डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
भारत के मुस्लिम जगत में बबाल मचा हुआ है । मुस्लिम महिलाएँ और मुल्ला मौलवी मुट्ठियाँ ताने आमने सामने खड़े हैं । मौलवियों की सत्ता को भारत में इतनी तगड़ी चुनौती शायद इससे पहले कभी नहीं मिली । कोढ में खाज यह , कि चुनौती भी महिलाओं से मिल रही है । मुस्लिम महिलाएँ ग़ुस्से में हैं । उनके ग़ुस्से का कारण मुसलमानों में अपनी पत्नी को तलाक़ देने के तरीक़े को लेकर है । मुसलमानों को विश्वास है कि यदि पति अपनी पत्नी को तीन बार कह दे , तलाक़ तलाक़ तलाक़ तो तलाक़ की प्रक्रिया पूरी हो जाती है और पत्नी तलाकशुदा घोषित कर दी जाती है । मुसलमान ऐसा भी मानते हैं कि भगवान भी तलाक़ के इसी तरीक़े को मान्यता देते हैं । अब जब दुनियावी तलाक़ की प्रक्रिया को भगवान से जोड़ दिया गया है तो यक़ीनन मामला पेचीदा हो जाता है । इधर हिन्दोस्तान में तलाक़ को कोर्ट कचहरी का मामला माना जाता है , लेकिन यहाँ के मुसलमान इस ज़िद पर अडे हुए हैं कि यह मामला सीधा भगवान के दरबार से जुड़ा हुआ है । इसलिए यदि इसमें दुनियावी ताक़तों ने दख़लन्दाज़ी की तो मज़हब ख़तरे में पड़ सकता है । हिन्दुओं में विवाह को जन्म जन्म के लिए जुड़ गया रिश्ता मान लिया जाता है । लेकिन इसके बावजूद तलाक़ के मामले में हिन्दु कचहरी के निर्णय को ही स्वीकारते हैं । मुसलमानों में विवाह जन्म जन्मांतर का रिश्ता नहीं माना जाता बल्कि इसी जन्म में हुआ कांन्ट्रैक्ट माना जाता है । लेकिन इसके बावजूद मुल्ला मौलवी इस मामले में कचहरी के दखल को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं । बहुत से लोग यह मानते हैं कि हिन्दोस्तान का मुसलमान समाज अभी भी पिछड़ा हुआ है , इसलिए वह अभी तलाक़ को लेकर इन पुरानी दक़ियानूसी बातों से उपर नहीं उठ पाता । लेकिन ऐसा नहीं है । तलाक़ के मामले में मुसलमान पुरुष आधुनिक तकनीक का भी प्रयोग करते हैं । माना जा रहा है कि यदि कोई पुरुष ईमेल से अपनी पत्नी को तीन बार तलाक़ लिख कर भेज दे तब भी तलाक़ स्वीकार हो जाएगा । फ़क़त एस एम एस से भी तलाक़ दिया जा सकता है । किसी नाटक में , नाटक की जरुरत के अनुसार यदि किसी पुरुष पात्र ने किसी महिला पात्र को तीन बार तलाक़ कह दिया और दुर्भाग्य से वह महिला पात्र सचमुच पुरुष पात्र की पत्नी है तो नाटक में बोले गए संवाद ही तलाक़ पूरा कर देंगे ।
लेकिन मुस्लिम महिलाएँ इस प्रक्रिया के ख़िलाफ़ हैं । उनका कहना है कि या तो तलाक़ परस्पर सहमति से हो या फिर गुण देश के आधार पर देश के क़ानून की प्रक्रिया के अनुसार हो । मुस्लिम समाज के मुल्ला मौलवियों ने इस मामले में अपना मोर्चा पूरी मज़बूती से संभाल रखा है । वे तीन तलाक़ को भगवान का फ़रमान मान कर उसकी रक्षा के लिए किसी हद तक जाने को भी तैयार हैं । मुल्ला मौलवियों की सहायता के लिए मुसलमानों ने कई तंजीमें अलग अलग नामों से बना रखी हैं । कई तंजीमों को सरकारी मान्यता भी होगी । कोई मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड है और कोई मुसलमानों के इत्तिहाद की तंजीमें हैं । कोई ओबैस्सी है , कोई सैयद है । इत्तिहाद की ये तमाम तंजीमें औरत के ख़िलाफ़ लामाबन्द हैं । पर्सनल ला बोर्ड का तर्क तो लाजवाब है । उसका कहना है कि यदि मुसलमान पुरुषों को तीन तलाक़ के अधिकार से बंचित कर दिया जाता है तो पुरुष तो अपनी पत्नी से छुटकारा पाने के लिए उन्हें क़त्ल तक कर देंगे या फिर ज़िन्दा जला देंगें । लाहुलबिला कूबत । पर्सनल बोर्ड में बैठे विद्वान लोगों का दिमाग़ किस प्रकार काम करता है , इससे ही सहज अन्दाज़ा लगाया जा सकता है । इन विद्वानों की नज़र में तो मुसलमान औरतों को तीन तलाक़ सिद्धान्त का शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि पुरुष उन्हें सस्तें में ही निपटा रहेलहैं , उन्हें ज़िन्दा जला नहीं रहे । यानि मुसलमान औरतों को तो अपनी रक्षा के लिए तीन तलाक़ के कवच के पक्ष में आन्दोलन चलाना चाहिए । ख़ुदा पर्सनल ला बोर्ड के बन्द कमरों में बैठे दानिशमन्दों को नई रोशनी दे ।
ये सब लोग मुल्ला मौलवियों को पीछे से कुतर्कों का बारुद मुहैया करवा रहे हैं । मुल्ला मौलवियों का दावा है कि तलाक़ की किस पद्धति से भगवान ख़ुश होते हैं , इसकी व्याख्या करने का अधिकार उन्हें ही है । वे अपने इस अधिकार को किसी भी सूरत में छोड़ने के लिए तैयार नहीं है । मुसलमान को क्या खाना पीना , पहनना , ओढ़ना बिछाना चाहिए , इसका निर्णय करने पर मौलवी अपना एकाधिकार छोड़ना नहीं चाहते । पिछले दिनों किसी मोहम्मद शमी ने अपनी फ़ोटो के साथ अपनी पत्नी की फ़ोटो भी फ़ेसबुक पर डाल दी । मौलवियों के सैकड़ों उपासकों ने मोहम्मद शमी से पूछना शुरु कर दिया कि क्या उसे नहीं पता कि मुसलमान को अपनी औरत को किस प्रकार रखना चाहिए ।
ऐसा नहीं कि मुस्लिम महिलाएँ मुल्ला मौलवियों की इस दादागिरी के ख़िलाफ़ पहली बार लड़ रहीं हों । वे पहले भी लड़ती रहीं हैं । लेकिन लगता है कि हर बार ताक़तवर संस्थाएँ मौलवियों का ही पक्ष लेती रही हैं । मौलवियों के हाथ में १९५१ में ही एक ज़बरदस्त हथियार आ गया था जब बम्बई उच्च न्यायालय ने निर्णय दे दिया था कि यदि तथाकथित मज़हबी व्यक्तिगत रिवायतें देश के मौलिक क़ानून से टकराती भी हैं तब भी उनको बदलने की बात तो दूर, छेड़ा भी नहीं जा सकता । इस निर्णय से टकरा टकरा कर मुसलमान औरतों का हौसला पस्त होता रहा था । लेकिन इतिहास गवाह है अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ाई कभी रुकती नहीं । शाहबानो नामक ग़रीब मुस्लिम महिला केवल अपने दृढ़ संकल्प के बलबूते ही अन्याय के ख़िलाफ़ अपनी इस लड़ाई को उच्चतम न्यायालय तक ले गई थीं । तलाक़ तक का दुख तो वह झेल गई थी । वह देश के क़ानून के अनुसार तलाक़ के बाद अपने शहर से केवल गुज़ारा भत्ता की गुहार लगा रही थी । मुल्ला मौलवियों ने अन्त तक उसका विरोध किया । लेकिन देश के क़ानून ने उसका साथ दिया और वह उच्चतम न्यायालय में जीत गई । लेकिन उसकी यह विजय क्षणिक ही रही । इस देश की तथाकथित पंथ निरपेक्ष सरकार ने उनकी पीठ में छुरा घोंपने का काम किया और परोक्ष रुप से मुल्ला मौलवियों की क़तार में शामिल हो गई थी । शाहबानो के दुख का अन्त न रहा जब उसने देखा कि मुल्क की सरकार भी मुल्ला मौलवियों से मिल गई और उसने देश का क़ानून ही बदल दिया । शाहबानो जीत कर भी हार गई । एक बार फिर मुल्ला मौलवियों ने जश्न मनाया । केवल रिकार्ड के लिए बता दिया जाए कि उस वक़्त सरकार राजीव गान्धी की थी ।
लेकिन ये मुस्लिम महिलाएँ हैं कि मुल्ला मौलवियों से अपनी इस लडाई में बार बार हार कर फिर उठ खड़ी होती हैं । यह उनके स्वाभिमान और आत्मसम्मान की लड़ाई है । मौलवियों का कहना है कि मुसलमान पुरुष शादियाँ तो चार कर सकता है लेकिन यदि चाहे तो तीन बार तलाक़ कह कर किसी पत्नी से भी इच्छानुसार छुटकारा प्राप्त कर सकता है । इतना ही नहीं मौलवी इसको इस्लाम मज़हब का हिस्सा भी बता रहे हैं । मुसलमान औरतें मौलवियों की इसी मनमानी के ख़िलाफ़ बार बार मोर्चा संभाल कर खड़ी हो गईं हैं । लेकिन इस बार की लड़ाई में एक बुनियादी अन्तर है । इस बार संघर्ष कर रही इन महिलाओं के साथ देश की सरकार खड़ी है । पिछली बार की तरह सरकार उनकी पीठ में छुरा नहीं घोंप रही । उच्चतम न्यायालय ने सरकार से पूछा है ,बहुपत्नी विवाह और तीन तलाक़ की प्रक्रिया के बारे में आपका किया कहना है ? केन्द्र सरकार ने इस बार उच्चतम न्यायालय में शपथ पत्र देकर कहा है कि इन दोनों रिवायतों का मज़हब से कुछ लेना देना नहीं है । इसके विपरीत ये रिवायतें औरतों की अवमानना ही नहीं है बल्कि उनके आत्मविश्वास व गरिमा को भी ठेस पहुँचाती हैं । इतना ही नहीं जो देश अपने आप को इस्लामी मज़हबी देश घोषित करते हैं , उन्होंने भी तलाक़ व बहुविवाह के मामले में सुधार किए हैं । केन्द्र सरकार का कहना है कि मज़हब की आड़ में औरतों से अन्याय की अनुमति नहीं दी जा सकती है । सरकार ने उच्चतम न्यायालय से आग्रह किया है कि वह वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए इन रिवायतें पर विचार करे । सरकार का कहना है कि प्रश्न यह नहीं है कि कितने पुरुष बहु विवाह करते हैं और कितने तीन तलाक़ का इस्तेमाल करते हैं । यह तो एक निरन्तर चलने वाला तनाव है । औरत निरन्तर इस भय में रहती हैं कि पता नहीं पति कब तीन तलाक़ चिल्ला दे और उसके लिए फिर सब कुछ ख़त्म हो जाए । सरकार ने स्पष्ट किया , इस देश के लोगों की नज़र में यह प्रक्रिया अमानवीय है ।”
इस से मिलती जुलती बात इस बार इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कही है । न्यायालय के अनुसार तीन तलाक़ का समर्थन क़ुरान में नहीं मिलता । तीन तलाक़ एक प्रकार का रिवाज है । इस प्रकार के निर्दयी और अमानवीय रिवाजों की अनुमति किसी भी सभ्य समाज में नहीं दी जा सकती । इलाहाबाद उच्चतम न्यायालय ने इससे भी स्पष्ट शब्दों में कहा कि आज के युग में कोई इस बात का समर्थन कैसे कर सकता है ? तलाक़ को खिलौने की तरह कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है ? पत्नी से जब चाहा खेला और जब मूड बदल गया तो तलाक़ चिल्ला कर किनारा कर लिया और उसकी ज़िन्दगी जहन्नम बना दी । क्या मुस्लिम औरतों को अनन्त काल तक इस अत्याचार में पिसने दिया जा सकता है ? इस दैत्यी व्यवहार से न्यायिक आत्मा आहत होती है । हिन्दोस्तान में मुस्लिम क़ानून हज़रत मोहम्मद की भावना के विपरीत प्रयुक्त किया जा रहा है । ” दरअसल मुल्ला मौलवी मुस्लिम क़ानून के नाम पर हिन्दुस्तान में अपनी दादागिरी दिखा रहे हैं । केवल रिकार्ड के लिए , इलाहाबाद उच्च न्यायालय में बुलन्दशहर की किसी हिना और उसके पति ने याचिका दायर की कि पुलिस और हिना की माँ से उन्हें ख़तरा है , इसलिए उन्हें सुरक्षा मुहैया करवाई जाए । हिना ने अपनी उम्र से तीस साल के बड़े पुरुष से शादी करने के लिए अपना घर छोड़ दिया और तीस साल बड़े मियाँ ने हिना से शादी करने के लिए अपनी पहली पत्नी को तीन बार तलाक़ का फ़रमान पकड़ा दिया । इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने विवाह और तलाक़ की वैधता पर तो कोई टिप्पणी नहीं की क्योंकि मामला उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन है , लेकिन औरतों की इस नारकीय स्थिति पर न्यायालय का दर्द जरुर छलक उठा ।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय की अभी स्याही भी नहीं सूखी थी कि उसके आठ दिन बाद ही तीन तलाक़ पर इसी प्रकार की टिप्पणी केरल उच्च न्यायालय ने की । न्यायाधीश मोहम्मद मुश्ताक़ के अनुसार मज़हब के नाम पर मुस्लिम औरतों पर जो अत्याचार हो रहा है , उस पर सरकार मूक दर्शक नहीं सह सकती । उनको न्याय प्रदान करना उसका सांविधानिक दायित्व है ।
लेकिन मौलवियों को देश के क़ानून और कचहरियों की यह दखलनंदाजी क़तई पसन्द नहीं । मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के उलेमा आग उगल रहे हैं । वे इसे शरीयत पर हमला मान रहे हैं । उनका कहना है कि कचहरियों की यह दख़लन्दाज़ी इस्लाम पर हमला है । उनका कहना है कि तलाक़ जैसे मामलों पर फ़ैसला मज़हबी जानकार ही दे सकते हैं , कचहरियों के लिए इस इलाक़े में में आना गैरबाजिब है । उनसे पूछा गया , जो इस दुनिया में असली इस्लामी देश होने का दावा भरते हैं , मसलन सऊदी अरब जैसे मुल्क , वहाँ तलाक़ की इस ईश्वरीय परम्परा को लेकर क्या स्थिति है ? सब जानते हैं वहाँ यह मध्ययुगीन परम्पराएँ ख़त्म ही नहीं हुईं बल्कि राज्य सरकार ने भी इसे मानने से इन्कार कर दिया है । लेकिन हिन्दोस्तान के मौलवियों और उलेमाओं को लगता है कि इस्लाम की रक्षा का सारा भार उन्हीं पर आ पड़ा है । जिसे वे बहादुरी से उठाए हुए है । लेकिन ग़ौर करने वाली हक़ीक़त यह है कि औरत के ख़िलाफ़ इस प्रकार के फ़तवे जारी करने वाले तमाम मुल्ला मौलवी और तथाकथित उलेमा मर्द ही हैं । शायद वे अपने इस इलाक़े में किसी औरत का अधिकार भी स्वीकार नहीं करते । ताक़तवर मारे भी और रोने भी न दे ।
मुसलमान औरतों के लिए तीन तलाक़ वाला यह मसला जहन्नम बन गया है । बात केवल तलाक़ पर आकर ही समाप्त हो जाती तब भी ग़नीमत थी । बेचारी और अपनी मर्ज़ी से फिर विवाह कर सकती थी । लेकिन मुसलमान औरतों के लिए यह रास्ता भी इतना आसान नहीं है । उसके बीच में हलाला का नर्क पड़ता है , जिसे पार किए बिना दूसरे किनारे पर नहीं पहुँचा जा सकता । हर मोड़ पर मुल्ला मौलवी हाथों में अपनी अपनी व्याख्याओं के तीर लेकर मुस्तैद हैं । ये सारी व्याख्याएँ औरत के ख़िलाफ़ ही जाती हैं । मौलवी अपने आप को मज़हब के पाबन्द कहते हैं और मज़हबी परम्पराओं के हथियार लेकर शिकार करने के लिए मुस्तैद हैं । औरतों की हिम्मत को दाद देनी होगी कि वे फिर भी अपने हकों के लिए लड़ने के लिए लामबन्द हो रही हैं ।
लेकिन लगता है केवल वोटों के लिए मुसलमानों का सामूहिक शिकार करने वाले राजनैतिक दल इस लड़ाई में मौलवियों के साथ उन्हीं की सफ़ों में खड़े हैं । वे अपने अपने तरीक़ों से इन्हीं ठेकेदारों के हाथ मज़बूत कर रहे हैं । मौक़े को पहचान कर और शिकार की गन्ध पाकर उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री हरीश रावत कहीं से नमूदार होते हैं । वे प्रदेश के सभी मुसलमान कर्मचारियों से आग्रह करते हैं कि शुक्रवार को वे डेढ घण्टे के लिए दफ़्तर से बाहर आकर नमाज़ पढ़ें । इसके लिए उन्हें सरकार की तरफ़ से बाक़ायदा छुट्टी दी जाएगी । उधर समाजवादी पार्टी के अबू आसिफ़ आज़मी महाराष्ट्र सरकार से माँग कर रहे हैं कि सारे महाराष्ट्र में भी मुस्लिम मुलाजिमों को यह रियायत देनी होगी । मौलवी और ताक़तवर हो गए हैं । उनके तेवरों में और ज़्यादा तल्ख़ी आ गई है और अल्फ़ाज़ और ज्यादा रोबीले हो गए हैं । मानों वे तीन तलाक़ के मामले में मौलवियों से लड़ रही औरतों से पूछ रहे हों , तुम हमारे निज़ाम को क्या चुनौती दोगी , जब मुख्यमंत्री तक हमारी ताक़त के आगे सिर झुका रहे हैं । बात उनकी ठीक हो सकती है लेकिन शायद वे नहीं जानते , एक चींटी हाथी के सूँड़ में चली जाए तो उसका बचना मुश्किल हो जाता है । इस्लाम क़ुरान पर तो चल सकता है लेकिन मौलवियों के हाथों में पड़कर वह कुछ लोगों की स्वार्थ साधना और औरतों पर अत्याचार का ज़रिया नहीं बन सकता ,जिसका नमूना तीन तलाक़ वाली बहस से साफ़ नज़र आ रहा है ।