भाषाई मिलावट के दौर में हिंदी का भविष्य

 अखिलेश आर्येन्दु

देश की राजभाषा हिंदी के भविष्य को लेकर यूं तो सालों से चर्चाओं का दौर चलता रहा है लेकिन जब से हिंदी में मिलावट कर उसे हिंग्रेजी या हिंगलिश बनाने का दौर शुरू हुआ है तब से हिंदी के भविष्य पर बहुत ही गम्भीर सवाल उठाए जाने लगे हैं। सवाल उठाया जाना वाजिब है कि नहीं, यह तो बाद की बात है। सवाल यह है कि ऐसे में जब दुनिया की तमाम भाषाएं अपने अस्तित्त्व के लिए जूझ रहीं हैं तो क्या हिंदी का वजूद सुरक्षित रह पाएगा? हिंदी में मिलावट का दौर यूं तो आजादी के बाद से ही थोड़ा बहुत शुरू हो गया था। संसद में इसको लेकर बहस-मुबाहिंसे चलतीं रहीं हैं। गांधी जी जिस हिंदुस्तानी को वरीयता देते थे उस हिंदी को हिंदी कहा जाए या साहित्य में इस्तेमाल होने वाली हिंदी को मानक भाषा का दर्जा दिया जाए या आम आदमी जो कई भाषाओं के मिले-जुले शब्दों के इस्तेमाल कर बोली जाने वाली हिंदी को हिंदी माना जाए?

आजादी के 64 साल बीत जाने पर आज भी इन तीनों तरह के हिंदी प्रयोगों को लेकर बहस जारी है, लेकिन इस पर कोई एक मत नहीं हो सका है। कुछ लोग आम लोगों के जरिए हिंदी बोली जाती है उसे ही जीवंत हिंदी कहकर उसे ही हर जगह अपनाने पर जोर देते हैं। अपने तर्क में इस मिलावटी हिंदी को संवाद वाली हिंदी कहते हैं। और तर्क देते हैं कि ऐसी हिंदी ही जिंदी रह सकती है जो आम आदमी के जरिए रोजाना बोली जाती हो। किताबों में बंद भाषा या दफ्तरों में इस्तेमाल की जाने वाली हिंदी को भला जनभाषा कैसे कहा जा सकता है? देखा जाए तो बात कुछ हद तक तर्कसंगत भी लगती है । लेकिन सवाल यह है कि आम आदमी क्या वाकई में हिंदी का इस्तेमाल करता है? क्या हिंदी का जो चरित्र और व्याकरण है, उसे दफनाकर महज सरलीकरण के नाम पर अंग्रेजी मिश्रित हिंदी, जिसे हिंग्रेजी या हिंगलिश कहा जाता है, उसे हिंदी के रूप में अपना लिया जाए? ऐसी हिंदी क्या हिंदी कहलाने के काबिल है? क्या इस हिंदी से हिंदी का भविष्य सुरक्षित रह सकता है? और क्या हिंदी की जीवंतता की दुहाई देने वाले लोग दावे से कह सकते हैं कि भविष्य में अंग्रेजी शब्दों के घनघोर इस्तेमाल से भी हिंदी का वजूद बचा रह सकता है?

पिछले महीने हिंदी के हिंग्रेजीकरण रूप को गृह मंत्रालय ने अपने विभाग में काम करने के लिए मंजूरी प्रदान कर दी। लेकिन इसे लेकर किसी व्यक्ति या हिंदी रक्षक संगठन ने हाय-तोबा नहीं मचाया। यानी लोगों के लिए हिंदी का हिंगलिश रूप सरकारी दफ्तरों में चलते रहने से हिंदी की अस्मिता पर कोई चोट नहीं पहुंचती है। इससे उन लोगों के मन की मूराद पूरी हो गई जो अरसे से हिंदी के हिंग्रेजीकरण को वाजिब बता रहे थे, और इसे ही मानक हिंदी रूप में अपनाने पर जोर दे रहे थे। हमारे मीडिया के कुछ मित्र और वरिश्ठ हिंदी महामना पत्रकार भाई भी इस कदम से बहुत खुश दिखाई पड़ रहे थे। वे हिंग्रेजी को ही भविष्य की हिंदी के रूप में देखते हैं। जिस तरह से हिंदी का हिंग्रेजीकरण हो रहा है उनका सोचना कोई गलत भी नहीं है। यदि हिंदी का इसी तरह ही हिंग्रेजीकरण बढ़ता रहा तो हिंदी अपना मौजूदा स्वरूप खोकर हिंग्रेजी का ही रूप ग्रहण कर लेगी। और यह भी संभव है कि आने वाले वक्त में हिंदी की जगह हिंग्रेजी भाषा ही देश की राज या राष्ट्रभाषा के रूप में गौरव और सम्मान पाए।

जिस तरह से दुनिया की तमाम भाषाएं अपना वजूद खो रहीं हैं उसमें हिंदी भी यदि आने वाले पचास वर्षों में अपना वजूद खो दे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। गौरतलब भारतेंदु युग से लेकर अब तक के हिंदी साहित्य के सफर में जितना भी साहित्य रचा गया और जो कार्य शोध के रूप में हुआ या हो रहा है उससे आम हिंदी भाषा भाषी लगभग पूरी तरह कटा हुआ है। महज विषय और पाठ के रूप में उपाधि हासिल करने के अलावा इतने विशाल साहित्य का इस्तेमाल करने वाले इनेगिने ही हैं। और आने वाले वक्त में तो जिस तरह से सूचना के नए-नए यंत्र सामने आ रहे हैं, उससे लगता है किताबों की शायद जरूरत ही खत्म हो जाए। ऐसे में साहित्य और भाषा की शुद्धता की बात करना भी वक्त को जाया करना जैसा हो सकता है ।

दरअसल अंग्रेजी की गुलामी में हमारा समाज इस कदर रस-बस गया है कि उसे हिंदी क्या अपनी संस्कृति और सभ्यता से ताल्लुक रखने वाली कोई भी चीज मनोकूल लगता ही नहीं है। हिंग्रेजी को आम आदमी की बोल-चाल की भाषा कहने वाले यह भूल जाते हैं कि यदि डॉक्टर की जगह चिकित्सक और कम्प्यूटर की जगह संगणक कहना दूरूह लगता है तो ऐसा क्यों हुआ? क्या आम आदमी शुरू से ही डॉक्टर और कम्प्यूटर बोलता था या पढ़ो-लिखो से उसने सीखा। यदि उसको सूचना के सभी माध्यमों के जरिए चिकित्सक और संगणक ही शुरू से सिखाया जाता तो उसे चिकित्सक और संगणक कहने में ही ज्यादा सरल और भावप्रद लगता। मीडिया ने हिंदी को बर्बाद किया और आज यह कहा जा रहा है कि सरकारी काम-काज की भाषा आम आदमी की भाषा नहीं है बल्कि अनुवाद की भाषा है। शुद्ध हिंदी को बोलने में जिन्हें लज्जा का एहसास होता है, वे अंग्रेजी या हिंग्रेजी को ही आम आदमी की भाषा कहते हैं। जबकि यह हमारी मानसिक दिवालियापन या गुलामी को दर्शाने वाली मिश्रित भाषा है । हिंदी को अंग्रेजी की जरूरत नहीं है, हां अंग्रेजी को हिंदी की जरूरत पड़ सकती है । क्योंकि अंग्रेजी का ना तो कोई वैज्ञानिक व्याकरण है और ना तो शब्द उत्पत्ति की इसमें कोई संस्कृत या हिंदी जैसी गुण-धर्मिता ही है। इस लिए अंग्रेजी का उदाहरण हिंदी में नहीं दिया जा सकता है कि जैसे अंग्रेजी ने तमाम भाषाओं के शब्द ग्रहणकर अपना विस्तार किया वैसे हिंदी को भी करना चाहिए। हिंदी में तो आंचलिक भाषाओं को लेकर छह लाख से ज्यादा शब्द हैं जबकि अंग्रेजी में इतनी उदारता के बावजूद महज ढाई लाख शब्द ही उगाहे जा सकें हैं। हिंदी की उत्पत्ति तो वाया मूलतः संस्कृत के जरिए हुई है । इस लिए हिंदी में नए शब्दों के सृजन की अपार संभावनाएं हैं। जरूरत है इसपर निश्पक्ष तरीके से काम करने की।

एक तर्क हिंदी के देशीकरण का भी दिया जाता है। लेकिन देशीकरण का मतलब विदेशी भाषाओं के शब्दों का खुला इस्तेमाल करने से है ना कि आंचलिक भाषाओं के शब्दों के इस्तेमाल से। उदाहरण के तौर पर अवधी भाषा का नियर का मतलब हिंदी में निकट या पास होता है और अंग्रेजी में भी नियर का मतलब निकट या पास ही होता है। लेकिन अवधी भाषा के नियर शब्द का इस्तेमाल हिंदी में ना कर हिंदी का निकट या अंग्रेजी के नियर का ही इस्तेमाल करने की हमारी आदत बन गई है। कितने लोगों को पता ही है कि नियर शब्द अंग्रेजों ने अवधी से लिया। और नियर शब्द की बात जब आए गी तो झट से कह दिया जाएगा कि नियर अंग्रेजी भाषा का शब्द है। इसी तरह ना जाने कितने हिंदी के आंचलिक भाषाओं के सरल और अर्थयुक्त शब्दों की जगह हम अंग्रेजी के शब्दों के इस्तेमाल पर ज्यादा ध्यान देते हैं । यह हमारी मानसिक दासता नही तो क्या है। यदि यही ‘चले देस में देसी भाषा’ है तो ऐसे भाषा को क्या देशी भाषा कहा जाएगा? या गुलामी की भाषा?

हमारे सामने रूस, जर्मन, फ्रांसीसी भाषाओं का उदाहरण सामने है। ये उन विकसित देशों की भाषाएं हैं जिसपर शुरू से ही सरकारी और आमआदमी ने अपने इस्तेमाल मे ठीक-ठीक इस्तेमाल किया। और विज्ञान के तमाम आविष्कारों के बावजूद इनमें दूसरी भाषाओं की मिलावट सरलीकरण के नाम पर नहीं की किया गया। जितने भी शब्दों की जरूरत संगणक के लिए या अन्य यंत्रों के लिए किया गया वे सृजित किए गए। देसी भाषा के नाम पर ना तो मिलावट को मुजूर इन देशों की सरकारों ने किया और ना तो अंग्रेजी के इस्तेमाल पर ही किसी स्तर पर जोर दिया गया। इस लिए आज इन देशों में भाषा के नाम पर ना तो कोई विबाद है और ना तो कोई समस्या ही।

एक बात यह समझने की है कि हिंदी का भविष्य हिंग्रेजीकरण में कदापि नहीं है और ना आगे हो सकता है। यदि देश के कामकाज की भाषा हिंदी ना होकर हिंग्रेजी को बनाया गया तो वह इस देश की भाषा तो कम से कम नहीं ही होगी। ऐसी भाषा को क्या कोई व्याकरण या चरित्र भी होगा? क्या इस भाषा से हम हिंदी और संस्कृत के विशाल सुजित साहित्य के मर्म को समझ पाएंगे? और इस भाषा की लिपि देवनागरी या रोमन होगा? जैसा कि तमाम तथाकथित भाषाविद् व विचारक हिंदी को देवनागरी के बजाए रोमन में लिखने की कवायद करते हैं, और इसके पक्ष में ऐसे फूहड़ तर्क देते हैं जिसे पढ़कर उनकी समझ पर तरस आता है। गांधी और लोहिया हिंदुस्तानी को स्वीकार करने की बात तो कहते थे लेकिन उसमें विदेशी भाषाओं के शब्दों मिलावट के एकदम खिलाफ थे। आज जो हिंदी के तथाकथित सरलीकरण पर जोर देते हैं उन्हें यह बात समझ में क्यों नहीं आती कि हिंदी में अंग्रेजी शब्दों के मिलावट की जगह भारत की भाषाओं के शब्दों को अपनाने से हिंदी कहीं ज्यादा मर्यादित और सुरक्षित रहेगी ना कि गुलामी की भाषा अंग्रेजी के मिलावट से। यह बात गौर करने लायक है कि हिंदी में अंग्रेजी शब्दों का मिलावट आजादी के बाद से शुरू हुआ। और भाषा के सरलीकरण और सहजता के नाम पर महज 64 वर्षों में हिंदी का स्वरूप परिवर्तित होकर हिंग्रेजी बन गया है। हिंदी को खतरा भारतीय भाषाओं से नहीं है बल्कि अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व से है। जिस तरह से अंग्रेजों छद्म तरीके से सारी दुनिया को अपना उपनिवेष बना लिया था, वहीं स्वभाव अंग्रेजी का भी। दुनिया में अंग्रेजी जहां भी गई वहां की मूल और आंचलिक भाषाएं धीरे-धीरे खत्म हो गई और आज शायद किसी को पता हो कि अमरिका में अंग्रेजी के पहले कौन-सी भाषा फूल-फल रही थी। हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित ना करने के जो तर्क केंद्र द्वारा दिए जाते रहे हैं, वे सभी अंग्रेजी की कीमत पर हैं। आज देश की सम्पर्क भाषा हिंदी नहीं बल्कि अंग्रेजी है। आजादी के इन 64 सालों में अंग्रेजी को सारे देश में फैलाने का कार्य किया गया। हिंदी को खत्म करने के लिए राजनैतिक दाव-पेंच के जरिए इसका विरोध कराया गया। यह सब एक साजिस के तहत किया गया। यह साजिस महज हिंदी को खत्म करने के लिए नहीं है बल्कि सभी उन्नतषील भारतीय भाषाओं को खत्म करने के लिए है। हिंदी के अनुवाद का रूप जनता को कम समझ में आता है लेकिन अंग्रेजी के कठिन शब्दों के जरिए हिंदी को सरल करने की बात भी एकदम समझ से परे है। हिंदी का सरलीकरण अंग्रेजी के शब्दों के जरिए किया जाना तो वैसे ही है जैसे अपनी मां के स्वभाव को दुरुस्त करने के लिए विदेश मेम को घर में लाकर बिठाना।

राजभाषा मंत्रालय ने हिंदी के सरलीकरण के नाम पर मिलावटी हिंदी को स्वीकार कर प्रचलन में लाने की स्वीकृति दे दी है। इससे वे लोग जरूर खुश हो रहे हैं जो हिंदी के हिंग्रेजीकरण के हिमायती रहे हैं। यह बात ठीक है कि हिंदी आम आदमी की भाषा बने और सारा देश इसे जाने और माने। लेकिन ऐसा सरलीकरण क्या मुफीद कहा जाएगा जिसमें महज अंग्रेजी के शब्दों या वाक्यों की भरमार हो? यह तो हिंदी को खत्म करने की साजिस ही कही जाएगी। राजभाषा मंत्रालय को ऐसी उदारता नहीं दिखाना चाहिए कि हिंदी का चरित्र और चेहरा दोनों बिगड़े। यदि सरलीकरण जैसा की तेजी सेचल रहा है, तो हिंदी को कोई बचा नहीं सकता। गौरतलब है भारतीय समाज की मानसिकता आज भी विदेशीपन पर गौरव करने का ज्यादा है। अंग्रेजी में बोलकर रुतबा जमाने या मैक्डानल रेस्टोरंट में बैठकर काफी पीना जितना गर्व का एहसास होता है उतना स्वदेशी दुकान पर बैठकर गन्ने का सरबत या मट्ठा पीना कभी नहीं लगता। यही बात हिंदी के भी साथ है। जिस हिंदी संस्कृति को संवारने और प्रतिश्ठित करने में हजारों साहित्यकारों ने अपना सारा जीवन लगा दिया, उसे हिंदी को बेकार की भाषा कहकर ठुकराया जा रहा है। इतना ही नहीं भविष्य के लिए भी ऐसी हिंदी को वह स्थान नहीं मिलने वाला है जिसका वह अधिकारिणी है। यदि आज से मीडिया हिंग्रेजी की जगह आम हिंदी को तरजीह देने लगे तो कोई वजह नहीं कि आने वाले कुछ ही वर्षों में हिंदी अपने गौरव को हासिल कर लेगी। लेकिन ऐसा सोचना महज ख्याली पुलाव तो हो सकता है, हकीकत तो तो यह है कि आने वाला वक्त हिंदी का नहीं बल्कि हिंग्रेजी का है। और यह हिंदी के सरलीकरण, तथाकथित आम आदमी की भाषा और प्रोद्यौगिकी को बढ़ाने की कीमत पर हो रहा है, जो एक संस्कृति और ज्ञानगुरु देश के लिए शर्म की बात है।

6 COMMENTS

  1. वैसे भाषा विज्ञान मेरा क्षेत्र नहीं है। पर मैं ने इस क्षेत्र की पुस्तकों को पर्याप्त पढा है।
    और मैं किसे चुनौति तो नहीं देता, पर संवाद करने के लिए उत्सुक हूं। तर्क के आधार पर जानना चाहता हूं। उन विद्वानों से जो यह मानते हैं, कि अंग्रेज़ी से शब्दों को उधार लेकर ही “हिन्दी” को आगे बढाया जा सकता है।
    मेरा ऐसा मानना नहीं है।
    मैं मानता हूं. कि भाषा में एकरूपता बहुत बडा गुण है। जो हमें विरासतमें संस्कृत के कारण प्राप्त है। जो सातत्य देता है।
    संस्कृत का शब्द रचना शास्त्र बेजोड है।आवश्यकता पडने पर हम संस्कृतकरण करके उधार ले। हिन्दीकरण भी किया जाए।
    संस्कृत से प्राकृत और अपभ्रंश भाषाएं, तत्सम और तद्भव शब्दों को आप ही आप बनाते आयी है।
    यह होता रहे।
    पर, अंग्रेज़ी खिचडी है। कोई नियम बिना की भाषा है। केल्टिक भाषा का भी जो आज विनाश हुआ है, उसका कारण अनेक शब्दों की उधारी कहा जाता है। केल्टिक भाषा आज किसीके सही समझ में नहीं आती। ऐसा, भाषाविज्ञान की देवेन्द्रनाथ शर्मा की पुस्तक भी कहती है।
    पुरानी अंग्रेज़ी ही क्या, एलिज़ाबेथ के समय की अंग्रेज़ी भी किसी के समझ में नहीं आती। {मेरी अन्य टिप्पणी भी पढें}
    और “वामन अवतार” जैसे विद्वान (?) नकल करने वाले स्व निर्णित विद्वान इस क्षेत्रमें काम कर रहें है। किसी पार्टी के कहे पर (?) प्रतीत होता है।
    किसे भी विरोधी मत के लिए मैं उकसा इस लिए रहा हूं, कि मुझे गलत प्रमाणित करें।
    ६४ वर्षों से भाषा के क्षेत्रमें क्या मज़ाक चला हुआ है। इतना बडा महत्वका कार्य जो भविष्य के लिए, और भारत की उन्नति के लिए और हमारी भाषायी परम्परा टिकाने के लिए भी मौलिक है, उसको किसी भी राजनैतिक लाभ की दृष्टिसे कैसे देखा जा सकता है?
    वेदार्थ के लिए निघंटु और निरुक्त साथ साथ ही बनाए गए; क्यों?
    कहीं पर पढा है, कि, वेद भी कहते हैं, कि, अन्न और भाषा दूषित करने वाला हमारा शत्रु ही है।
    अन्न का अर्थ है, पर्यावरण, जल, भूमि इत्यादि, और भाषा इन का दूषित होना पुनर्शुद्ध नहीं किया जा सकता।
    संवाद करने के लिए उत्सुक हूं, किसीका अनादर नहीं करना चाहता।

  2. भाई साहब, इस देश में हिन्दी-हिन्दू और हिन्दुस्तान को बर्बाद करने के लिए कई सारे गुलाम नबी फाई के चमचे सक्रीय हैं. जिसमे मीडिया/बुद्धिजीवियों का एक बहुत बड़ा वर्ग खैरात पाने में सबसे आगे है.
    अब आम जनता के सामने इनकी पोल-खोलना आप-हम जैसे राष्ट्रवादी लोगो का कार्य है. और खुशी की बात है की आप यह कर्त्तव्य बखूबी निभा रहे हैं. साधुवाद.

  3. महोदय
    अखिलेश जी का लेख आंखे खोलने वाला है.
    शब्दों का अपनालेना और पूरे वाक्य के वाक्य अंग्रेजी के प्रयोग करना दोम्नोम में कृपया अंतर समझें .
    उर्दू के शब्द इसलिए प्रयोग के जा रहे हैं की वह यहां जन्मी है और उस भाषा में भी हिन्दी की बहुतायत है .
    अब जो रोमन के जारी हिन्दी टाइपिंग हो रही है लेकिन इसे अपने तरीके से अपनी ही भाषा में लिखने की पहल नहीं हो रही बाद में यह भी स्थाई हो जाएगी वाह री दुनिया . इसे सरल बताकर आगे गरल दे रहे हैं . रास्ते और भी हैं , आये इ न मुद्दों पर गम्भीरता से सोचें
    मधुसूदन जी ने भी ठीक कहा है.
    क्षेत्रपाल शर्मा

  4. अखिलेश आर्येन्दु जी आपने प्रश्न ( सवाल नहीं) तो अच्छा उठाया पर आप भूल गए की किसी भाषा की समृद्धि में उसके द्वारा इतर या दूसरे भाषाओँ के शब्दों को आत्मसात करने की शक्ति का अपना महत्त्व है.आपने अस्तित्व के स्थान पर वजूद क्यों लिखा?प्रश्न के स्थान पर सवाल क्यों लिखा? इसी प्रकार से अनेक ऐसे शब्द आपने इस लेख में लिखे हैं ,जो उर्दू से लिए गए हैं और जिन शब्दों के लिए हिंदी में संस्कृत से लिए गए पर्यायवाची शब्द उपस्थित हैं. आपने मेरे विचारानुसार कोई गलती नहीं की,पर आपके वक्तव्य और आपके व्योहार में अंतर स्पष्ट दिखा.कारण सिर्फ यह है की ये शब्द हिंदी में इतने प्रचलित हो गए हैं की इनको प्रयोग में लाते समय इसपर आप का ध्यान ही नही गया.स्कूल ,डाक्टर और कंप्यूटर भी यद्दपि अंग्रेजी से लिए गएहैं पर वे इतने प्रचलित हो गए हैं की उनको हिंदी में उसी रूप में प्रयोग करने में कोई हानि नहीं .हिंदी द्वारा उन्हें भी आत्मसात करने में कोई बुराई नहीं. रेल और सिग्नल के बदले जिन हिंदी शब्दों का प्रयोग किया गया था ,,वे व्याकरण के दृष्टि से शुद्ध थे पर अव्यवहारिक थे अतः वे कभी भी जनता की जबान पर नहीं चढ़े.

  5. निम्न पुरानी अंग्रेज़ी का अर्थ लगाएं। क्या ऐसी भाषा को आदर्श मान कर अनुसरण किया जाए?
    The Lord’s Prayer in Old English
    Matthew 6:9-13
    Fæder ure þu þe eart on heofonum
    Si þin nama gehalgod
    to becume þin rice
    gewurþe ðin willa
    on eorðan swa swa on heofonum.
    urne gedæghwamlican hlaf syle us todæg
    and forgyf us ure gyltas
    swa swa we forgyfað urum gyltendum
    and ne gelæd þu us on costnunge
    ac alys us of yfele soþlice
    अंग्रेज़ी ने अनेक भाषाओं से उधार ले ले कर खिचडी भाषा बना डाली है।
    इसे कोई आदर्श ना समझें।
    भाषा के विकास में एकसूत्रता होनी चाहिए, जिस के आधारपर भाषा का विकास किया जा सकता है।
    भाषा को भूत और भविष्य दोनों से भी जोडना है। हम पूरखें जो कह गए, उसे भी पढना चाहते हैं। और हम जो कहेंगे वह हमारी बाद की पीढीयां भी पढ सके, यह भी चाहते हैं।
    “परम्परा” शब्द में, दो बार पर आया है। एक हम से “परे” “पर”दादा “पर”नाना और दूसरी ओर हमारे प्रपौत्र (परपौत्र)। दोनो के बीचकी कडि हम हैं।
    हम दोनो के साथ संवाद कर पाएं, यह आवश्यक है।
    इस लिए “एकसूत्रता” चाहिए।
    खिचडी अंग्रेज़ी का अनुकरण कर हम अपनी भाषा को बिगाडे क्यों ?
    आज मॅथ्यु या शेक्स्पियर आ गया तो वह आज किसी भी अंग्रेज से वार्तालाप नहीं कर पाएगा। उन्हें समझ भी नहीं पाएगा।
    पर आज कालिदास यदि आते हैं तो वे आज भी संस्कृत पण्डितों से वार्ता लाप कर पाएंगे।
    भाषाका विकास संस्कृत की एक सूत्रता से हो। उधारी लेकर नहीं।
    कितनी बडी जिम्मेदारी और हम ठहरे लल्लु पंजू।
    ऐसा ऐतिहासिक महत्वका काम?

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