कानून सिर्फ गरीबों के लिये अमीरों के लिये नहीं..

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ठंड का मौसम, पसरा हुआ कोहरा, सर्द हवाएं, खुला आसमान और उस पर तन पर ना के बराबर कपड़े। जरा सोचिये ऐसी स्थिति में कोई भी आदमी कैसे रह सकता है। लेकिन भारत में लाखों लोग ऐसे है जो इस तरह जीने पर मजबूर है। सर्दी से बचने के नाम पर उनके पास सिर्फ चन्द कपड़े है। अकेले दिल्ली में हजारों लोग ऐसे बदतर हालात में गुजर-बसर कर रहे है। और सरकार द्वारा इनके लिये कोई खास इंतजाम नहीं किये जा रहे, उल्टा इतनी सर्दी में बिना नोटिस के दिल्ली सरकार और एम.सी.डी. गरीबों के बसेरों को उजाड़ने का काम कर रही है। ये सब राष्ट्रमंडल खेलों के मददेनजर किया जा रहा है। इन गरीबों के लिये बसेरे कि जिम्मेदारी भी सरकार और एम.सी.डी. की है, हालांकि खाना पूर्ति के लिये झुग्गियां उजाडने के बाद कुछ तम्बु जरूर लगा दिये गये, जो पर्याप्त नहीं थे। लेकिन इन सबके बीच उस 6 दिन के बच्चे का क्या कसूर जिसको उसकी मां खुले आसमान के नीचे सुलाने की नाकाम कोशिश कर रहीं थी। सवाल यहीं उठते है की दिल्ली सरकार मानवता तक भूल गयी है? ये वहीं सरकार है न जिसने इन लोगो को यहां के पते वाले वोटर कार्ड दिये थे? वोट लेते समय तो नेता जी ने भी बड़े-बड़े वादे किये होंगे, पर अब वो वादे और वो नेता कहां है?

दिल्ली को साफ-सुथरा बनाया जा रहा है। अवैध निर्माणों को हटाया जा रहा है। लेकिन क्या ये सब गरीबों के लिये ही है? दिल्ली के अन्दर कई एसी अवैध कॉलोनियां है जिनमे अमीर व रसूख वाले लोग रहते है, उन पर न तो एम.सी.डी. और न दिल्ली सरकार कोई कदम उठा रही है। उल्टा दिल्ली सरकार द्वारा अवैध जगहो पर वैध बिजली व पानी के कनेक्शन बाटे जा रहे हैं। इस सबको क्या कहा जाए? वो अमीर और रसूख वाले लोग तो अपने-अपने घरो में रजाई में बैठे चाय की चुस्की का मजा ले रहे होंगे लेकिन गरीब और बेघर लोग तो बस इस ठंड में किसी तरह जीने की जद्दोजहद में लगे होंगे। कानून सिर्फ गरीबों और मज़लूम लोगों पर ही लागू होता है क्या? और ऐसे में गरीबों की पैरवी करने वाले और मानवाधिकार के लिये चिल्लाने वाले लोग कहां सोये हुए है? उनके कानों में तो जूं भी नहीं रेंग रही है।

गरीब आदमी की जिन्दगी तो बस एसे ही कटती रहेगी और हम अपने-अपने एयर टाइट कमरों मे मज़े से आराम की नींद लेते रहेंगे…चलिये अपने दिल को यूं ही बहलाइये की ”हम कर भी क्या सकते है?” और सो जाइए…मेरी ओर से जब सोओ तब गुड नाइट।

-हिमांशु डबराल

2 COMMENTS

  1. सरकार के साथ साथ शायद हम सब लोग भी इसके दोषी है . आजादी के ६२ साल बाद भी हम लोग गावों को आत्म निर्भर नहीं बना पाए . तभी तो गरीब ग्रामीणों को शहर आ कर मजदूरी करनी पड़ती है और शहर पर भी बोझ पड़ता है. जरुरत शहर मे सुविधा बढाने के नहीं है बल्कि गावों में रोजगार के साधन
    विकसित करने की है वर्तमान सूचना क्रांति के युग में यह संभव भी है . आखिर कब तक हम विकास को शहर तुक ही सीमित रखेगे . अलवर

  2. डबराल जी आपकी बात १०० % सही है पर आम आदमी की आवाज आप जैसे लोग उठाते हैं और बस कुछ दिन के वाद सब कुछ भुला दिया जाता है . अगर देश की जनता जो जनता जनार्दन वन जाये और नेताओं को इलेक्शन मैं उनकी कलाई खोल दे तभी कुछ संभव है अथवा तो इसी तरह सिलशिला चलता रहेगा और नेतागण अपनी रोटियां सकते रहेगे. जनता धोरी देर के लिए चिल्लाती है और भीर भगवन के भरोसे सब कुछ छोड़ कर सो जाती है
    जय हिंद
    सुनीता अनिल रेजा. मुंबई

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