आईआईटी में आत्महत्याएं बदनुमा दाग

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– ललित गर्ग –

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी ( आईआईटी ) दिल्ली की एक छात्रा ने परिसर में ही अपने छात्रावास की छत से कूदकर आत्महत्या कर ली। पुलिस की शुरुआती जांच कहती है कि इसका कारण भी अवसाद ही है, जैसाकि अक्सर आत्महत्याओं का कारण यही होता है। यह घटना तथाकथित समाज एवं राष्ट्र विकास की विडम्बनापूर्ण एवं त्रासद तस्वीर को बयां करती है। आत्महत्या शब्द जीवन से पलायन का डरावना सत्य है जो दिल को दहलाता है, डराता है, खौफ पैदा करता है, दर्द देता है। लेकिन यह देश ही नहीं, पूरी दुनिया में प्रतिष्ठित तकनीकी संस्थानों में आत्महत्या का कोई पहला मामला नहीं है। अभी चंद रोज पहले ही आईआईटी, चेन्नई एवं हैदराबाद से भी ऐसी ही खबर आई थी। वहां भी छात्र-छात्राओं ने आत्महत्या कर ली थी।
आत्महत्या की समस्या दिन-पर-दिन विकराल होती जा रही है। इधर तीन-चार दशकों में विज्ञान की प्रगति के साथ जहां बीमारियों से होने वाली मृत्यु संख्या में कमी हुई है, वहीं इस वैज्ञानिक प्रगति एवं तथाकथित विकास के बीच आत्महत्याओं की संख्या पहले से अधिक हो गई है। यह शिक्षाशास्त्रियों, समाज एवं शासन व्यवस्था से जुड़े हर एक व्यक्ति के लिए चिंता का विषय है। चिंता की बात यह भी है कि आज के सुविधाभोगी एवं प्रतिस्पर्धी जीवन ने तनाव, अवसाद, असंतुलन को बढ़ावा दिया है, अब सन्तोष धन का स्थान अंग्रेजी के मोर धन ने ले लिया है। जब सुविधावादी मनोवृत्ति, कैरियर एवं बी नम्बर वन की दौड़ सिर पर सवार होती हैं और उन्हें पूरा करने के लिये साधन एवं परिस्थितियां नहीं जुटा पाते हैं तब कुंठित, तनाव एवं अवसादग्रस्त व्यक्ति को अन्तिम समाधान आत्महत्या में ही दिखता है। इनदिनों शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ती प्रतिस्पर्धा एवं अभिभावकों की अतिशयोक्तिपूर्ण महत्वाकांक्षाओं के कारण आत्महत्या की घटनाएं अधिक देखने को मिल रही है। दिल्ली से पहले चेन्नई और उसके एक सप्ताह पहले आईआईटी, हैदराबाद के एक छात्र की आत्महत्या की खबर आई थी। वैसे यह कोई नई बात नहीं है, ऐसी खबरें हर कुछ समय बाद आती रहती हैं। रिकॉर्ड बताते हैं कि पिछले एक दशक में आईआईटी के 52 छात्र आत्महत्या कर चुके हैं। यह संख्या इतनी छोटी भी नहीं कि ऐसे मामलों को अपवाद मानकर नजरअंदाज कर दिया जाए। बेशक ऐसे हर मामले में अवसाद का कारण कुछ अलग रहा होगा, वे अलग-अलग तरह के दबाव होंगे, जिनके कारण ये छात्र-छात्राएं आत्महत्या के लिए बाध्य हुए होंगे। ऐसे संस्थानों में जहां भविष्य की बड़ी-बड़ी उम्मीदें उपजनी चाहिए, वहां अगर दबाव और अवसाद अपने लिए जगह बना रहे हैं और छात्र-छात्राओं को आत्महंता बनने को विवश कर रहा है तो यह एक काफी गंभीर मामला है।
भारत में युवाओं में रोजगार, शिक्षा में अव्वल आने एवं कैरियर आदि की समस्या के चलते तनाव और अवसाद का स्तर बढ़ रहा है। इससे कई युवाओं में हिंसक और आपराधिक मानसिकता के साथ-साथ आत्महंता होने की घातक प्रवृत्ति तेजी से विकसित हो रही है। क्या विकास के लम्बे-चैडे़ दावे करने वाली भारत सरकार ने इसके बारे में कभी सोचा? क्या विकास में बाधक इस समस्या को दूर करने के लिये सक्रिय प्रयास शुरु किए? विचित्र है कि जो देश दुनिया भर में अपनी संतुलित जीवनशैली एवं अहिंसा के लिये जाना जाता है, वहां के लोग कैसे आत्महंता होते जा रहे हैं? ऐसे अनेक प्रश्नों एवं खौफनाक दुर्घटनाओं के आंकड़ों ने शासन-व्यवस्था के साथ-साथ समाज-निर्माताओं को चेताया है और गंभीरतापूर्वक इस विडम्बनापूर्ण एवं चिन्ताजनक समस्या पर विचार करने के लिये जागरूक किया है, लेकिन क्या कुछ सार्थक पहल होगी?
छात्रों के सिर पर परीक्षा का तनाव प्रतिस्पर्धा के दौर में और भी बढ़ गया है। कुछ अभिवावक व अन्य लोग सर्वाधिक अंकांे, उन्नत कैरियर जैसे आईएस, सीए, डाॅक्टरी को ही महत्व देते हैं जिससे छात्र पर मानसिक दबाव और बढ़ा देते हैं जबकि उसकी अपनी कुछ विषयों को लेकर रुचि व कठिनाइयां होती हैं। विद्यार्थी जीवन के इन दबावों ने आत्महत्या की घटनाओं को बढ़ाया है। आज रोजगार के अवसर लगभग समाप्त हैं। ग्रेजुएशन कर चुकने वाला व्यक्ति केवल किसी दफ्तर में ही अपने लिये सम्भावनायें तलाशता है। लेकिन नौकरी नहीं मिलती। बेरोजगारी अवसाद की ओर ले जाती है और अवसाद आत्महत्या में त्राण पाता है। लेकिन आईआईटी जैसे उच्च संस्थान में अवसाद पसरा है और उसके कारण छात्र यदि आत्महत्या करते हैं, तो यह इस उच्च शैक्षणिक संस्थान के भाल पर बदनुमा दाग है। क्यांे नहीं ये संस्थान उच्च शिक्षा के साथ-साथ जीने के मूलभूत सिद्धान्तों के संस्कार देते? यह माना जाता है कि देश की सबसे प्रखर प्रतिभाएं आईआईटी में पहुंचती हैं। इस अर्थ में आईआईटी सिर्फ शिक्षा संस्थान नहीं है, देश के करोड़ों नौजवानों का सपना भी है। बहुत से बच्चे वहां पहुंचने के लिए अपने जीवन के कई साल खपा देते हैं। लोगों की शिकायत सिर्फ एक ही होती है कि देश के बाकी संस्थान आईआईटी की तरह क्यों नहीं हैं? आईआईटी में लगातार हो रही आत्महत्या की खबरें यह तो बताती ही हैं कि आईआईटी में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा, साथ ही वे बहुत से बच्चों और उनके अभिभावकों के सपने को तो तोड़ते ही हैं लेकिन उनकी उम्मीद की सांसों को ही छीन लेते हैं। वैसे अगर हम आईआईटी के बाहर भी नजर घुमाकर देखें, तो इनके अलावा पेशेवर शिक्षा के अन्य संस्थानों की हालत भी कोई बहुत अच्छी नहीं है।
बहुत जरूरी है कि आईआईटी अपनी कार्यशैली एवं परिवेश में आमूल-चूल परिर्वतन करें ताकि छात्रों पर बढ़ते दबावों को खत्म किया जा सके, इन दबावों के कारण ही कुछ छात्र आत्महत्या जैसे कदम उठाने को मजबूर हो जाते हैं। फिलहाल जरूरी यह भी है कि इन परसिरों में एक ऐसे तंत्र को विकसित किया जाए, जो निराश, हताश और अवसादग्रस्त छात्रों के लगातार संपर्क में रहकर उनमें आशा का संचार कर सके, उन्हें सकारात्मकता के संस्कार दे सके। इसके लिए स्थाई तौर पर कुछ मनोवैज्ञानिकों एवं विशेषज्ञों की सेवाएं भी ली जा सकती हैं। हर छात्रावास और हर विभाग के स्तर पर सहायता समूह भी बनाए जा सकते हैं, जो ऐसे छात्रों की पहचान करें, जिनका व्यवहार सामान्य से कुछ अलग दिखता हो। ऐसे उपायों को आपातकालिक योजना के तौर पर तुरंत लागू करना होगा। इन संस्थानों में योग एवं अध्यात्म की कलांश का प्रावधान भी किया जाना चाहिए।
आईआईटी जैसे संस्थानों ने छात्रों का पेशेवर एवं तकनीकी दृष्टि से तो विकास किया है, लेकिन उनसे उसकी मानवीयता, संतुलन छीन लिया। उसे अधिक-से-अधिक मशीन में और कम से कम मानव में तब्दील कर दिया है। एडवर्ड डेह्लबर्ग कहते हैं- जब कोई महसूस करता है कि उसकी जिन्दगी बेकार है तो वह या आत्महत्या करता है या यात्रा।’ प्रश्न है कि लोग दूसरा रास्ता क्यों नहीं अपनाते? आत्महत्या ही क्यों करते हैं? इतने बड़े एवं दुनिया के चर्चित शैक्षणिक संस्थानों में शुमार आईआईटी के छात्र यदि आत्महंता बन रहे हैं तो यह इन संस्थानांे के अस्तित्व एवं अस्मिता पर एक बड़ा सवाल है।
विद्यार्थियों पर कैरियर एवं ऊंचे अंक का दबाव बनाने वाले स्कूलों, अभिभावकों एवं अध्यापकों को भी अपनी सोच बदलने के लिये सकारात्मक वातावरण बनाना होगा। फ्रांसिस थामसन ने कहा कि “अपने चरित्र में सुधार करने का प्रयास करते हुए, इस बात को समझें कि क्या काम आपके बूते का है और क्या आपके बूते से बाहर है।’ इसका सीधा-सा अर्थ तो यही हुआ कि आज ज्यांे-ज्यांे विकास के नये कीर्तिमान स्थापित हो रहे हैं, त्यांे-त्यांे आदर्श धूल-धूसरित होे रहे हैं और मनुष्य आत्महंता होता रहा है। क्या आईआईटी के छात्र स्वयं को समस्याओं से इतना घिरा हुआ महसूस करता है या नाउम्मीद हो जाता है कि उसके लिये जीवन से पलायन कर जाना ही सहज प्रतीत होता है और वह आत्महत्या कर लेता है। आत्महंता होते व्यक्ति के लिये समस्याएँ विराट हो गई है एवं सहनशक्ति क्षीण हुई है। इस स्थिति का बनना हमारी उच्च शिक्षा पद्धति एवं आईआईटी पर भी सवाल खड़े करती है। आत्महत्या किसी भी सभ्य एवं सुसंस्कृत समाज के भाल पर एक बदनुमा दाग है, कलंक हैं। टायन्बी ने सत्य कहा हैं कि कोई भी संस्कृति आत्महत्या से मरती है, हत्या से नहीं।’

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