नए मुख्यमंत्री चेहरों की बिसात पर राजनीति का खेल

  • डॉ. ललित कुमार
    भारतीय लोकतंत्र को विश्व का सबसे बेहतर शासन और राजनीति को इसका माध्यम माना जाता है। आने वाले समय में अभी जिन राज्यों में चुनाव हैं, वहां राजनीतिक दल और उनका नेतृत्व चेहरे बदलने की प्रतिस्पर्धा में जुटे हैं। चेहरे बदलकर सत्ता चलाना कोई नया खेल नहीं है। लेकिन मतदाताओं की नाराजगी से बचने के लिए मुख्यमंत्री बदलकर चुनाव समर को पार करने की जो चाल हमेशा से चली जाती रही है। वह चाल राजनीति में कितनी सफल होगी, यह अलग शोध का विषय है। पिछले कुछ महीनों से देश की क्षेत्रीय राजनीति में जिस तरह से बदलाव के संकेत मिल रहे है। उससे यही कयास लगाए जा रहे हैं कि नए मुख्यमंत्री चेहरों की बिसात पर नाकाम राजनीति का नया प्रयोग भविष्य की राजनीति पर कितना असर डालेगा? यह तो समय बताएगा। फिलहाल बीजेपी और कांग्रेस अपनी दागदार या अंदरूनी उठापटक के बीच धूमिल होती छवि को धोना चाहती है। यही वजह है कि पार्टियों के अंदर पनपता अंदरूनी गृहक्लेश शीर्ष नेतृत्व पर सीधे प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है। राज्य सरकारों में अंदरूनी फेरबदल पिछले एक साल से जारी है। कर्नाटक, गुजरात, उत्तराखंड, पंजाब, मध्यप्रदेश, हरियाणा, त्रिपुरा, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश आदि कुछ ऐसे राज्य है, जिनमें बीजेपी की 7 राज्यों में सरकार है बाकी तीन राज्य कांग्रेस शासित प्रदेश है, लेकिन अचानक से इन राज्यों में बढता अंदरूनी मनमुटाव देश की जनता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेता है।
    उत्तराखंड में थोड़े से अंतराल में ही दो बार मुख्यमंत्री बदलने और गुजरात में पूरा मंत्रिमंडल ही बदल देने तथा पंजाब में नया मुख्यमंत्री बदल देना नाकाम राजनीति का हिस्सा है। भाजपा हो या कांग्रेस दोनों दल के आलाकमान अपनी ही राज्य सरकारों की कारगुजारियों को छिपाने में लगे हैं। इसलिए राज्य सरकारों की नाकामियां हमेशा संबंधित निवासियों पर ही भारी पड़ीं है, जिसकी भरपाई का कोई और तरीका नहीं है। कर्नाटक की येदियुरप्पा सरकार हों या उत्तराखंड की त्रिवेंद्र सरकार अथवा गुजरात की विजय सरकार या फिर पंजाब की कैप्टन अमरेंद्र सरकार, इनमें से कोई भी जबरदस्ती मुख्यमंत्री नहीं बना। बल्कि इन्हें इनके दल के हाईकमान या आलाकमान के इशारे पर ही विधायक दल का नेता चुना गया था। मुख्यमंत्री ही क्यों बल्कि मंत्रिमंडल के सदस्य से लेकर सारे निर्णय आलाकमान की सहमति पर हो लिए गए होंगे, तो फिर वहीं आलाकमान ने अपनी नाकामियों का बोझ मुख्यमंत्री के कंधों पर डालकर उन्हें चलता क्यों कर दिया? और इसका अहसास उन्हें चुनाव से पहले से ही क्यों नहीं हुआ? कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन का कारण अलग रहा, लेकिन उत्तराखंड से लेकर पंजाब तक नेतृत्व परिवर्तन के मूल में, तो अगला चुनाव जीतने का ख़्वाब हैं। अगर ये मुख्यमंत्री पार्टी के नीति-सिद्धांतों का अनुसरण करते हुए जनता के अनुसार काम नहीं कर रहे थे, तो फिर इन्हें पहले क्यों नहीं बदला गया? चार-साढ़े साल तक मूकदर्शक बना रहने वाला आलाकमान अगर ठीक चुनाव के पहले जागता है, तो यह मतदाताओं के साथ छल नहीं है तो आखिर क्या हैं? मतदाता तो दल और उसके नेतृत्व पर विश्वास करके ही जनादेश देते हैं। लेकिन सत्ता में बैठते ही पार्टी जनता को दरकिनार करके उनके साथ धोखा क्यों करती हैं?
    कोरोना वायरस के दौरान से भाजपा शासित प्रदेशों में चार मुख्यमंत्री अब तक बदले जा चुके हैं, जिनमें उत्तराखंड से दो, कर्नाटक से एक और गुजरात से एक। नए मुख्यमंत्री चेहरों के साथ अपनी नाकामी को भुला देने की कवायद अभी तक जारी है। जाहिर है इसकी शुरुआत कर्नाटक से मानी जा सकती है, जहां भाजपा ने दो साल के भीतर ही अपने शासन के जश्न के साथ ही उम्रदराज दिग्गज बी. एस. येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से हटा दिया। मध्यप्रदेश और कर्नाटक में बीजेपी खरीद-फरोख्त के बल पर सत्ता पर काबिज हुई। जबकि दोनों राज्यों की जनता ने पार्टी को सिरे से ख़ारिज कर दिया था। लेकिन गुणा गणित के बल पर बीजेपी ने फिर से सत्ता में वापसी की। जिसे देश की जनता ने अपनी आंखों के सामने होते हुए देखा कि भारतीय जनता पार्टी कैसे और किस तरह से विधायकों की खरीद फरोख्त करके सत्ता पर काबिज हुई है। जहां एक ओर गुजरात, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और त्रिपुरा में बीजेपी पूर्ण बहुमत से सत्ता में है, तो वहीं हरियाणा में वह गठबंधन सत्ताधारी दल है। दूसरी ओर राजस्थान, छत्तीसगढ़ और पंजाब में कांग्रेस पूर्ण बहुमत में है। अगर हरियाणा को छोड़ दें, तो बाकी जिन राज्यों में बीजेपी-कांग्रेस पूर्ण बहुमत से सरकार में है, वहीं पार्टी के शीर्ष नेताओं में अंतर्कलह और मुखर गुटबाजी ज्यादातर देखने को मिली है।
    उदाहरण के तौर पर अगर कर्नाटक में येदियुरप्पा सरकार को देखें, तो पार्टी के शीर्ष नेताओं ने येदियुरप्पा का सीधे तौर पर विरोध किया। जिस कारण बीजेपी ने येदियुरप्पा की छवि पर सवालिया निशान भी खड़े किये। इसलिए येदियुरप्पा को अपनी कुर्सी से हाथ धोना पड़ा और उन्हीं की सरकार में गृह एवं कानून मंत्री रहे बसावराज बोम्मई को नए चेहरे के रूप में कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनाया गया। बसावराज बोम्मई, येदियुरप्पा के बेहद करीबी और विश्वसनीय माने जाते हैं। यानी येदियुरप्पा की पसंद को ध्यान में रखते हुए बीजेपी आलाकमान ने यह कदम उठाया। पेशे से इंजीनियर बसावराज बोम्मई दो बार के एमएलसी और तीन बार शिग्गांव से विधायक एक प्रभावशाली वीराशैव-लिंगायत समुदाय से आते हैं। कर्नाटक की कुल आबादी में से लिंगायत समुदाय की हिस्सेदारी 16-17 फ़ीसदी मानी जाती है। इसलिए बीजेपी हमेशा से इस समुदाय को वोट बैंक के तौर पर देखती रही है।
    गुजरात में तो भाजपा आलाकमान ने और भी कमाल कर किया, जिसने मुख्यमंत्री विजय रुपाणी के साथ साथ पूरे मंत्रिमंडल को बदलकर रख दिया। यह भारतीय राजनीति में पहला ऐसा मौका है, जब नये मंत्रिमंडल में पिछले मंत्रिमंडल के किसी भी सदस्य को शामिल नहीं किया गया। क्या रुपाणी मंत्रिमंडल के किसी भी सदस्य ने अच्छा काम नहीं किया? अगर नहीं तो ऐसे नाकारा लोगों के चयन के लिए कौन जिम्मेदार और जवाबदेह है? वर्ष 2016 में पूर्व मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल के इस्तीफे के बाद विजय रुपाणी को गुजरात का नया मुख्यमंत्री बनाया गया था और 2017 का विधानसभा चुनाव भी रुपाणी के नेतृत्व में ही लड़ा गया। गुजरात के नए मुख्यमंत्री के रूप में भूपेंद्र पटेल को गुजरात की कमान सौंपना भाजपा के लिए एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा माना जा सकता है या यूं कहें पाटीदार समुदाय को लुभाने के लिए उन्हें राज्य की कमान सौंपी गई है। भूपेंद्र पटेल बीजेपी का एक ऐसा चहेरा है, जो वर्तमान सरकार में कैबिनेट का हिस्सा नहीं है। लेकिन भाजपा ने सीधे उनको विधायक से मुख्यमंत्री बनाया है। विधानसभा चुनाव 2022 के मद्देनजर अब भाजपा भूपेंद्र पटेल के नेतृत्व में चुनाव लड़ना चाहती है ताकि पाटीदार समुदाय के वोट बैंक को साधा जा सके। अब देखना यह होगा कि बीजेपी का यह दांव कितना सही है, यह तो समय ही बताएगा। आनंदीबेन पटेल के सीएम रहते हुए गुजरात में पटेल समुदाय का आक्रोशित होना पार्टी के लिए सबसे ज्यादा परेशानी बढ़ाने वाला रहा, जिसका प्रभाव यह हुआ कि बीजेपी ट्रिपल डिजिट से सिमटकर डबल डिजिट तक जा पहुंची।
    अब देखना यह होगा कि भूपेंद्र पटेल पाटीदार समुदाय को कितना साध पाते है। अगर वह अपने इस मकसद में कामयाब होते है, तो बीजेपी में उनका कद कितना बढेगा? यह तो चुनाव बाद ही तय होगा। फिलहाल भूपेन्द्र पटेल के सामने अभी कई चुनौतियां हैं। गुजरात में पाटीदार समुदाय चुनाव के नजरिए से बड़ा महत्वपूर्ण वोट बैंक है। जिसका प्रभाव रियल्टी, शिक्षा और सहकारी क्षेत्रों पर अच्छा खासा है। भूपेंद्र पटेल कड़वा पाटीदार समुदाय से आते हैं, जो पटेल समुदाय को लुभाने के लिए काफी हद तक कामयाब हो सकते हैं। पिछले कुछ वर्षों से यह समुदाय पार्टी से दूरी बना चुका है। इसलिए बीजेपी आलाकमान को उम्मीद है कि आनंदीबेन पटेल के नेतृत्व में पाटीदार समुदाय के बीच, जो खाई पैदा हुई थी। अब उसे भूपेन्द्र पटेल के नेतृत्व में भरा जाए।
    उत्तराखंड में बार-बार मुख्यमंत्री चेहरे बदलने का जो एक सिलसिला शुरू हुआ। उससे यही लगता है कि उत्तराखंड में मुख्यमंत्री बदलने की एक परंपरा हो गई है। राज्य की स्थापना (9 नवंबर 2000) के बाद से लेकर उत्तराखंड के इन इक्कीस सालों में अब तक नौ चेहरे मुख्यमंत्री के तौर पर बदले जा चुके है। इसी साल मार्च महीने में त्रिवेंद्र सिंह रावत के बाद तीरथ सिंह रावत को उत्तराखंड का नया मुख्यमंत्री बनाया गया। लेकिन मुख्यमंत्री बनने के कुछ ही दिनों बाद तीरथ सिंह रावत विवादों में घिरते हुए नजर आए। जिससे पार्टी को लगा कि उत्तराखंड में एक बार फिर से सत्ता परिवर्तन होना चाहिए और अगली कड़ी के रूप में पुष्कर सिंह धामी को भारतीय जनता पार्टी ने एक नए चेहरे के रूप में राज्य की कमान सौंपी। उत्तराखंड के इन 9 चेहरों में 6 बीजेपी के मुख्यमंत्री जबकि कांग्रेस के 3 मुख्यमंत्री शामिल हैं। पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी को अगर छोड़ दे, तो कोई भी मुख्यमंत्री उत्तराखंड में अपने 5 वर्ष का कार्यकाल पूरा नहीं कर सका। सबसे ज्यादा उत्तराखंड में बीजेपी अपने हर कार्यकाल में बार बार मुख्यमंत्री के नए चेहरे बदलती रही है। वर्ष 2001, 2007 और 2012 में बीजेपी को मुख्यमंत्री बदलने पड़े और अब बीजेपी चुनाव से ठीक एक वर्ष पहले दो बार मुख्यमंत्री बदल चुकी है।
    पंजाब में कैप्टन अमरेंद्र सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू के बीच चली खींचतान में कांग्रेस ने चरणजीत सिंह चन्नी को राज्य का नया मुख्यमंत्री बनाकर अंदरूनी कलह को खत्म तो कर लिया। लेकिन कैप्टन और सिद्धू के बीच जो खाई पैदा हुई उसे भर पाना अब बहुत मुश्किल है। चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाकर वैसे कांग्रेस ने जो गुगली फेंकी है। उसका असर दलित वोट बैंक पर कितना पड़ेगा? यह तो चन्नी के नेतृत्व पर ही निर्भर करेगा। दरअसल, इस सियासी ड्रामे की उठापटक के बीच पंजाब कांग्रेस में दरार पड़ने लगी है। कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवाणी के कांग्रेस में शामिल होने के बाद से ही पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू, कैबिनेट मंत्रियों में रजिया सुल्ताना और परगट सिंह ने भी इस्तोफा दे दिया हैं। पंजाब के बाद अब राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी बदलाव के संकेत मिल सकते हैं, क्योंकि कांग्रेस आलाकमान पुराने चेहरों को बदलकर अब नए चेहरों को तवज्जो देने में लगी हैं ताकि कांग्रेस को नए सिरे से खड़ा किया सके।

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