ट्रिपल तलाक पर महिलाओं की पहली जीत

डॉ. निवेदिता शर्मा

सर्वोच्च न्यायालय ने की बेंच ने जिस तरह से बहुमत के आधार पर ट्रिपल तलाक पर ऐतिहासिक फैसला सुनाया है, उससे यह साफ हो गया है कि भारतीय संविधान किसी भी धर्म से ऊपर, लिंग से ऊपर व्‍यक्‍ति की संवेदनाओं को महत्‍व देता है। संविधान में हम पढ़ते आए हैं कि सभी धर्म, जाति, संप्रदाय, लिंग, रं ग, भेषभूषा और भाषा के स्‍तर पर हर भारतीय को समानता का अधिकार है लेकिन फिर भी कहीं न कहीं भारत में कुछ कट्टर पंथि‍यों के कारण आधी आबादी किसी न किसी रूप में अपमान का दंश निरंतर झेल रही है। कई बार समान आचार संहिता का भी स्‍वर सुनाई देता है, जिससे यह आशा की किरण अवश्‍य जागती है कि अब इन अत्‍याचारों की समाप्‍ति हो जाएगी।

भारत के एतिहासिक परिदृष्‍य को यदि हम देखें तो भारतीय समाज में कई प्रकार की कुप्रथाएं आईं लेकिन समाज सुधारकों द्वारा बिना किसी कानून को बनाए इन कुरूतियों को दूर करने का प्रयास किया गया । सती प्रथा, बहुविवाह, दासी प्रथा, बाल विवाह, विधवा विवाह, नारी शिक्षा अन्‍य ऐसे महिलाओं से संबंधित मुद्दों के लिए राजा राममोहन राय , दयानन्‍द सरस्‍वती, ज्‍योतिबा फुले, स्‍वामी विवेकानन्‍द, महात्‍मा गांधी जैसे महापुरुषों ने आन्‍दोलन एवं जनजागरण प्रारंभ किए । किसी भी महिला ने इनकी अगुवाई नहीं की, फिर भी उसका यह परिणाम देखने को मिला कि भारतीय समाज से ये कुरुतियां समाप्‍त हो गईं। इन प्रयासों को स्‍थ‍िरता प्रदान करने के लिए हिन्‍दू मेरिज एक्‍ट, विधवा विवाह पर रोक, संपत्‍त‍ि में स्‍त्री को समानता का अधिकार जैसे कई कानून समय-समय पर बनाए गए परन्‍तु यह सभी कानून केवल उन महिलाओं तक सीमित थे जो इस भारत की जड़ों से उत्‍पन्‍न धर्म और संप्रदायों को माननेवाली थीं। लेकिन एक वर्ग अपने को भारतीय बाद में धार्मिक पहले मानता है इसलिए उस धर्म की कुरूतियां जस की तस बनी हुई हैं। जैसे बुरका प्रथा, मेहर की अदायिगी, हलाला, खतना, तीन तलाक, बहुविवाह आदि । इससे हो यह रहा है कि आज भी वैश्‍विक पटल पर भारतीय महिलाओं की स्‍थ‍िति हमेशा खराब ही दिखाई देती है। इस्‍लाम पर हिन्‍दू एक्‍ट लागू नहीं होता, मुस्‍लिम महिलाओं को कहीं न कहीं ये बात कचोटती है कि हमें यह अधिकार कब मिलेंगे? देर से ही सही मुस्‍लिम महिलाओं ने इस दिशा में एकजुट होकर आवाज तो उठाई, जिसे केंद्र की मोदी सरकार का समर्थन भी मिला है।

यह भी गौर करनेवाली बात है कि उत्‍तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव द्वारा यह सिद्ध हो गया कि केवल मुस्‍लिम पुरुष ही वोट बैंक नहीं हैं, अल्‍पसंख्‍यक महिलाएं भी उस वोट का आधा हिस्‍सा हैं जो पुरुषों से अपने अलग विचार रख सकती हैं। मोदी सरकार ने ट्रिपल तलाक को कोर्ट में पहुंचाकर मुस्‍लिम महिलाओं में यह सोच स्‍थापित कर दी है कि वह भी अपनी आजादी की लड़ाई लड़ सकती हैं। आजादी के बाद से अब तक पिछले 70 सालों में सबसे अधिक समय तक सरकार चलानेवाली कांग्रेस पार्टी जिसने भारत के प्रधानमंत्री पद पर महिला को सुशोभित किया, जिसने पहली महिला राष्‍ट्रपति बनाई, जिसकी पार्टी की राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष आज महिला हैं, उस कांग्रेस का दुखद पक्ष यह है कि उस पार्टी ने भी महिलाओं के इतने संवेदनशील मुद्दे को अब तक महत्‍व नहीं दिया था । जबकि एक तरफ हिंदू कोड बिल में काफी सुधार किए गए और उस समाज ने भी उन्‍हें सहज स्‍वीकार किया वहीं दूसरी तरफ एक वर्ग को तुष्‍टीकरण की राजनीति का शिकार बनाते हुए उसकी कुप्रथाओं को कभी कांग्रेस ने छुआ तक नहीं।

शायरा बानो ने सुप्रीम कोर्ट में तीन तलाक, बहुविवाह और हलाला के मुद्दे को चुनौती दी थी, लेकिन उच्‍चतम न्‍यायालय ने प्रारंभ में ही यह साफ कर दिया कि वह समय की कमी के कारण अभी फिलहाल तीन तलाक पर ही विचार करेगी, भविष्‍य में वह हलाला एवं बहुविवाह के मुद्दे परसुनवाई करेगी। कोर्ट का यह फैसला एक जहरीले पेड़ की जड़ों में मठा डालने जैसा कार्य करेगा यह निश्‍चित है, क्‍योकि तीन तलाक से बहुविवाह और हलाला जैसी कुप्रथाओं को तो बल मिलता ही है साथ ही साथ विकृत मानसिकता वाले उन पुरुषों को भी बल मिलता है जो अपनी पत्‍नि को अर्धांगिनी न समझकर केवल सम्‍पत्ति या उपभोग की वस्‍तु समझते हैं।

मुस्‍लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का यह कहना कि बीबी को मौत के घाट उतारने से अच्‍छा उसे तलाक देना है। यह कहां तक उचि‍त ठहराया जा सकता है ? इससे ऐसा प्रतीत होता है जैसे किसी शत्रु को एक बार मारने से अच्‍छा है तिल तिल कर तड़पाकर मारा जाए। तलाक के बाद में महिलाओं को जो यातनाएं और कष्‍ट झेलने पड़ते हैं उसको इस्‍लाम धर्म के ठेकेदार नहीं महसूस कर सकते। 1951 में भी बम्‍बे हाईकोर्ट ने नारसू अप्‍पा माली बनाम बाम्‍बे मामले में कहा था कि मुस्‍लिम पर्सनल लॉ संविधान के अनुच्‍छेद 13 के तहत कोई कानून नहीं है, ना ही उसे यह अधिकार है कि वह सर्वोच्‍च न्‍यायालय के किसी निर्णय की समीक्षा करे। ऐसे में तीन तलाक के मु्द्दे पर सर्वोच्‍च न्‍यायालय का आया यह फैसला बहुत ही प्रासंगिक और बुनियादी अधिकारों के खिलाफ मुस्‍लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के निर्णयों में अदालती हस्‍तक्षेप को मजबूती प्रदान करता है। इस निर्णय ने राजनीतिक रूप से भारत के समान आचार संहिता की ओर जाने के‍ लिए पृष्‍ठभूमि तैयार कर दी है।

यह ध्‍यान देने योग्‍य है कि आज जब विश्‍व में महिलाओं की स्‍थ‍िति का अध्‍ययन किया जाता है तो हम अपने को बहुत नीचे खड़ा हुआ पाते हैं। भारत वह पहला देश है जिसमें संविधान का निर्माण करते समय वह सभी अधिकार महिलाओं को दिए गए जो पुरुषों को प्राप्‍त थे। इसके उलट मतदान का अधिकार यूरोपियन महिलाओं को बहुत बाद में बड़े ही संघर्ष के बाद मिला था, जबकि यहां तो  भारतीय महिलाओं को संविधान निर्माण के साथ ही यह अधिकार दे दिया गया। इतनी विकसित मानसिकता के बाद भी क्‍या कारण है कि महिलाओं की स्‍थ‍िति भारत में आज भी दयनीय बनी हुई है ? अब इस बात की आवश्‍यकता है‍ कि महिलाओं की स्‍थ‍िति का अध्‍ययन करते समय उसकी धार्म‍िक पद्धति पर भी विशेष ध्‍यान दिया जाए जिससे कमी कहां है, किस वर्ग में है, उसको ढूंढ़कर सुधारा जा सके। सभी महिलाओं को एक ही कटघरे में खड़ा करना ठीक नहीं है।

उच्‍चतम न्‍यायालय का आया मुस्‍लिम महिलाओं के हक का यह फैसला इस ओर भी इशारा कर रहा है कि भारत का जब अपना एक संविधान उसके अनुसार उसके निर्धारित किए गए नियम ओर एक प्रधान है तो आगे किसी भी तरह के अलग दो कानून स्वीकार्य नहीं हैं। जब दुनिया के किसी भी मुस्लिम देश में दो तरह के कानून नहीं हैं, तलाक को जब विश्‍व में कट्टरता के प्रतीक बन चुके पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित 22 मुस्लिम देशों ने पूरी तरह से  खत्म कर दिया है, फिर वह क्‍यों उसे भारत जैसे सहिष्‍णु देश में बना रहना चाहिए? आज का सर्वोच्च न्यायालय का फैसला ऐतिहासिक है, इससे देश की नौ करोड़ मुस्लिम महिलाओं को सीधा लाभ मिलेगा। सीधे तौर पर और अप्रत्‍यक्ष रूप से उनके ऊपर होनेवाले अत्‍याचारों में कमी आएगी।

 

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