लोकतंत्र, अधिकार और “आप” की सरकार

 सिद्धार्थ मिश्र –

इतिहास सदैव अपने आपको दोहराता है। इस दोहराव की पृष्‍ठभूमि तैयार करते हैं जनआंदोलन। ये आंदोलन ही कहीं न कहीं नये चेहरों की ताजपोशी की सियासी पृष्‍ठभूमि भी तैयार करते हैं। दिल्‍ली में आम आदमी पार्टी की अप्रत्‍याशित सफलता आज इस बात का सबसे जीवंत प्रमाण है। तमाम उहापोह के बीच जब आप दिल्‍ली में सरकार बनाने के नजदीक जा पहुंची है तो निसंदेह ये लोकतंत्र की विशेषता ही है । वो विशेषता जहां आम और खास के बीच की आर्थिक खाई सत्‍ता पाने की लड़ाई को प्रभावित नहीं कर सकती । जहां तक प्रश्‍न इस पार्टी की विचारधारा का है तो ये निसंदेह इस मोर्चे पर औरों से कहीं अधिक दिग्‍भ्रमित नजर आती है । बावजूद इसके आप की इस सफलता से इनकार नहीं किया जा सकता । बात चाहे तुष्टिकरण की हो अथवा कश्‍मीर जैसे संवेदनशील मामले की आप आज भी इन विषयों पर स्‍वयं को असहज पाती है । किंतु मात्र इतने से विपक्षियों को दोषारोपण का अधिकार नहीं मिल जाता है । दुर्भाग्‍यवश सियासतदानों की सतही मानसिकता अब सतह पर आ रही है । वो मा‍नसिकता जो दोनों ओर से सिवाय कीचड़ उछालने के कुछ और नहीं कर रही है । दीर्घकालिक सत्‍य है कि कीचड़ उछालने मात्र से सत्‍य को पराजित नहीं किया जा सकता । जहां तक प्रश्‍न है सत्‍य तो वो निसंदेह मात्र इतना है कि अपने अल्‍पकाल में अभूतपूर्व सफलता अर्जित कर आम आदमी पार्टी ने दिग्‍गज राजनेताओं को दांतों तले उंगली दबाने पर विवश कर दिया है । रही बात इस सफलता की तो निसंदेह इसके पीछे कहीं न कहीं जनता का विश्‍वास अवश्‍य है । उस जनता का जो महंगाई, भ्रष्‍टाचार और घोटालों से आजिज आ चुकी है । ऐसे में आप की विकास यात्रा को हल्‍के में निसंदेह एक बड़ी भूल होगी ।

भारतीय लोकतंत्र में आप की सरकार बनाने की घटना ने निश्चित तौर पर एक नये इतिहास को जन्‍म दिया है । जहां तक इस घटना के प्रभाव का प्रश्‍न है तो निसंदेह इस पर त्‍वरित टिप्‍पणी करना एक बड़ी भूल होगी । ज्ञातव्य हो कि भारतीय इतिहास की शायद यह पहली घटना है जब अनुभवहीन लोगों द्वारा बनायी गयी, किसी भी नयी पार्टी ने इतने कम समय में इतनी बड़ी सफलता अर्जित की हो । ऐसी सफलता जिसने एक अदने से दल को भारत के दिल पर राज करने का अधिकार दे दिया है । जहां तक आप के जन्‍म का प्रश्‍न है तो एक बात स्‍पष्‍ट रूप से कही जा सकती है कि ये भारत के अन्‍य क्षेत्रिय दलों से निसंदेह भिन्‍न है । आप का जन्‍म भ्रष्‍टाचार विरोधी आंदोलन के गर्भ से हुआ है । ये आंदोलन यकीनन किसी क्षेत्र विशेष से नहीं अपितु पूरे देश से सरोकार रखता है । अगर देखा जाये तो आप की यही विशेषता ही उसके कड़े परीक्षण का आधार भी बनेगी । अपने अल्‍प राजनीतिक जीवन में अरविंद केजरीवाल की सबसे बड़ी विशेषता रही है- उनकी विरोध दर्ज कराने की क्षमता । किंतु इसी विद्रोह के साथ आज जब वे दिल्‍ली के सिंहासन के करीब जा पहुंचे हैं तो निश्चित तौर पर उनका कड़ा परीक्षण भी होगा। कड़ा परीक्षण अर्थात जनता से किये गये वादों पर कायम रहना । वे वादे जिनमें देश को भ्रष्‍टाचार मुक्‍त बनाने का वादा सर्वप्रथम है । यकीन मानीये अन्‍य राजनीतिक दलों के मुकाबले लोगों को आप से कुछ ज्‍यादा अपेक्षाएं होंगी जो लाजिमी भी हैं । अतएव इन आशाओं को पुष्पित एवं पल्‍लवित करने के लिए आप को औरों से ज्‍यादा संजीदगी दिखानी ही पड़ेगी । देखने वाली बात है कि अनुभवहीन आम आदमी पार्टी के नेता विशेषकर केजरीवाल जनता के परीक्षण की इस कसौटी कितने खरे उतरते हैं ?

अगर अन्‍ना के आंदोलन की बात करें तो उस वक्त सरकार ने इस आंदोलन को कुचलने की कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी थी । यहां तक की सरकार के प्रवक्‍ताओं ने ही आंदोलनकारियों को राजनीतिक मैदान में उतरने की चुनौती तक दे डाली थी । यही चुनौती आज लगभग हर बड़े दल के सिरदर्द बन गयी है तो इसके पीछे कहीं न कहीं हर दल की सतही राजनीति ही जिम्‍मेदार है । दुर्भाग्‍यवश आप के साथ  ये सौतेला व्‍यवहार आज भी बदस्‍तूर जारी है । आज के राजनीतिक तौर तरीकों को देखें तो निसंदेह ये कहा जा सकता है कि आज राजनीति आर्थिक संसाधनों की गिरफ्‍त में जा चुकी है । ऐसी गिरफ्‍त में जहां आम आदमी के लिये राजनीति के बारे सोचना भी लोहे के चने चबाने जैसा है । यकीन नहीं आता तो अपने आस पास हो रहे विभिन्‍न चुनावी जनसभाओं को देख लीजीये । इन जनसभाओं पर औसत कई करोड़ों से लेकर अरबों का व्‍यय किया जा रहा है । इन विषम परिस्थितियों में आम आदमी का राजनीति में पदार्पण असंभव हो गया है। स्‍पष्‍ट शब्‍दों में कहें तो राजनीति बाहुबलि‍यों एवं धनपुशओं की बपौती बन चुकी है । क्‍या ऐसा नहीं है ? ऐसे में आप ने चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित धन व्‍यय एवं आम आदमियों को टिकट देकर एक सराहनीय कार्य किया है । रही बात अरविंद केजरीवाल एवं अन्‍य नेताओं के मानसिक विभ्रम की तो वक्‍त के साथ ही या तो उनका ये विकार दूर हो जाएगा अथवा जनता उन्‍हे उनके उपयुक्‍त स्‍थान तक पहुंचा देगी । किंतु तब तक आप पर किसी भी प्रकार का कीचड़ उछालना मुनासिब नहीं होगा । ऐसा करना जनमत का ही अपमान होगा ।

ज्ञातव्य हो, चार राज्‍यों में आयोजित विधानसभाओं को लोकसभा का सेमीफाइनल कहकर प्रचारित किया गया था । क्‍या वास्‍तव में ऐसा ही था ? ये सत्‍य है देश के लोग कांग्रेस के घपले घोटालों से आजिज आ चुके हैं, इस कारण सत्‍ता परिवर्तन की लगभग पूरे देश में एक समान रूप से चल रही है । बहरहाल जहां तक इन चुनावों के नतीजों का प्रश्‍न है तो जनता ने दल विशेष में रूचि न दिखाकर विकास की राजनीति में विश्‍वास प्रकट किया है । बात चाहे मध्‍य प्रदेश की हो छत्तीसगढ़ की दोनों राज्‍यों में क्रमश: शिवराज सिंह एवं डा. रमन सिंह की अपनी सशक्‍त छवि है । इन दोनों राज्‍यों के चुनाव भाजपा के पक्ष में इसलिये नहीं हैं कि यहां जनादेश किसी लहर विशेष से प्रभावित था बल्कि इसलिये पक्ष में रहा क्‍योंकि इन दोनों प्रदेशों की जनता का विश्‍वास प्रत्‍यक्ष रूप में पार्टी द्वारा स‍मर्थित उम्‍मीदवारों के पक्ष में था । जहां तक प्रश्‍न है राजस्‍थान का तो उसका पूर्वानुमान भी काफी समय पहले ही था कि वहां सत्‍ता विरोधी लहर चल पड़ी है । इस लहर के जन्‍म के पीछे स्‍वयं अशोक गहलोत के गलत निर्णय एवं उनकी तुष्टिकरणपरक नीतियां ही जवाबदेह हैं । रही बात दिल्‍ली की तो निसंदेह यहां हर दल का असल परीक्षण होना था । इन चुनावों में जहां कांग्रेस को अपनी डू‍बती नाव को किनारे लगाना था तो दूसरी ओर भाजपा को यहां सियासी प्रभुत्‍व स्‍थापित करना था । इस मुकाबले को त्रिकोणीय एवं रोमांचक बनाने का श्रेय सौ फीसदी आप को जाता है । जिसने वाइल्‍ड कार्ड इंट्री मारकर शीला दिक्षित समेत कई दिग्‍गजों को धूल चटा दी । इन चुनावों से जो एक बात तार्किक रूप स्‍पष्‍ट हुई है वो मात्र इतनी सी है कि कल तक अनुभवहीन मानी जा रही आप पार्टी के पास भी अपना जनाधार है ।

आप के इस जनाधार को खारिज करने का कोई प्रश्‍न नहीं है । तार्किक रूप से कई लोग ये प्रश्‍न उठा रहे हैं ज्‍यादा सीटें जीतने के बाद भी भाजपा की बजाय आप का सरकार बनाना खेदजनक है । अब यहां प्रश्‍न उठता है ज्‍यादा सीटें जीतने का तो निसंदेह भाजपा के पास सबसे ज्‍यादा सीटें हैं किंतु इसके बावजूद भी भाजपा का स्‍पष्‍ट बहुमत न पाना ये अवश्‍य दर्शाता है कि लोगों के मन में भाजपा के प्रति कोई न कोई पूर्वाग्रह अवश्‍य था । यहां एक बात और ध्‍यान रखीयेगा यहां प्रश्‍न किसी लहर विशेष का नहीं है । यदि होता तो परिणाम सौ फीसदी दल विशेष के पक्ष में होने चाहीये थे न कि त्रिशंकु । हां एक लहर को स्‍वीकृति अवश्‍य दी जा सकती है वो है कांग्रेस विरोधी लहर,इस लहर के सार्थक परिणाम आज सभी के सामने हैं । इन परिस्थितियों में मात्र दो ही संभावनाएं हैं ।  प्रथम गठबंधन द्वारा सरकार का निर्माण अथवा दोबारा चुनाव । जहां तक दोबारा चुनाव का प्रश्‍न है तो वो एक खर्चिला विषय है जिसका प्रत्‍यक्ष एवं अप्रत्‍यक्ष बोझ अंतरिम रूप से जनता पर पड़ना तय है । ऐसे में गठबंधन की संभावना को सर्वोपरी मान कर चलना ही पड़ेगा,जहां तक आप को कांग्रेस के समर्थन का प्रश्‍न है तो इसके पीछे भी कांग्रेस के छिपे सियासी मंसूबे हैं । बहरहाल चर्चा का सार मात्र इतना है कि अन्‍य दलों की तरह गठबंधन करना या न करना दोनो ही निर्णय आप के होने चाहीये न कि अन्‍य दलों के । इस फेहरिस्‍त में यदि निर्णय पूर्व अन्‍य दलों के बयान को भी देखें तो लगभग हर दल ने आप को आगे आकर सत्‍ता संचालन करने की बात कही थी । अब जब अरविंद केजरीवाल ने सरकार बनाने का निर्णय लिया है तो इस निर्णय की आलोचना । इस पूरे परिप्रेक्ष्‍य को देखकर एक देशज मुहावरा याद आ रहा है,आगे चलब त हूरब,पीछे चलब त थूर‍ब । अर्थात दोनों परिस्थितियों में आप को बली का बकरा बनाना गलत बात है । अपने आज के बयानमें शीला दिक्षित ने आप को दिये गये समर्थन को वादे पूरे करने का अवसर कहा है । ये कहना सही भी है,क्‍योंकि जनआकांक्षाओं का बोझ अन्‍य दलों की अपेक्षा आम आदमी पार्टी पर कहीं ज्‍यादा है । ऐसे में यदि वे किये वादे पूरे नहीं कर पाएंगे तो उनके पूर्णतया समाप्‍त होने की संभावना अधिक बलवती हैं । इसलिये ये समय आप की आलोचना की बजाय एक सशक्‍त विपक्ष प्रदान करने का है,क्‍योंकि प्रत्‍यक्ष रूप से कांग्रेस की बैसाखी पर चलने वाले इस गठबंधन का कोई बहुत लंबा भविष्‍य नहीं है । यदि प्रकट तौर पर भविष्‍य नहीं दिख रहा है तो अगला मौका निश्चित तौर पर मुख्‍य विपक्षी दल का ही होगा ।

 

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