ममता के गुरुर से गठजोड़ का सारा गुड़ गटर में

-प्रकाश चण्डालिया

वो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन,उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर छोडऩा अच्छा पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और ममता बनर्जी की पार्टी के बीच निगम चुनावों को लेकर सीटों की छीना-झपटी के सियासी खेल की पूर्णाहुति जिस अंदाज में हुयी, उस पर हिन्दी फिल्म का यह मशहूर गाना बहुत फिट बैठता है।

कांग्रेस के साथ गठजोड़ होने के बावजूद एकला चलो रे के पथ पर बढऩे वाली ममता की चाल की भनक कांग्रेस को थी तो बहुत पहले से, लेकिन केंद्रीय मजबूरी के चलते आलाकमान ने शायद आंखें मूंद रखी थीं। अब जबकि 30 मई को कोलकाता नगर निगम की 141 सीटों पर होने वाले चुनाव के लिए ममता ने कांग्रेस की रजामंदी के बगैर अपने 115 प्रार्थियों का ऐलान कर दिया तब कांग्रेस को झटका लगना लाजिमी था। ममता ने कांग्रेस को मात्र 25 सीटों की भिक्षा दी थी (एक सीट एसयूसीआई को दी गयी है) जबकि सीटों की शेयरिंग पर चल रही बातचीत के दौरान कांग्रेस ने ममता से 51 सीटें मांगी थीं। ममता ने कांग्रेस को जो 25 सीटें बख्शीं, उनमें अधिकतर वे सीटें थीं जहां से तृणमूल के जीतने की संभावना नहीं थी और कांग्रेसी उम्मीदवार के लिए जीतना नामुमकिन जैसा था। इनमें दो-तीन सीटें वे थीं, जहां भाजपा प्रार्थियों को तृणमूल या कांग्रेसी तो क्या, वामपंथी भी नहीं हरा पाते।

कोलकाता नगर निगम की बागडोर वामपंथियों से छीन लेना कांग्रेस-तृणमूल के लिए इस बार कहीं आसान था और राजनैतिक विश्लेषक मान रहे थे कि निगम व लिका चुनावों में यह गठजोड़ वामपंथियों को जगह-जगह धक्का देने में कामयाब रहा तो अगले साल विधानसभा चुनाव में बहुमत हासिल करना ज्यादा आसान रहेगा। परिवर्तन की बयार में वामपंथियों के हितैषी बुद्धिजीवी, कलाकार, लेखक-रचनाकार सभी शामिल हो चुके थे। अल्पसंख्यक मतदाता भी वामपंथियों का दामन छोड़ चुके थे। एक पखवाड़े पहले तक के सियासी गणित पर चर्चा करें तो निचले निकायों का सेमीफाइनल और अगले साल का फाइनल जीत लेने की बाजी बिल्कुल हाथ में थी। तभी अचानक ममता ने अपनी अकड़ का ऐसा तम्बू गाड़ा कि कांग्रेस के दिग्गज नेता भी लाख मान-मनव्वल के बावजूद इस अग्निकन्या को नहीं मना सके। नतीजा- डेढ़ साल पहले साथ जिएंगे-साथ मरेंगे के वादों पर खड़ा गठजोड़ धराशायी हो गया और कांग्रेस ने भी 25 सीटों की भिक्षा के कटोरे को दूर फेंकते हुए अपने 88 प्रार्थियों के नामों का ऐलान कर दिया। अब कांग्रेस व तृणमूल-दोनों पार्टियां निचले चुनावों में एक-दूसरे के सामने अपने प्रत्याशी लड़ाएंगी। जाहिर है, यह कोई नूरा कुश्ती नहीं होगी। दोनों पार्टियों को एक दूसरे के खिलाफ बातें करनी होंगी, गठजोड़ करने और तोडऩे के कारण बताने होंगे। राजनैतिक रूप से सचेतन बंगाल के मतदाता पर कोई फरेबी कौल नहीं चलता, यह ममता और कांग्रेस-दोनों को बखूबी समझ में आ जाएगा।

गठजोड़ करने के बावजूद उसके बुनियादी धर्म का पालन करना ममता ने नहीं सीखा है। यही कारण है कि वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में पलकों पर बिठाए जाने के बावजूद उन्होंने एनडीए छोड़ा और कई वर्षों तक उनकी पार्टी को कोपभवन में रहना पड़ा। जब गलती का एहसास हुआ तो पाला बदलकर यूपीए के पाले में आ गयीं और अब वहां भी वही पैंतरा चल रहा है। बंगाल की सियासत की समझ रखने वाले दिग्गज मानते हैं कि गठजोड़ के बावजूद प्रत्येक पार्टी अपना हित देखने को स्वतंत्र है, फिर भी साझा पथ पर चलने के लिए परस्पर विश्वास और समझदारी होनी ही चाहिए। इसके लिए लोग वामफ्रंट का उदाहरण दे रहे हैं, जो तमाम परस्पर विरोधाभास के बावजूद 33 वर्षों से अटूट बना हुआ है। वाममोर्चे में रहने के बावजूद माकपा, भाकपा, फॉरवर्ड ब्लॉक, आरएसपी जैसी पार्टियां कई फैसलों के खिलाफ खुलकर सामने आती हैं, पर मोर्चे की बुनियाद हिलाने की शर्त पर कतई नहीं। खुलापन होने के कारण ही वाममोर्चा बाकायदा राज कर पा रहा है।

ममता के मामले में ऐसा नहीं है। वे अपनी पार्टी में सांसदों, विधायकों, पार्षदों और कार्यकर्ताओं को कभी हेडमास्टरनी की तरह डपटती हैं, तो कभी हंटर लेकर हांकती नकार आती हैं। उनके तेवर मायावती और जयललिता से बहुत अलग नहीं दिखते।

बंगाल में वामपंथियों का राज महज 5-7 फीसद मतों की बढ़त पर टिका हुआ है। ममता कांग्रेस गठजोड़ के कारण वाममोर्चा विरोधी मतदाताओं का रूझान इस डेढ़ साल में जिस तेजी से बढ़ा और एकत्रित हुआ, उसे देखकर साफ माना जा रहा था कि ममता अगले साल राइटर्स बिल्डिंग से लाल हुकूमत को उखाड़ फेंकेंगी। कांग्रेस भी ममता बनर्जी को इमानदारी से मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करके चल रही थी (हालांकि राहुल गांधी की आंख की किरकिरी बन रहे बुढ़ऊ प्रणव मुखर्जी बढ़ती उम्र का बहाना बनाकर दिल्ली छोड़ बंगाल में मुख्यमंत्री बनने का सपना पाले हुए थे, ऐसा उनके करीबियों का मानना है)। लेकिन जिस प्रकार ममता ने कांग्रेसी कुनबे को किनारे लगाकर अपनी पैठ बढ़ाने की चाल चली, तभी सब गुड़ गोबर हो गया। कांग्रेसियों ने प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय पर चार बार तोडफ़ोड़ कर जबर्दस्त हंगामा बरपाया, 5 जिलाध्यक्ष आमरण अनशन बैठे। ऐसे में आलाकमान के कान खड़े होने ही थे।

गठजोड़ तोडऩे के लिए ममता ने कांग्रेस को दोषी ठहराया है और जाहिर तौर पर कांग्रेस ने ममता को। दोनों पार्टियों के अपने तर्क हैं, और अपने तेवर। क्योंकि दोनों को अपने कार्यकर्ताओं के बिखर जाने का खौफ भी सता रहा है। पर एक बात साफ है, गठजोड़ में आयी दरार से कोलकाता नगर निगम पर कब्जा जमाने का खेल अब इकतरफा नहीं रह गया है। विपक्षियों की टूट का सीधा फायदा वाममोर्चे को मिलने जा रहा है और आने वाले दिनों में कांग्रेसियों का सिरफुटव्वल बदस्तूर जारी रहा, तो 2011 में ममता का मुख्यमंत्री बनने का सपना भी धराशायी हो सकता है। वह बमककर केंद्र से समर्थन खींचती हैं, तो उनके लिए और आत्मघाती होगा क्योंकि सभी जानते हैं कि कंगाल प्रदेश पश्चिम बंगाल को तरक्की के लिए केंद्र की मदद पर ही पलना है। और यदि केंद्र से दुश्मनी रही तो वही होगा जो इस समय वाममोर्चे के साथ हो रहा है।

हालांकि यह केवल कयास भर है, फिर भी वैकल्पिक तौर पर कांग्रेस को वामपंथियों का परोक्ष समर्थन मिल जाए तो भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वामपंथियों की एकमात्र चिन्ता बंगाल में हुकूमत बचाने की है और इसके लिए वे ममता को दरकिनार करने की इकलौती शर्त पर कांग्रेस का कहा सब कुछ स्वीकार करने को तैयार हो जाएंगे। मनमोहन सिंह और बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की अपनी अलग केमिस्ट्री है जो ममता की तुलना में कहीं अधिक फिट बैठती है। गृहमंत्री चिदम्बरम भी बंगाल के मुख्यमंत्री को नाकाबिल कहने से परहेज करते रहे हैं। ममता के बारबार दबाव देने पर शब्दकोशीय परिभाषा में दो-एक शब्द कहकर हमेशा बचते रहे हैं। ममता इससे चिढ़ती भी हैं।

यूपीए से तृणमूल के समर्थन खींचने की शक्ल में कांग्रेस को वामपंथियों का समर्थन दिल्ली में तुम्हें हम खुश रखेंगे, तुम हमें बंगाल में खुश रखो की शर्त पर मिल जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यदि ऐसा होता है, तो ममता का राजनैतिक भविष्य दांव पर लग जाएगा और बंगाल का मतदाता उन्हें कभी माफ नहीं करेगा। पर यह बहुत हद तक सोनिया गांधी के मूड पर निर्भर करेगा।

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