भौतिक संसार के अज्ञान से मनुष्य को उबारती है श्रीमद् भगवद गीता

– राजीव मिश्र

श्रीमद्भगवद्गीता श्री कृष्ण तत्व दर्शन की परमात्मा संहिता है। गोबिंद का यह भगवद गीत, ब्रहम विद्या, शब्द ब्रहम का सामगान, भगवती श्रुति की संज्ञा से परिभाषित हुआ है। गोवर्धनधारी गिरिधर योगेश्वर का सहज सिध्द योगशास्त्र है। धर्म धुरंधर धर्माचार्यों ने इसे वेदमाता गायत्री मंत्र का परम रहस्य घोषित किया है। ज्ञानियों, आचार्यों और दर्शनशास्त्र के मर्मज्ञों ने इसे वेदार्थ सार संग्रह से नामांकित किया है। कर्मयोगियों ने इसे पंचम कर्मवेद, जीवन का युध्दोपनिषद और कर्म विजय का सहज सिध्द साधन माना है। संतो, भक्तों ने इसे साक्षात् कामधेनु, कल्पवृक्ष, सिध्द सरस्वती पर ब्रहम परमेश्वर का साक्षात प्रकट परमधाम बतलाया है।

भारतीय संस्कृति के उन्नयन के कृत संकल्प सभी धार्मिक, आध्यात्मिक अथवा साहित्य ग्रन्थों का मूल उद्देश्य रहा है मानव को उदार बनाना, उनमें नैतिकता का संचार करना, उसको सदजीवन संचालित करने की प्रेरणा देना, उसके जीवन संचालन में आ रही कठिनाईयों का हल खोजने के लिए उसे विवेकपूर्ण मार्ग पर प्रेरित करना और अंत में जीवन की सारी लालसाओं और दोषों से मुक्त करके हरिनाम लेते हुए प्रयाण कराना। गीता का भी यही प्रयोजन रहा है। भगवद्गीता का प्रयोजन मनुष्य को भौतिक संसार के अज्ञान से उबारना है।

गीता ईश्वर की वाड्गमयी मूर्ति है। यह अर्जुन के प्रति श्रीकृष्ण का उपदेश है। अर्जुन नर है, श्री कृष्ण नारायण हैं। इस प्रकार इसे नर-नारायण संवाद भी कह सकते हैं। वास्तव में मनुष्य और ईश्वर के बीच संवाद होने के कारण गीता में एक सार्वभौम और सर्वकालोचित दर्शन के मूल स्वरूप का चित्रण है। इसे ग्रन्थ में आमोद या समबोध का प्रतिपादन होने से यह मानव-धर्म का एक अप्रतिम एवं मंगलकारी ग्रंथ बन गया है।

यह ग्रंथ वाणी, जाति, देश अथवा किन्ही अन्य झगड़े में नहीं पड़ता। दूसरे धर्मों के विषय में भी इसमें सहिष्णुता दिखलायी गई है। इस ग्रंथ में ऐसी कोई भी बात नहीं कही गई है, जिसे आज की भाषा में संकीर्ण अथवा साम्प्रदायिक कहा जा सके। इसके विपरीत इसमें मानव का वह आचार-विचार वर्णित है जो मनुष्य को ईश्वर के समीप ले जाने में सहायक है। यह भी कहा जा सकता है कि यह (गीता) प्रत्येक देश, प्रत्येक युग के प्रत्येक मनुष्य के लिए एक आदर्श आचार संहिता है।

गीता के सैकड़ों अनुवाद हुए। इस पर हर युग में अनेक लोगों ने टीकाएं लिखीं। इसके निर्वचन के अनेक प्रकार आए। वस्तुतः गीता आत्मान्वेषण के लिए एक चुनौती है। इसमें निहित सत्य सार्वभौम एक सार्वकालिक है। इसीलिए प्रत्येक युग में विचारक, चिंतक और कवि इसे समझना चाहते हैं।

गीता उपनिषद के ‘तत् त्वमडसि’ महाकाव्य का प्रकारान्तर से व्याख्या प्रस्तुत करती है। दार्शनिक दृष्टि से इस ग्रंथ का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि शंकराचार्य ने इसे वेदान्त दर्शन का प्रस्थान अथवा मूल स्रोत बता कर इस पर अपना प्रसिध्द भाष्य लिखा है। इसके अतिरिक्त रामानुज, मध्व, वल्लभ, निम्बार्क सम्प्रदाय के अनुयायी तथा अभिनव गुप्तपादाचार्य और केशव काश्मीरी ने अपने-अपने सिध्दांतों के अनुसार इस पर अपने-अपने भाष्यों की रचना की है।

गीता को सर्वशास्त्रमयी कहा गया है। इसमें धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र एवं समाजशास्त्र भी है। आधुनिक मनीषियों के अनुसार ये शास्त्र विश्व के पालन-पोषण तथा संचालन-प्रशासन में उपकारक है। इस दृष्टि से राजनीति के अनेक पुरोधाओं ने गीता के सिध्दांतों के प्रयोग किए हैं। ऐसे मनीषियों में लोक मान्य बाल गंगाधर तिलक, योगिराज श्री अरविंद तथा महात्मा गांधी, विनोवा भावे आदि अग्रगण्य हैं। इन लोक नायकों ने गीता को आधुनिक समाज-व्यवस्था के निर्माण में उपयोगी पाया है।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे- लोग गीता तो पढ़ते हैं पर उसके संदेश को नहीं सुनते हैं। गीता कहती है-त्यागी बनों पर हम त्यागी नहीं बनते। गीता के उपदेशों को सुनकर अर्जुन ने क्या किया उसी से स्पष्ट हो जाना चाहिए कि भगवान श्रीकृष्ण ने क्या उपदेश किया था। भगवान अंत तक अर्जुन के पथ प्रदर्शक, सलाहकार और सखा बने रहे- इससे यह स्पष्ट हैकि उसने जो कुछ किया उससे उनको संतोष था। अतः गीता हमें यही सिखाती है कि हम वही करें जो अर्जुन ने किया था। हम ईमानदारी के साथ अपने कर्तव्य का, अपने निःशेष कर्तव्य का पालन करें ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’।

गीता समस्त विश्व के लिए अनमोल ग्रंथ ही नहीं, बल्कि अमर ग्रंथ है जिसमें अमृत रूपी ज्ञान का कोष है। गीता के अमृत का पान करके केवल भारतवासी ही नहीं अमर होते हैं बल्कि सम्पूर्ण विश्व के मानव अमर हो जाते हैं। केवल मानव के हित एवं कल्याण का ही संदेश और मार्गदर्शन इसमें नहीं है बल्कि इसमें संपूर्ण ब्रहमाण्ड के समस्त जीवों तथा प्राणिमात्र के कल्याण की कामना है।

गीता से कल्याण ही कल्याण होता है। परन्तु गीता के ज्ञान का प्राप्त करके मन और मस्तिष्क के कोष में संग्रह करना ही पर्याप्त नहीं है। इसके पश्चात सतत् तथा सदैव अपने व्यवहारिक जीवन में इसका आचरण करना ही श्रेयस्कर है क्योंकि ज्ञान के अनुसार आचरण करने पर ही कल्याण संभव है।

1 COMMENT

  1. आदरणीय मिश्र जी
    श्रीमद भगवद्गीता पर आपका आलेख समीचीन है .संसार की प्रत्येक शंका का .जीवन की सार्थकता का .जीवन के पूर्व एवं पश्चात् का .ज्ञान कर्म भक्ति योग के द्वारा समाधान तथा प्रकृति पुरुष के सम्पूर्ण ब्रह्मांड में अनंत विस्तार को रेखांकित करती हुई भगवन वेद व्यास की मेधा शक्ति को नमन .
    आपके आलेख में जहाँ ” तत त्वमसि” का महाकव्य लिखा गया. वहा महाकव्य को हटाकर महावाक्य लिखा जाये तो कथ्य निरूपण में सार्थकता होगी .

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