उत्तराखंड का भावी परिदृश्य

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पांच राज्यों के चुनाव परिणामों से कांग्रेस का मनोबल गिरा है, जबकि भा.ज.पा. का उत्साह बढ़ा है। 2017 में जिन राज्यों में चुनाव होने हैं, उनमें उत्तराखंड भी है। वहां पिछले दिनों जो उठापटक हुई, उससे हरीश रावत को खुशी मिली है; पर अब आगे क्या होगा, यह उनके तथा कांग्रेस के लिए चिंता का कारण बना हुआ है।

उत्तराखंड में जो हुआ, उसे किसी दल की जीत या हार की बजाय न्यायालय की जीत कहना अधिक उचित है। यद्यपि तकनीकी रूप से हरीश रावत ने विश्वास मत पा लिया है; लेकिन ये भी सच है कि यदि कांग्रेस के नौ विद्रोही सदस्यों को भी वोट देने दिया जाता, तो वे हार जाते। न्यायालय के आदेश पर वे विश्वास मत की प्रक्रिया से अलग रहे। अतः हरीश रावत जीत गये। अब भले ही अगले छह माह तक उन्हें दोबारा विश्वास मत का झंझट नहीं रहेगा; पर इससे उनकी कठिनाई कम होने वाली नहीं हैं।

कुछ लोगों का मानना है कि यदि विश्वास मत पर गुप्त मतदान होता, तो सरकार गिर जाती; पर न्यायालय के आदेश पर सदन में हरीश रावत के समर्थक और विरोधी अलग-अलग खड़े हुए। इससे परिणाम वहीं प्रकट हो गया। कुछ ऐसा ही प्रकरण 1998 में उ.प्र. में भी हुआ था। राज्यपाल रोमेश भंडारी ने कल्याण सिंह को बर्खास्त कर रात में ही जगदम्बिका पाल को मुख्यमंत्री बना दिया था। फिर न्यायालय के आदेश पर सदन में गुप्त मतदान हुआ, जिसमें कल्याण सिंह विजयी रहे।

कहते हैं कि हरीश रावत से इन नौ के अलावा और भी कई कांग्रेसी विधायक नाराज थे; पर उन्होंने मुख्यमंत्री का खुला विरोध करना ठीक नहीं समझा। हवा का रुख देखकर ब.स.पा. के दो और शेष निर्दलीय विधायक भी साथ आ गये। इससे सरकार बच गयी।

कांग्रेस के इन विद्रोही विधायकों का मामला अभी न्यायालय में है। यदि वहां से निर्णय उनके पक्ष में हुआ, तो उनकी सदस्यता बहाल हो जाएगी। अर्थात वे विधानसभा में आगे की कार्यवाही में भाग ले सकेंगे। अब उन्होंने भा.ज.पा. की सदस्यता ले ली है। ऐसे में भा.ज.पा. के विधायकों की संख्या कांग्रेस से अधिक हो गयी है। अब जब भी कोई विधेयक विधानसभा में आयेगा, ये लोग उसका विरोध करेंगे। ऐसे में सरकार का क्या होगा, यह एक बड़ा प्रश्न है ?

उत्तराखंड के चुनाव में नौ महीने बाकी हैं; पर क्या हरीश रावत इतने दिन प्रतीक्षा करेंगे या उससे पहले ही चुनाव करा देंगे ? यदि नौ विद्रोही विधायकों की सदस्यता बहाल हो गयी, तो बहुमत न होने के कारण वे सरकार नहीं चला सकेंगे। और यदि उनकी सदस्यता समाप्त हो गयी, तो उनकी सीटों पर उपचुनाव कराना होगा।

इस तरह ये नौ विधायक सरकार के गले में हड्डी की तरह फंस गये हैं, जिन्हें न निगलना संभव है और न ही उगलना। समस्या दो और विधायकों के साथ भी है। भीमलाल आर्य भा.ज.पा. के टिकट पर जीते थे; पर उन्होंने व्हिप का उल्लंघन कर कांग्रेस का साथ दिया। दूसरी ओर रेखा आर्य कांग्रेस की विधायक हैं; पर उन्होंने भी व्हिप तोड़कर भा.ज.पा. का साथ दिया। इन दोनों की सदस्यता का क्या होगा, यह भी समय के गर्भ में है।

कुछ लोगों का मत है कि हरीश रावत के लिए इन नौ सीटों पर उपचुनाव कराना खतरे से खाली नहीं है। क्योंकि ये सभी जीते हुए विधायक हैं। यदि इनमें से आधे भी फिर जीत गये, तो इससे कांग्रेस के विरुद्ध वातावरण बन जाएगा और उसका दुष्परिणाम कुछ महीने बाद होने वाले पूर्ण चुनाव पर होगा। उत्तराखंड में विधानसभा सीटों का आकार बहुत छोटा होता है। लगभग एक-सवा लाख की जनसंख्या पर एक विधायक बनता है। दस-बारह हजार वोट पाने वाला व्यक्ति जीत जाता है। कांग्रेस के लिए वहां जीतने योग्य नौ नये प्रत्याशी ढूंढना भी आसान नहीं है।

लेकिन समस्या भा.ज.पा. वालों के लिए भी है। चूंकि ये सब जीते हुए विधायक हैं तथा उन्होंने दिल्ली के केन्द्रीय कार्यालय में अध्यक्ष अमित शाह के सामने भा.ज.पा. की सदस्यता ली है। यद्यपि सार्वजनिक रूप से तो यही कहा जाता है कि सदस्यता बिना शर्त है; पर चुनाव से पहले कोई नेता बिना शर्त दूसरे दल में नहीं जाता। इसलिए भा.ज.पा. को उपचुनाव में उन्हें टिकट देना ही होगा। यद्यपि इनमें से अधिकांश का स्थानीय भा.ज.पा. के लोगों से टकराव ही होता रहा है; पर यदि पार्टी ने टिकट दे दिया, तो उनके लिए काम करना कार्यकर्ताओं की मजबूरी होगी; लेकिन कितने लोग पूरे मन से काम करेंगे और कितने आधे मन से, यह कहना भी बहुत कठिन है।

यह सब देखकर अभी तो ऐसा ही लगता है हरीश रावत उपचुनाव कराने की बजाय दीवाली के बाद विधानसभा भंग कर पूर्ण चुनाव ही कराना चाहेंगे। एक निष्पक्ष विश्लेषक के नाते सोचें, तो यह ठीक भी है। उपचुनाव में अनावश्यक खर्चा और शोर होगा। जो विधायक बनेंगे भी, उन्हें चार महीने बाद फिर मैदान में उतरना होगा। इसलिए वहां पूरा चुनाव होना ही उचित है।

इस नाते भा.ज.पा. को वहां अभी से तैयारी शुरू कर देनी चाहिए। सबसे पहली बात है कि इस लड़ाई में सेनापति कौन होगा ? कांग्रेस की ओर से तो हरीश रावत हैं ही; लेकिन भा.ज.पा. के पास अब चार पूर्व मुख्यमंत्री हैं। भुवनचंद्र खंडूरी अनुभवी और योग्य हैं; पर वे अब 81 वर्ष के हो चुके हैं। मन, वचन और कर्म से खानदानी कांग्रेसी विजय बहुगुणा को आगे लाने का अर्थ अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना होगा। अब बचे भगतसिंह कोश्यारी और रमेश पोखरियाल ‘निशंक’। इनमें से किसी एक को तुरंत घोषित करना होगा। इच्छुक तो सतपाल सिंह रावत ‘महाराज’ भी हैं; पर पिछले तमाशे में ये सिद्ध हो गया कि उनके पास पैसा भले ही हो, पर रणनीति में वे अधूरे हैं।

उत्तराखंड में जाति और क्षेत्र का मुद्दा भी गरम रहता है। पहाड़ और मैदान। पहाड़ में भी ऊपरी और निचला पहाड़। मैदान में भी देहरादून और हरिद्वार के मैदान तथा ऊधमसिंह नगर की तराई। ब्राह्मण, ठाकुर और अन्य। अनुसूचित जाति और मुसलमान.. आदि। इनमें तालमेल बैठाकर ही प्रत्याशी घोषित करना होगा। इसी के साथ अभी से किसी अच्छे चुनाव प्रबंधक की सेवाएं भी लेनी होंगी।

कुल मिलाकर उत्तराखंड का भावी परिदृश्य बड़ा रोचक है। कांग्रेस इसे जीतकर अपना गम मिटाना चाहेगी, तो भा.ज.पा. इसे जीतकर उ.प्र. को एक शुभ संकेत देना चाहेगी। देवतात्मा हिमालय का आशीष किसे मिलेगा, यह समय बताएगा।

विजय कुमार

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