में अपदस्थ किए जाने के डर से कोई भी सरकार इसके विपरीत आचरण नहीं करेगी। जो भी सरकार इसके विपरीत काम करेगी, उसे जनता सबक सिखा सकेगी। यदि आज ऐसा कुछ हमारे यहां नहीं हो पा रहा है तो कहीं न कहीं चुनाव व्यवस्था इसके लिए जिम्मेदार है। चुनाव आयोग और कई ‘विशेषज्ञों’ को लगता है कि देश में चुनाव सफलतापूर्वक संपन्न हो रहे हैं। लेकिन सच यह नहीं है। किसी चुनाव की सफलता दो आधार पर मापी जाती है। पहला हिंसा की घटनाओं का न होना और डाले गए वोटों का प्रतिशत। लेकिन इन दोनों बातों के संदर्भ में कागजी और जमीनी हालात में काफी फर्क होता है। इस फर्क को समझे बगैर चुनाव की सफलता-असफलता की बाबत किसी भी तरह की राय कायम करना ठीक नहीं है। जमीनी हालत यह है कि देश के कई स्थानों पर चुनाव अधिकारियों को ग्रामीण क्षेत्रों में दबंग लोग आवभगत करके या धमका कर रखते हैं। यह कोई नई शुरुआत नहीं है बल्कि यह लंबे समय से चल रहा है। इन अधिकारियों को उनके बाल-बच्चों का वास्ता देकर स्थानीय स्तर पर धांधली में सहयोग करने को मजबूर किया जाता रहा है। ऐसा होने पर चुनाव आयोग की नजर में तो चुनाव शांतिपूर्ण हुआ, लेकिन लोकतंत्र की तो हत्या हो गई। इसके बावजूद दिल्ली में बैठे लोगों को लगता है कि चुनाव तो शांतिपूर्ण हुए यानी बहुत अच्छे से हुए।

कई राज्यों में यह प्रवृत्ति बेहद आम है कि प्रत्याशी धनबल और बाहुबल के दम पर वोटों की खरीद-फरोख्त करते हैं। कई पेशेवर संगठन भी इस काम में उन्हें मदद देते हैं। जिन संगठनों के साथ इस तरह के सौदे होते हैं वे पहले तो बहिष्कार की बात करते हैं। फिर सौदे के तहत वोटों को लेकर आपसी समझौता होता है। यही संगठन मतदान केंद्रों पर कब्जा जमाकर प्रत्याशियों से प्राप्त रकम के मुताबिक उन्हें वोट दिलाते हैं। इन बातों की जानकारी दिल्ली में बैठे लोगों को नहीं मिलती है और वे मान लेते हैं कि चुनाव बहुत अच्छा और निष्पक्ष हुआ। पर सही मायने में तो इस तरह के चुनाव को लोकतांत्रिक अधिकारों के दमन का जरिया ही माना जा सकता है।

कहा जा सकता है कि जहां ऐसा हो रहा है वहां की जनता अक्षम प्रशासन की जकड़न में है, या फिर वहां की जनता पर अराजकतावादी समूहों की जकड़न है। इसमें एक बात जो साफ तौर पर महसूस होती है कि अक्षम प्रशासन और अराजकतावादी समूहों के बीच अलिखित समझौता है, जो लोकतंत्र की जड़ें खोद रहा है। चुनाव आयोग इससे गाफिल होकर चुनाव की सफलता का दावा करे तो उसे कैसे स्वीकार किया जा सकता है।

वर्तमान चुनावी प्रणाली के आधार पर जो सरकारें बनती हैं, वे इन विकृतियों को दूर करने की बजाए इन्हें और मजबूत करती हैं। चूंकि सभी प्रमुख राजनीतिक दल चुनाव प्रणाली के इस दोष से कहीं न कहीं लाभान्वित होते हैं, इसलिए इसके खिलाफ आवाज उठाने में उन्हें कोई विशेष रूचि नहीं है। यह काम तो उन जनसंगठनों को ही करना पड़ेगा जो चुनावी राजनीति के तात्कालिक नफे-नुकसान की चिंता किए बिना जनअभिव्यक्ति को सटीक और सार्थक बनाना चाहते हैं।

चुनाव सुधार की बात करते हुए सबसे पहले तो हमें इलैक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन से होने वाले कदाचार की संभावनाओं को समाप्त करने की मांग करनी चाहिए। जैसा कि हम सब जानते हैं कि हर विधानसभा क्षेत्र में कुछ अतिरिक्त वोटिंग मशीन रखी जाती हैं, उनके उपयोग-दुरुपयोग के बारे में भी सोचा जाना चाहिए। कुछ ऐसे मामलों की जानकारी मिली है, जहां इन इलैक्ट्रोनिक मशीनों का दुरुपयोग हुआ है। संबंधित सरकारी अधिकारियों को मिलाकर एक खास उम्मीदवार के पक्ष में इन मशीनों से मतदान करवाने की बात भी अनुभव में आई है। ऐसा बेहद आम नहीं है लेकिन जहां भी ऐसा होता है उसे सही नहीं कहा जा सकता है। ऐसा होना एक तरह से चुनाव के महत्व का अवमूल्यन है।

चुनाव सुधार की दिशा में जब हम सोचते हैं तो हमें एक बिंदु पर आकर आपसी सहमति बना लेनी चाहिए कि चुनाव में कदाचार को राष्ट्रद्रोह के समकक्ष अपराध माना जाए। अगर ऐसा हो जाए तो कदाचार पर काफी हद तक लगाम लगायी जा सकती है। इसके अलावा चुनाव आयोग को अधिकार संपन्न बनाते हुए कुछ निश्चित कानून के तहत उम्मीदवारी और दलों की मान्यता खारिज करने का अधिकार प्रदान किया जाए। ऐसा होने पर सियासी दलों के अंदर एक तरह का वैधानिक भय पैदा होगा, जिसकी वजह से वे अपना व्यवहार मर्यादित रख सकेंगे।

चुनाव में निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए प्रांत के स्तर के अधिकारी उसी प्रांत में नहीं लगाए जाएं। ऐसा होने पर धांधली की संभावना पर एक हद तक विराम लगाया जा सकता है। यह काम व्यावहारिक तौर पर भी असंभव नहीं लगता। इसलिए चुनाव को अच्छी तरह से संपन्न कराने के लिए यह प्रयोग तो किया ही जाना चाहिए।

चुनाव सुधार की जरूरत इसलिए भी महसूस होती है कि हाल के अनुभवो से इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि लोकतंत्र अब निगमतंत्र में बदल कर रह गया है। इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण विश्वास मत प्राप्त करने के दौरान बीते 22 जुलाई लोकतांत्रिक आस्था के केंद्र संसद में देखने को मिला। सारी दुनिया ने उस शर्मनाक घटना को देखा कि सरकार बचाने के लिए; विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दंभ भरने वाले देश में सांसदों को खरीदने की कोशिश हुयी। इस घटना से कई गंभीर संकेत उभरकर सामने आए हैं। पहली बात तो यह कि जो वोट के बदले नोट नहीं चाहते थे उन्होंने तो सबके सामने यह पोल खोल दी, पर यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि जब इतने बड़े स्तर पर नोट से वोट और वोट से नोट का खेल चल रहा हो तो अंदर ही अंदर कई लोगों ने इस खेल में हिस्सा लिया होगा और अपना स्वार्थ साधा होगा। इस बात की पुष्टि उस वक्त भी हो गई थी जब कई सांसदों ने विश्वास मत के दौरान पाला बदलकर मतदान किया था और कई तो मतदान से गायब ही हो गए थे। यह लोकतंत्र के निगमीकरण का सार्वजनिक प्रदर्शन था।

इससे पहले भी संसद सदस्यों के चरित्र से देश उस वक्त परिचित हुआ था जब 2005 के आखिरी दिनों में एक स्टिंग ऑपरेशन के जरिए यह बात उजागर की गई थी कि कुछ सांसदों ने सदन में सवाल उठाने के लिए पैसे लिए थे। इस स्टिंग ऑपरेशन के जरिए तो उन्हीं का चेहरा सामने आया जो कैमरे की जद में आ गए। सदन ने उन्हें गुनाहगार मानते हुए सजा भी दे दी, जो स्वाभाविक ही था। पर इससे एक प्रवृत्ति की झलक मिलती है। वो यह कि पैसा लेकर संसद में सवाल पूछने की कुप्रथा चल पड़ी है। खुद को जनप्रतिनिधि कहने वालों के लिए यह बेहद शर्मनाक है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर हमारी चुनाव प्रणाली में कहां खोट है जिसकी वजह से ओछे लोग इस व्यवस्था का संचालन करने के लिए निर्वाचित हो जा रहे हैं।

बहरहाल, इन अनुभवों से जो बात निकलकर सामने आ रही है वो यह है कि बडे दलों और गठबंधनों को निगमों ने निगल लिया है। निगमतंत्र के भारतीय राजनीति पर बढ़ते प्रभाव के लिए कुछ घटनाओं का उल्लेख करना आवश्यक है। कुछ साल पहले देश के बडे उद्योगपति ने अपने एक चहेते को ऊर्जा मंत्रालय दिए जाने की मांग की थी। ऐसा उन्होंने इसलिए कहा था कि उनके मनमाफिक मंत्री बनने के बाद उनके व्यावसायिक हितों को साधना आसान हो जाता। गुजरात सरकार में उद्योगपतियों को जबर्दस्त तरीके से प्रोत्साहन दिया गया। यहां तो बडे प्रोजेक्टस और इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास की आड़ में थैलीशाहों को लाभ पहुंचाया जा रहा है। कर्नाटक में तो हद ही हो गई। बताया जा रहा है कि पिछले विधानसभा चुनाव में वहां के हर विधानसभा क्षेत्र में कार, मोटरसाइकल, रंगीन टीवी समेत नकद रुपए भी बांटे गए।

आज सत्ताधारी दलों में चुनावों के दौरान जमकर सरकारी धन के दुरुपयोग करने की प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है। सरकारी विज्ञापन होर्डिंग्स और अन्य तरीके से सत्तारूढ़ दल अधिसूचना जारी होने से पहले तक सरकारी खर्च पर अपना विज्ञापन करता है। ज्यादातर सरकारें बजट का एक बड़ा हिस्सा सरकारी विज्ञापन पर ही खर्च करती हैं। चुनाव के दौरान जो विज्ञापन दिए जाते हैं, वे काफी महंगे होते हैं लेकिन चुनाव आयोग को कम खर्च का फर्जी बिल बनाकर थमा दिया जाता है और शक्तिहीन चुनाव आयोग के पास ऐसे सियासी दलों के खिलाफ आवश्यक कदम उठाने का कोई अधिकार ही नहीं होता। उत्तर प्रदेश के एक बड़े नेता की एक सभा में पांच सौ के नोट सरेआम बांटे गए, लेकिन ना ही उनके खिलाफ और ना ही उनकी पार्टी के खिलाफ कोई कदम उठाया जा सका।

चुनाव के दौरान सत्तारूढ़ दल द्वारा पूरे चुनाव को कई तरह से प्रभावित किया जाता है। सत्ता में बैठे लोग अपनी सुविधा के मुताबिक पक्षपातपूर्ण तरीके से रिटर्निंग अफसरों की नियुक्ति करते हैं। ऐसे में इन अफसरों के लिए अपने कार्य को निष्पक्षता से अंजाम दे पाना बेहद मुश्किल हो जाता है। सत्तारूढ़ दल हर कीमत पर चुनाव में अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए अपराधियों को इस मौके पर जेल से छुड़वाने और उन्हें जिलाबदर नहीं करवाने में अहम भूमिका निभाते हैं। सत्तारूढ़ दल के इशारे पर शराब बांटना, थाना कार्रवाई नहीं करना, विपक्षी कार्यकर्ताओं को झूठे मुकदमे बनाकर उन्हें जेल में डालना और उनके पुराने मुकदमे खोलना जैसी प्रवृत्तियां काफी तेजी से बढ़ रही हैं।

चुनाव सुधार की बात जब हम करते हैं तो सबसे पहले चुनाव प्रक्रिया में व्यापक सुधार की बात उठानी होगी। इसमें पहली बात तो यह है कि बूथ के हिसाब से वोटों की गिनती नहीं हो। क्योंकि ऐसा अनुभव आया है कि कई स्थानों पर दबंग प्रत्याशी और उनके गुर्गे गांव के लोगों को यह कहकर डराते-धमकाते हैं कि गिनती के दौरान हमें पता चल जाएगा कि इस बूथ से कितना वोट मिला है और अगर हमें वोट नहीं दिया तो इसका अंजाम ठीक नहीं होगा। इसका परिणाम यह होता है कि इन गुंडों से दुश्मनी मोल नहीं लेने की इच्छा से लोग डरकर, न चाहते हुए भी उनके पसंदीदा प्रत्याशी को वोट देने के लिए मजबूर हो जाते हैं।

चुनाव व्यवस्था को चाक-चौबंद करने के लिए कुछ नए तरीके भी अपनाए जाने चाहिए। चुनाव व्यवस्था में लोगों का भरोसा कायम रखने के लिए मोबाइल बूथ की भी व्यवस्था होनी चाहिए। पोस्टर से लेकर पूरे विज्ञापन अभियान का खर्च ठीक से तय हो। ताकि मुकाबला संसाधनों के बीच न होकर मुद्दों और मूल्यों के बीच हो। चुनाव सुधार के जरिए धन के अपव्यय पर तो हर हाल में लगाम लगनी ही चाहिए।

चुनाव आयोग द्वारा पुराने और बड़े दलों तथा उनके प्रत्याशियों को अतिरिक्त महत्व दिया जाता है। यह भेदभाव बंद होना चाहिए। उदाहरण के लिए टीवी और दूसरे प्रचार साधनों पर चुनाव प्रचार के लिए बड़े दल के प्रत्याशी को अधिक समय दिया जाता है जबकि छोटे दल के प्रत्याशी को अपेक्षाकृत कम समय मिलता है। इसके अलावा यह भेदभाव और भी कई स्तर पर है। चुनाव चिन्ह के आवंटन में भी नई पार्टियों को भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। चुनाव संचालन की योजना बनाते समय ही बड़े दल के प्रत्याशियों को तो आयोग विचार-विमर्श के लिए बुलाता है, जबकि छोटे दल या निर्दलीय प्रत्याशियों को इन मामलों से आयोग दूर ही रखता है।

चुनाव से पहले के सर्वेक्षणों पर लगाई गई रोक का स्वागत किया जाना चाहिए। चुनाव सर्वेक्षण के जरिए अपने उल्लू सीधा करने की कोशिश संबंधित पक्ष करते हैं और मतदाता चुनाव परिणाम आने के बाद खुद को ठगा हुआ महसूस करता है। वैसी हालत में लोगों के पास पांच साल तक मन मसोसकर बैठे रहने और यथास्थितिवादी मानसिकता में ढल जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता है।

चुनाव के दौरान यह अनुभव भी सामने आया है कि चुनाव चिन्ह को लेकर भी कई स्थानों पर गफलत पैदा हो जाती है। ऐसे में मतदाता अपना मत देना किसी और को चाहता है लेकिन भ्रम की स्थिति बन जाने या बना देने के कारण वोट किसी और को दे देता है। चुनाव के बाद जब उसका यह भ्रम टूटता है तब तक काफी देर हो जाती है। ऐसे हालात पैदा नहीं हो पाएं इसके लिए यह जरूरी है कि चुनाव चिन्ह पहले से ही आवंटित हो जाएं।

चुनाव के दौरान बोगस वोटिंग की घटना भी आम तौर पर हर जगह चलन में है। कई स्थानों पर तो प्रत्याशी बड़े ही सुनियोजित तरीके से इस कार्य को अंजाम देते हैं। चुनाव आयोग को यह अधिकार मिलना चाहिए कि बोगस वोटिंग करवाने में संलिप्त प्रत्याशी को अयोग्य करार देते हुए उसके चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध लगा दिया जाए। चुनाव लड़ने वालों के लिए घोषणा पत्र बंधनकारी होना चाहिए। साथ ही आयोग यह सुनिश्चित करे कि अगर कोई उम्मीदवार अपने घोषणापत्र में गलत जानकारी दे तो उसे चुनाव लड़ने से रोक दिया जाए।

चुनाव सुधार के तहत ही यह भी सुनिश्चित किया जाए कि अपराधी चुनाव नहीं लड़ सकें। बीते कुछ सालों से राजनीति का अपराधीकरण काफी तेजी से बढ़ा है। इस वजह से सही सोच और समझ के साथ काम करने की क्षमता से लैस सज्जनशक्ति राजनीति से दूर होती जा रही है। इसे रोकना इसलिए भी जरूरी है कि सज्जनशक्ति के राजनीति में नहीं होने की वजह से राजनीति के अमीरपरस्त और विदेशपरस्त होने की गति निरंतर बढ़ती ही जाएगी।

चुनाव के दौरान ही कई स्थानों के लोगों ने बताया कि उनके यहां जो ईवीएम लगाई गई वह अंधेरे में रखी गई और इस वजह से उन्हें चुनाव चिन्ह पहचानने में दिक्कत आई और मतदान करने में परेशानी उठानी पड़ी। हर स्थान पर ऐसा हुआ हो, यह संभव नहीं है। पर कुछ जगहों पर भी ऐसा क्यों हो। ऐसे हालात पैदा नहीं हो इसके लिए एक काम यह किया जा सकता है कि मतदान के लिए लगाया जाने वाला ईवीएम स्वंयप्रकाशित हो। इससे चुनाव चिन्ह पहचानने में किसी को कोई परेशानी नहीं होगी और चुनाव चिन्ह के घालमेल की शिकायत भी दूर हो जाएगी।

चुनाव के बाद या उस दौरान जो विवाद उत्पन्न हो जाते हैं, उनके न्यायिक निपटान की बेहतर व्यवस्था होनी चाहिए। ऐसे सभी मामलों को छह माह के अंदर हर हाल में निपटाना जरूरी होना चाहिए। तभी चुनाव की प्रक्रिया सही मायने में निष्पक्ष और जन अपेक्षाओं के अनुरूप हो पाएगी। मतदाता रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया में व्याप्त खामियों को भी दूर किए जाने की जरूरत है। इसमें कई तरह से फर्जीवाड़ा हो रहा है। हद तो तब हो जाती है जब मतदाता पहचान पत्र बनने के बाद उसे कूड़े के ढेर में पाया जाता है। ऐसा इसलिए किया जाता है कि दुबारा पहचान पत्र बनाने के लिए फिर पैसा वसूला जा सके। गुम हुए मतदाता पहचान पत्रों के दुरुपयोग का खतरा भी बना रहता है। उस पहचान पत्र का इस्तेमाल करके मोबाइल कनेक्शन ले लिए जाते हैं और उस फोन का दुरुपयोग होने पर जिसके नाम का वह पहचान पत्र होता है उसे पकड़ा जाता है। मतदाता पहचान पत्र बनाने के लिए जिन दस्तावेजों की जरूरत होती है, वो भी फर्जी तरीके से बनाए जा रहे हैं। राशन कार्ड, आवास प्रमाण पत्र जैसे कागज तो हर जिले में एक निश्चित रकम लेकर बनाए जा रहे हैं। हर जिले में राजपत्रित अधिकारियों के फर्जी मुहर बनाकर किसी भी कागज को अटेस्ट करने की कुप्रथा चल पड़ी है। बदहाली का आलम तो यह है कि मतदाता सूची में थोक में नाम जोड़े और घटाए जाते हैं। यह कार्य किसी खास पक्ष को फायदा पहुंचाने के मकसद से किया जाता है।

चुनाव सुधार की बात करते हुए हमें इस बात का भी खयाल रखना होगा कि फर्जी राजनीतिक दलों की मान्यता रद्द की जाए। अभी चार सौ से ज्यादा राजनैतिक दल ऐसे हैं जो चुनाव ही नहीं लड़ते। चुनाव लड़ने वाले दलों में से भी कई ऐसे हैं जो अन्य कारणों से चुनाव लड़ते हैं। इनका मकसद खुद को और किसी खास पक्ष को लाभ पहुंचाना होता है। आज जरूरत इस बात की है कि दलों की मान्यता के पैमाने पर फिर से विचार किया जाए। साथ ही दलों की आर्थिक व्यवस्था की निगरानी के लिए भी बेहतर बंदोबस्त किया जाए।

हाल ही में चुनाव आयोग में जो विवाद पैदा हुआ उसने भी आयोग की निष्पक्षता पर सवाल खड़ा किया है। इस विवाद में यह बात तो प्रमाणित हो गई कि नवीन चावला ने अपनी संस्था के लिए विधायकों और सांसदों की विकास निधि से पैसा लिया। ऐसा सामने आ जाने पर इतना तो तय हो जाना चाहिए था कि उन्हें मुख्य चुनाव आयुक्त नहीं बनाया जाए। पर सियासी लाभ लेने की चाह में ऐसा नहीं किया गया। जब चुनाव आयोग को अधिकार संपन्न बनाने की बात चलती है तो इसके साथ-साथ यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि आयोग से सेवानिवृत होने पर चुनाव आयुक्त कोई राजनीतिक पद नहीं ग्रहण कर सकें या किसी राजनीतिक दल के प्रत्याशी के तौर पर चुनाव नहीं लड़ सकें।

चुनाव सुधार एक ऐसा मुद्दा है जिसे देशहित में काम करने वाले सभी व्यक्तियों और संगठनों को मिलकर उठाना चाहिए। बेहतर चुनाव प्रणाली का सीधा सा अर्थ है एक बेहतर लोकतांत्रिक प्रणाली और एक ऐसी सरकार की स्थापना जो जनता के करीब होगी और उसके लिए ईमानदारी से काम करेगी।

1 COMMENT

  1. चुनाव सुधार मे सबसे महत्वपुर्ण कदम यह होना चाहिए की जब तक कोई प्रत्याशी 51 प्रतिशत मत न प्राप्त करे तब तक उसे निर्वाचित घोषित न किया जाए. 51% मत न प्राप्त होने की स्थिती मे प्रथम एवम दुसरे स्थान पर मत प्राप्त करने वाले प्र्त्याशीयो के बीच फिर से चुनाव प्रकृया चलाई जानी चाहिए.

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