एक समाचार के अनुसार कल सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति टीएस ठाकुर के विदाई समारोह में भारी भीड़ को देख कर जस्टिस ठाकुर ने कहा कि सात साल के सर्वोच्च न्यायालय के कार्यकाल में अट्ठाईस विदाई समारोह देखे हैं लेकिन इतनी भीड़ पहले कभी नहीं देखी!उन्होंने मनोनीत मुख्य न्यायाधीश जस्टिस खेहर से कहा कि देखिये आपके चीफ जस्टिस बनने के स्वागत में इतनी भीड़ है! इस पर जस्टिस खेहर ने कहा कि यह आपके लिए है! एक अन्य समाचार के अनुसार कल विदाई समारोह में भी न्यायाधीशों की कमी का जिक्र करते हुए न्यायमूर्ति ठाकुर भावुक हो गए और उनका गला भर आया!यह पहला अवसर नहीं था जब उनका गला भर आया हो! इससे पूर्व भी अनेक अवसरों पर ऐसा हुआ है! सबसे अधिक तो तब हुआ था जब वो प्रधान मंत्री की मौजूदगी में रो पड़े थे!
वास्तव में तीन प्रकार के प्रशासक होते हैं! एक वो जो समस्याओं को शांत भाव से सुलझाने के लिए प्रयत्नशील रहते है! दुसरे वो जो कुछ नहीं करते और समस्याओं को जस का तस बने रहने देते हैं! तीसरे वो जो सदैव समस्याओं का रोना ही रोते रहते हैं!क्या यह कहा जा सकता है कि जस्टिस ठाकुर तीसरी श्रेणी में आते हैं?
वास्तव में भारी संख्या में वादों की पेंडेंसी न्यायाधीशों की कमी के कारण इतनी विकराल नहीं है जितनी न्यायाधीशों द्वारा वादों को टालते रहने के कारण है! इसमें आये दिन वकीलों का हड़ताल या कार्य बहिष्कार या अधिक से अधिक स्थगन लेना भी एक प्रमुख कारण है! क्या जस्टिस ठाकुर या किसी अन्य न्यायमूर्ति महोदय ने इस स्थिति को सुधारने के लिए कोई ठोस कदम उठाया है? क्यों नहीं इस आशय के सख्त निर्देश दे दिए जाते कि किसी भी कारण से, मैं दोहराना चाहता हूँ किसी भी कारण से, किसी वाद में दो से अधिक स्थगन न दिए जाएँ! सभी अदालतें इस आशय की एक पंजी रखें कि किस अधिवक्ता ने कब कब स्थगन लिया और उसकी एक पाक्षिक रिपोर्ट पूरे जनपद की संकलित करके जनपद न्यायाधीश के माध्यम से उच्च न्यायालय और सम्बंधित बार कौंसिल को भी भेजी जाये और जिस अधिवक्ता द्वारा अधिक स्थगन लिए जाएँ उसे सम्बंधित बार कौंसिल द्वारा दो बार चेतावनी देने के बाद उसका पंजीयन पहले तीन माह के लिए सस्पेंड कर दिया जाये और बहाली के उपरांत भी यदि सुधार नहीं होता तो उसका वकालत का लाइसेंस स्थायी रूप से समाप्त कर दिया जाये! यदि कोई बीमारी आदि के कारण लंबी अशक्तता हो तो वादकारी को दूसरा अधिवक्ता नियुक्त करने का निर्देश आवश्यक रूप से दिया जाये! यही व्यवस्था उच्च न्यायालय स्तर पर भी अपनायी जाये! सभी न्यायाधीशों के लिए एक माह में कम से कम सौ केसों का निस्तारण आवश्यक होना चाहिए!बाईस हज़ार जज अगर ऐसा करेंगे तो दो वर्षों में सारी पेंडेंसी समाप्त हो जाएगी! लंबे समय तक निर्णय सुरक्षित रखने की परंपरा का भी समापन होना चाहिए!यदि आवश्यक हो तो न्यायालय के कार्य के लिए बने नियमोंऔर सीपीसी में भी इसके लिए संशोधन किया जाये!वर्ना यदि न्यायाधीशों की संख्या दस गुनी भी बढ़ा दी जाएगी तो भी समस्या जस की तस बनी रहेगी!
इसके साथ ही एक और गंभीर समस्या है निचले स्तर पर न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार! इस पर भी सख्ती से अंकुश लगाना चाहिए!न्यायपालिका कि स्वतंत्रता का अर्थ अक्सर न्यायपालिका कि निरंकुशता मान लिया जाता है! लेकिन न्यायाधीशों को भी यह मानना चाहिए कि वो जनता के पैसे पर जनता की सेवा के लिए हैं! अपनी निरंकुश तानाशाही के लिए नहीं!उनकी भी समाज के प्रति जवाबदेही है! न्यापालिका के कामकाज की भी सामयिक रिपोर्ट संसद के समक्ष पेश की जानी चाहिए ताकि लोकतंत्र की सर्वोच्च अदालत जनता के सामने उनका भी कार्यकलाप आसके!
आशा करनी चाहिए कि नए मुख्य न्यायाधीश महोदय इस दिशा में ठोस कार्यवाही करेंगे!केवल जजों की कमी के लिए रोने से कुछ नहीं होगा! जो कुछ हम स्वयं कर सकें वो तो करें! और इस चुनौती को स्वीकार करके समाधान उपलब्ध संसाधनों में से ही निकालें !