हर पात में जस नाम की सम्मोहित झंकार

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-ललित गर्ग-

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का दुनिया में विशिष्ट स्थान है, क्योंकि यह सत्यं, शिवं और सौन्दर्य की युगपत् उपासना की सिद्ध एवं चमत्कारी अभिव्यक्ति है। हमने इतिहास में पढ़ा है कि जब तानसेन ने दीपक राग गाया तो दीप स्वतः जलने लगे, हमारे शास़्त्रीय संगीत के सिद्ध गायक जब मेघ मल्हार गाते तो वर्षा होने लगती। ऐसे ही चमत्कारी एवं आवाज के जादूगर थे संगीत मार्तंड पंडित जसराज, उनके ‘रसराज’ के शृंगारिक राग से न केवल प्रकृति बल्कि जंगल के जीव-जंतु-हिरण भी सम्मोहित हो गये थे। नब्बे बरस की सार्थक जिंदगी जीते हुए उनकी गायिकी ने अमेरिका के न्यूजर्सी में अनंत विश्राम लिया है, उनका निधन संकीर्तन परंपरा और अष्टछाप गायिकी के युग का अंत हैं। उनका देह से विदेह होना संगीत की उस महान परंपरा का लोप है, जिसके अंतर्गत पारंपरिक अर्थो में नवधा भक्ति को हजारों सालों से गाया जाता रहा है। उनकी आवाज, शास्त्रीय गायन एवं भक्ति में गाया गया ‘ओम नमो भगवते वासुदेवाय’ एवं ‘ओम नमः शिवाय’ न केवल मन्दिरों में गंूजा है बल्कि हर घर-आंगण में प्रार्थना का रिवाज बन गया है।
हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में वैष्णव-संकीर्तन की परंपरा में ‘भक्ति-संगीत’ के अनन्य उपासक पंडित जसराज का सृजन एवं संगीत मनोरंजन एवं व्यावसायिकता से ऊपर आध्यात्मिकता एवं सृजनात्मकता का आभामंडल निर्मित करने वाला है। उनका संगीत एवं गायन का उद्देश्य आत्माभिव्यक्ति, प्रशंसा या किसी को प्रभावित करना नहीं, अपितु स्वान्तः सुखाय, पर-कल्याण एवं ईश्वर भक्ति की भावना है। इसी कारण उनका शास्त्रीय गायन एवं स्वरों की साधना सीमा को लांघकर असीम की ओर गति करती हुई दृष्टिगोचर होती है। उनका गायन हृदयग्राही एवं प्रेरक है क्योंकि वह सहज एवं हर इंसान को भक्ति में सराबोर करने, झकझोरने एवं आनन्द-विभोर करने में सक्षम है। भगवान श्रीकृष्ण की जीवंतता को साकार करने वाला यह महान् कलाकार सदियों तक अपनी शास्त्रीय-संगीत साधना के बल पर हिन्दुस्तान की जनता पर अपनी अमिट छाप कायम रखेगा।
पंडित जसराज की आवाज की तासीर ही है कि उन्हें सुनते हुए कोई शख्स तनावों की भीड़ में शांति महसूस करता तो किसी के अशांत मन के लिये वह समाधि का नाद होता है। उनका भक्ति संगीत एवं गायन चंचल चित्त के लिये एकाग्रता की प्रेरणा होता तो संघर्ष के क्षणों में संतुलन का उपदेश। वह एक दिव्य एवं विलक्षण चेतना थी जो स्वयं संगीत भक्ति रस में जागृत रहती और असंख्य श्रोताओं के भीतर ज्योति जलाने का प्रयास करती। अपने आरंभिक ग्रंथ ‘उज्ज्वल नीलमणि’ को जैसे उन्होंने व्यावहारिक तौर पर अपनी कला-साधना का पाथेय बना डाला था। उनके मेवाती घराने का ख्याल भी पिछले कई दशकों से नए अर्थ-अभिप्रायों-उद्देश्यों के साथ उनके गायन में छलक आता था। वे ‘हवेली-संगीत’ गाते रहे हों या वैदिक मंत्रों को नारायण और वासुदेव की पुकार से संबोधित करते हों, हर जगह यह बेजोड़ गायक शास्त्रीयता की राह पर चलते हुए भक्ति का एक लोकपथ सृजित करता था, धरती से ब्रह्माण्ड तक, संगीतप्रेमियों से वैज्ञानिकों तक, राजनीतिज्ञों से साधकों तक सबकी नजरें इस अलौकिक एवं विलक्षण संगीतज्ञ के गायन पर लगी रहती थी। आधुनिक संदर्भो में शास्त्रीय गायन के मूर्धन्य एवं सिद्ध उपासकों की कड़ी में पंडित जसराज का देवलोकगमन होना एक महान संगीत परंपरा में गहरी रिक्तता एवं एक बड़े खालीपन का सबब है। वृंदावन हो या नाथद्वारा या अन्य भक्ति-स्थलों- उनकी कमी का अहसास युग-युगों तक होता रहेगा। वसंत पंचमी, जन्माष्टमी और राधाष्टमी जैसे उत्सवों एवं उनसे जुड़े आयोजनों में पंडितजी के उत्फुल्ल गायन के बिना अधूरापन लगेगा। क्योंकि वे उस पहली पंक्ति के अग्रगण्य गायक रहे, जिनके गायन में सबके साथ सह-अस्तित्व का भाव था। उनके गायन में सबके अभ्युदय की अभीप्सा थी। जिन्होंने हमेशा ही अपने गायन में पिता पंडित मोतीराम और बड़े भाई, जो उनके मार्गदर्शी गुरु भी रहे पंडित मनीराम जी की परंपरा को आत्मसात करते हुए अपने सात्विक गायन द्वारा शास्त्रीय संगीत उपज की ढेरों प्रविधियां आविष्कृत कीं, उन्हें समृद्ध किया।
‘भरी नगरिया तुम बिन सूनी, अंखिया निस दिन बरस रही। लाख सलोनी या जग माही, हमहि काहे तुम छले। हमको बिसार कहां चले..’ इन पंक्तियों को स्वर देने वाले शास्त्रीय गायकी के ‘रसराज’ पंडित जसराज सबको सूना कर गए, अचंभे में डाल गये। उनके गायन में रचा-बसा वृंदावन, उसी वैष्णवता का आंगन निमृत करता था, जिसके लिए सूरदास ने श्रीकृष्ण की वंशी की टेर को ‘विरह भरयो घर आंगन कोने’ कहकर संबोधित किया है। साणंद, गुजरात के महाराजा जयवंतसिंह बाघेला के नजदीकी रहे पंडित जसराज ने उनकी लिखी बंदिशों को भी भरपूर गाया। पुष्टिमार्ग के आठों प्रहर के गायन में, जो श्रीनाथजी की आराधना में संपन्न होते रहे, पंडित जसराज ने जब अपना रिकार्ड तैयार किया तो अधिकतर रागों की बंदिशें भक्ति पदावलियों से चुनीं। जब वे अष्टछाप के कवियों को गाने के लिए उन्मुख हुए तो उसमें भी छीतस्वामी का पद ‘गोवर्धन की शिखर चारु पर’, कृष्णदास की ‘खेलत-खेलत पौढ़ी राधा’ और गोविंदस्वामी की ‘श्री गोवर्धन राय लला’ को गाकर दुनिया भर में प्रचलित कर दिया। पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी पंडित जसराज के बड़े प्रशंसक थे। जसराज को वह रस के राजा यानी ‘रसराज’ कहा करते थे।
पण्डित जसराज का जन्म 28 जनवरी 1930 को हिंसार में हुआ। जसराज जब चार वर्ष उम्र के थे तभी उनके पिता पण्डित मोतीराम का देहान्त हो गया था और उनका पालन पोषण बड़े भाई पण्डित मणीराम के संरक्षण में हुआ। जसराज ने संगीत दुनियाँ में 80 वर्ष से अधिक बिताए और कई प्रमुख पुरस्कार प्राप्त किए। उन्होंने भारत, कनाडा और अमेरिका में अनेक लोगों को संगीत सिखाया है। उनके कुछ शिष्य उल्लेखनीय संगीतकार भी बने हैं। पण्डितजी के परिवार में उनकी पत्नी मधु जसराज, पुत्र सारंग देव और पुत्री दुर्गा हैं। 1962 में जसराज ने फिल्म निर्देशक वी. शांताराम की बेटी मधुरा शांताराम से विवाह किया, जिनसे उनकी पहली मुलाकात 1960 में मुंबई में हुई थी। बेगम अख्तर द्वारा प्रेरित होकर उन्होने शास्त्रीय संगीत को अपनाया। जसराज ने 14 साल की उम्र में एक गायक के रूप में प्रशिक्षण शुरू किया, इससे पहले तक वे तबला वादक ही थे। कुमार गंधर्व के साथ 1945 में लाहौर में एक कार्यक्रम में जब वे तबले पर संगत कर रहे थे, उस सन्दर्भ में कुमार गंधर्व ने डांटते हुए कहा कि जसराज तुम मरा हुआ चमड़ा पीटते हो, तुम्हें रागदारी के बारे में कुछ पता नहीं। गंधर्व की इसी डांट ने जसराज के जीवन की दिशा को ही मोड़ दिया और हमें एक तबला वादक की जगह महान् संगीत सम्राट हासिल हुआ, जिसने भारत की शास़्त्रीय संगीत की परम्परा एवं संस्कृति को समूची दुनिया में गौरव प्रदान किया। अपने आठ दशक से अधिक के सफल एवं सार्थक संगीतमय सफर में पंडित जसराज को पद्म विभूषण (2000), पद्म भूषण (1990) और पद्मश्री (1975) जैसे सम्मान मिले। पिछले साल सितंबर में सौरमंडल में एक ग्रह का नाम उनके नाम पर रखा गया था और यह सम्मान पाने वाले वह पहले भारतीय कलाकार बने थे। इंटरनेशनल एस्ट्रोनामिकल यूनियन ने ‘माइनर प्लेनेट’ 2006 का नामकरण पंडित जसराज के नाम पर किया था जिसकी खोज 11 नवंबर 2006 को की गई थी।
जसराज ने जुगलबंदी का एक उपन्यास रूप तैयार किया, जिसे ‘जसरंगी’ कहा जाता है, जिसे ‘मूर्छना’ की प्राचीन प्रणाली की शैली में गाया जाता है जिसमें एक पुरुष और एक महिला गायक होते हैं जो एक समय पर अलग-अलग राग गाते हैं। उन्हें कई प्रकार के दुर्लभ रागों को प्रस्तुत करने के लिए भी जाना जाता है जिनमें अबिरी टोडी और पाटदीपाकी शामिल हैं। शास्त्रीय संगीत के प्रदर्शन के अलावा, जसराज ने अर्ध-शास्त्रीय संगीत शैलियों को लोकप्रिय बनाने के लिए भी काम किया है, जैसे हवेली संगीत, जिसमें मंदिरों में अर्ध-शास्त्रीय प्रदर्शन शामिल हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने श्रद्धांजलि स्वर में कहा है कि भारतीय शास्त्रीय विधा में एक बड़ी रिक्तता पैदा हो गई है। न केवल उनका संगीत अप्रतिम था बल्कि उन्होंने कई अन्य शास्त्रीय गायकों के लिए अनोखे मार्गदर्शक के रूप में एक छाप छोड़ी।’ सचमुच ऐसी अनगिनत बंदिशें हैं, जो पंडित जसराज की आवाज में ढलकर भक्ति संगीत का शिखर रच चुकी हैं। इसमें ‘रानी तेरो चिरजीवौ गोपाल’, ‘हमारी प्यारी श्यामा जू को लाज’ और ‘लाल गोपाल गुलाल हमारी आंखन में जिन डारो जी’ सुनकर विस्मित हुआ जा सकता है। अपनी संजीदा संगीत साधना, मधुरोपासना गायिकी, घराने की कठिन कंठ-साधना, भक्ति का विहंगम आकाश रचने की उदात्त जिजीविषा और वैष्णवता के आंगन में शरणागति वाली पुकार के लिए पंडित जसराज हमेशा याद किए जाएंगे। भले ही मृत्यु उन्हें छिपा ले और महत्तर मौन उन्हें घेर ले, फिर भी उनके स्वर एवं संगीत का नाद इस धरती को सुकोमलता का अहसास कराता रहेगा।

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