“महान ईश्वर व उसकी मत-मतान्तरों में फंसी अज्ञानी व अन्धविश्वासी सन्तानें”

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मनमोहन कुमार आर्य

वेदों का सत्य स्वरूप व गुण, कर्म, स्वभाव का ज्ञान मत-मतान्तरों के किसी धर्म ग्रन्थ में प्राप्त नहीं होता अपितु यह वेद और वेदों पर आधारित ऋषियों के ग्रन्थ उपनिषद्, दर्शन आदि से ही विदित होता है। ऋषि दयानन्द के प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञ विधि आदि ग्रन्थ भी ईश्वर व जीवात्मा का सत्य स्वरूप बोध कराने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। वेदों के अनुसार ईश्वर का जो स्वरूप सुलभ होता है उसके अनुसार ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वेश्वर, सर्वातिसूक्ष्म, सर्वत्र एकरस, अनादि, नित्य, अनन्त व सृष्टिकर्ता सत्ता है। ईश्वर समस्त ब्रह्माण्ड में एक अर्थात् अकेली सत्ता ही है। किसी अन्य सत्ता के उसके समान व बड़ा होने का तो प्रश्न ही नहीं है। ईश्वर से भिन्न जीव की सत्ता है। जीव चेतन, अल्पज्ञ एवं अल्प सामर्थ्य से युक्त सत्ता है। यह सूक्ष्म, आंखों से अदृश्य, एकदेशी, ससीम, आकार रहित, ईश्वर से जन्म प्राप्त कर शुभ व अशुभ अर्थात् पुण्य व पाप कर्मों को करने वाली कर्ता व भोक्ता सत्ता है। जीवात्मा मनुष्य जन्म में वेदज्ञान, ईश्वरोपासना, यज्ञ, परोपकार आदि श्रेष्ठ कर्मों को करके जन्म व मरण के बन्धनों से मुक्त होकर ईश्वर के सान्निध्य वा मोक्ष को भी होने में समर्थ है। मोक्ष प्राप्त करना ही जीवात्मा का प्रमुख उद्देश्य व लक्ष्य है। जब तक जीवात्मा को मोक्ष प्राप्त नहीं होता, तब तक यह जन्म व मरण के चक्र में फंसी रहती है। सुख व दुःख के भोग में फंसकर जीवात्मा ईश्वरोपासना व अपने लक्ष्य मोक्ष से भटक कर सामान्य मनुष्यों की भांति जीवन व्यतीत करती है। ईश्वर सबको सत्कर्म करने की प्रेरणा करता है परन्तु अज्ञान, अन्धविश्वास, अविद्या आदि से ग्रस्त मनुष्यों के हृदयों व आत्मा में ईश्वरीय प्रेरणा स्पष्ट रूप से अनुभव नहीं होती। बुरे कर्म करने पर मन व आत्मा में भय, शंका व लज्जा तथा शुभ कर्मों को करने पर आत्मा में जो सुख व आनन्द की अनुभूति होती है वह ईश्वर की ओर से ही होती है।

 

ईश्वर महान गुणों वाला जीवात्माओं व मनुष्यों का परम हितैषी व आदर्श माता, पिता, आचार्य, मित्र, बन्धु, सखा, राजा व न्यायाधीश है। उसके पुत्र व पुत्रियां अर्थात् सभी मनुष्य भी अपने पिता ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव के अनुरुप ही होने चाहियें थे। संसार में हम देखते हैं कि प्रायः सभी मनुष्य अज्ञान, अविद्या, अन्धविश्वासों के कारण ईश्वर के ज्ञान व भक्ति से विमुख, मिथ्याचार, अनाचार व दुराचार आदि कार्यों में लिप्त रहते हैं। संसार में हम देखते हैं कि जिसके एक से अधिक पुत्र हैं और उनमें से यदि एक भी सन्मार्ग पर न चलकर असत्य व अज्ञान के कुमार्ग पर चलता है तो माता-पिता उससे सदैव दुःखी व चिन्ताग्रस्त रहते हैं। महाभारत काल के बाद हमें ऋषि दयानन्द जैसा ईश्वरीय गुणों को जानने वाला व उनका जन-जन में प्रचार करने वाला मनुष्य, विद्वान, ऋषि व महर्षि दिखाई नही देता। उनके कुछ अनुयायियों ने उनका अनुकरण करने का यथासम्भव प्रयत्न किया। ऐसे सभी लोग प्रशंसा के पात्र हैं। संसार में नास्तिक और मत-मतान्तरों से ग्रस्त लोग अपने वास्तविक माता-पिता ईश्वर के न केवल स्वरूप एवं गुण-कर्म-स्वभाव से ही अपरिचित व अनभिज्ञ हैं अपितु वह ईश्वर के सत्य व यथार्थ स्वरूप को जानने का प्रयत्न ही करते। यह स्थिति तब है कि जब कि ईश्वर सब शुद्ध आत्माओं में सत्कर्म करने की प्रेरणा निरन्तर करता है। जीवात्माओं की अविद्या व उनके लोभ से युक्त कर्मों के कारण ईश्वर जीवों के विषय में कुपित हो सकता था परन्तु वह पूर्ण ज्ञानी, सत्यासत्य का विवेकी, आनन्दस्वरूप है, इसलिये वह सब कुछ होते हुए भी आनन्दस्वरूप में स्थित रहता है। अपने ज्ञान व आनन्दस्वरूप के कारण वह मानवीय माता-पिता को होने वाले क्लेशों से सर्वदा मुक्त व दूर रहता है। आश्चर्य इस बात का है कि ईश्वर की प्रेरणा से ऋषि दयानन्द ने जीवन में अत्यन्त कठोर तप व संघर्ष करके ईश्वर के वेद ज्ञान व ईश्वर के सत्य स्वरूप को प्राप्त किया एवं उसका जन-जन में प्रचार करने का प्राणपण से प्रयास किया परन्तु इस मनुष्य जाति ने उस सच्चे सर्वहितैषी देवता व धर्म की साक्षात् आदर्श मूर्ति के विचारों को भली प्रकार से सुना और न विचार किया। एक प्रकार से उन्होंने अपने अज्ञानतापूर्ण कर्मों से उनका निरादर ही किया है। इसी का फल हम आज संसार में मत-मतान्तरों के झगड़े, सर्वत्र शोषण, अत्याचार, अनाचार, दुराचार, असमानता, स्वार्थ, भ्रष्टाचार, देश में जन्में तथा देश से ही शत्रुवत् व्यवहार करने वाले लोगों के रूप में देख रहे हैं। अतीत में भी परिणाम अशुभ हुआ है और भविष्य में भी इसका बुरा परिणाम ही होगा। यहां महर्षि दयानन्द जी की एक बात याद आती है। उन्हें किसी ने पूछा कि देश विश्व सहित मानवजाति का पूर्ण हित उपकार कब कैसे होगा? इसका उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द जी ने कहा था कि जब देश संसार के लोगों के भाव, भाषा, विचार सहित हृदय और आत्मा में समानता एकता होगी, तब संसार का पूर्ण हित होगा। तब संसार से अन्याय, शोषण, स्वार्थ, अत्याचार, असमानता अज्ञान आदि सब दूर हो जायेगा और लोग ‘‘वसुधैव कुटुम्कम् की भावना के अनुसार व्यवहार करेंगे। ऐसा दिन जब इस पृथिवी पर आयेगा तभी मानवता विश्व का कल्याण होगा। ऋषि दयानन्द इसी काम को कर रहे थे और उनका आर्यसमाज भी इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिये कार्यरत संघर्षरत है। ईश्वर कृपा, दया और सहायता करें कि ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज का यह लक्ष्य सबके सहयोग से पूरा हो सके।

 

संसार में हम अनेक सज्जन लोगों को देखते हैं। वह सब प्रशंसनीय हैं परन्तु वह सब वेदज्ञान, ईश्वर व आत्मा विषयक ज्ञान से शून्य व अपूर्ण हैं। सब अपने अपने मत को अच्छा व दूसरों के मत को त्याज्य मानते हैं। हमारे वैज्ञानिक बन्धु भी मानवता के हित के अनेक कार्य कर रहे हैं। उनके संगठित पुरुषार्थ के कारण आज मानव का जीवन अनेक प्रकार से सरल, सुखद एवं ज्ञान व विज्ञान की प्राप्ति में अति सहायक हो गया है। इस पर भी आश्चर्य यह होता है कि हमारे यह वैज्ञानिक सर्वव्यापक, निराकर, सर्वशक्तिमान, मनुष्य के जन्म व मरण के कर्ता व व्यवस्थापक आदि के सत्यस्वरूप व उसकी स्तुति प्रार्थना व उपासना के बौद्धिक एवं क्रियात्मक ज्ञान से वंचित हैं। उनका उद्देश्य संसार से असत्य, अज्ञान, अविद्या, शोषण व अन्याय को दूर करना नहीं है अपितु विज्ञान की सेवा कर धनोपार्जन द्वारा सुखी जीवन जीना मुख्य है। कुछ लोग एषणा वश भी अच्छे कार्य करते हैं। इससे भी मानवता का कुछ-कुछ हित होता है। अतः जो लोग एषणाओं के कारण भी शुभ कर्म करते हैं वह भी प्रशसंनीय है परन्तु उन्हें एषणाओं से मुक्त होकर वेदज्ञान को जानकर ईश्वरोपासना आदि मनुष्योचित कार्य भी करने चाहिये जिससे वह मनुष्य की मननशील प्राणी होने की परिभाषा को अपने व्यवहार से सत्य सिद्ध करना चाहिये।

 

हम समझते हैं कि संसार के लोग अविद्या व अज्ञान के अन्धकार में फंसे हुए हैं। इससे ईश्वर प्रसन्न व सन्तुष्ट तो नहीं होता होगा। संसार के जो लोग कुकृत्य करते हैं उससे ईश्वर को क्लेश भले ही न हो परन्तु यह तो लगता ही होगा कि यह लोग सत्य मार्ग पर चल सकते हैं परन्तु सत्य को छोड़कर असत्य व अन्धकार में गिरकर अपनी हानि कर रहे हैं। वैदिक साहित्य को पढ़ने से यह भी विदित होता है कि ब्रह्माण्ड में अनेक मुक्त जीवात्मायें भी विचरण कर रही हैं। यह मुक्त जीवात्मायें ईश्वर के सान्निध्य से आनन्द में विचरण करती हैं। इन्हें किसी प्रकार का कोई दुःख व क्लेश नहीं होता। ईश्वर भी इनके साथ पिता व पुत्र के सम्बन्ध से रहता व व्यवहार करता है तथा उन्हें अनन्त आनन्द प्रदान करता है। हम भी मुक्त आत्माओं के समान एक मुक्त आत्मा हो सकते हैं। हम भी पुरुषार्थ से मुक्त अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। महान  ईश्वर की सन्तान होने के कारण हमें भी महानता के गुणों को धारण करना चाहिये। यह कार्य वेदाध्ययन व वेद प्रचार से ही सम्भव होगा। हम विद्वानों से निवेदन करते हैं कि वह इस विषय पर विचार करें। हम सभी लोगों से सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करने का भी अनुरोध करते हैं। इससे वह ईश्वर, जीव व प्रकृति के स्वरूप, मनुष्य जीवन के उद्देश्य, पूर्वजन्म व परजन्म तथा मोक्ष आदि विषयों का यथार्थरुप जान सकेंगे। इससे उन्हें हानि नहीं अपितु लाभ ही होगा। हम ईश्वर के अमृत पुत्र हैं। हमें ईश्वर जैसे गुण, कर्म व स्वभाव धारण करने हैं जैसे कि महर्षि दयानन्द व उनके प्रमुख अनुयायियों स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी तथा महात्मा हंसराज जी आदि ने धारण किये थे।

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