फरवरी का महीना

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फरवरी का महीना बड़े उतार चढ़ाव वाला रहा। दुख, त्रासदी,आक्रोश दोषारोपण के साथ देश में देश भक्ति और संवेदनशीलता की पर अजीब सी बहस चल रही थी। जो एकता दिखनी चाहिये थी वह नहीं दिखी। जब हम अपने परिवार के भीतर किसी बात को लेकर लड़ रहे होते है, परिवार के मुखिया से भी बहस कर लेते हैं पर बाहर से आकर कोई बुला भरा कहे तो पूरा परिवार आपसी मतभेद भुला कर एक हो जाता है। भारत में ऐसा नहीं हुआ यहाँ मोदी भक्त भक्ति करते रहे और विरोधी विरोध करते रहे यहाँ तक कि उन्होंने सारे मुसीबत की जड़ ही प्रधानमंत्री को बता दिया। इस घटनाक्रम को ही राजनीतिक साज़िश करार कर दिया गया था, इससे देश की छवि को ही नुकसान पहुँचा। आखिर जनता ने ही बीजेपी को और मोदी जी को सत्ता सौंपी थी। यदि आप उनसे असंतुष्ट हैं तो हमारा संविधान आपको अपनी बात कहने की इजाजत देता है, लेकिन जब बाहरी शक्तियाँ देश के लिये ख़तरा हों तो सब को देश की सरकार के साथ होना चाहिये था

 14 फरवरी को जब पुलवामा में सी. आर.पी एफ़ की बस पर हमले में जवान शहीद हुए तो टीवी पर वही कॉग्रेस बीजेपी की तना तनी चल रही थी। कुछ समय बाद ये तना तनी ख़त्म हो गई विपक्ष संयत हो गया मगर सोशल मीडिया अति सक्रिय हो उठा। जब पुलवामा की ख़बर आई तो मोदी जी कहीं शूटिंग कर रहे थे, कोई वीडियो बन रहा था इस बात को बहुत उछाला गया और कहा गया कि मोदी संवेदन हीन व्यक्ति हैं। उनकी तरफ़ से ख़बर आई थी कि प्रधान मंत्री को सूचना देने में देर हो गई इस पर लोगों को विश्वास नहीं हुआ। इस घटना का समाचार देर से मिला या नहीं इस बात पर बहस करने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि हर स्थिति से निपटने के सब के तरीक़े अलग होते हैं। कोई दुख में डूब कर अवसाद ग्रस्त हो जाता है कोई शांत रहकर सब काम यथावत करता है वह  The show must go on में विश्वास रखता है। यही मोदी जी कर रहे थे। अपनी पद और गरिमा के अनुकूल निर्णय ले रहे थे और पूर्व निर्धारित कार्यक्रमों में बिना परिवर्तन किये चुनावी रैलियाँ कर रहे थे। व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना है कि ये चुनावी रैलियाँ उन्हे रद्ध कर देनी चाहिये थीं , इसलिये नहीं कि ऐसा करना ग़लत था बल्कि इसलिये क्योंकि जनता उन्हें संवेदन हीन समझ रही थी, उनकी छवि को नुकसान हो रहा था। चुनाव में भी इन रैलियों की वजह से कोई फ़ायदा नहीं मिलने वाला था, कुछ नुकसान ही हुआ होगा। वहाँ जब 40 जवान शहीद हुए तो चुनावी भाषण का असर उलटा ही होना था।

सोशल मीडिया पर एक बहस सी हो रही थी कि पुलवामा की आतंकवादी घटना के बाद कौन कितना दुखी है! किसका दुख सच्चा है किसकी दुख दिखावा है! ऐसा लिखते समय कहीं कहीं लोगों का राजनीतिक झुकाव और किसी कौम या व्यक्ति के प्रति दुराग्रह भी नज़र आ रहा था। भाषा की अभद्रता सहनशीलता की सीमा लाँघ रही थी, हर एक अपने को देश प्रेमी साबित करने में लगा था।

हर एक की दुख सहने की सीमा और उसे अभिव्यक्ति करने के तरीक़े अलग हो सकते है, दुख को कैसे सहें उसके तरीके अलग हो सकते हैं। आपका तरीका आपके लिये सही है पर दूसरा वह तरीका नहीं अपना रहा तो इसका ये अर्थ नहीं है कि वो दुखी नहीं है या उसका दुख नक़ली है। कोई कवि कह रहा था कि उससे कविता नहीं सूझ रही, पता नहीं लोग दुख में कैसे काव्य रच रहे  हैं। सही है कभी कभी कविता नहीं लिखी जाती…. शब्द ही रूठ जाते हैं पर हो सकता है दूसरे किसी कवि की भावनाओं को शब्द मिल गये हों और अभिव्यक्त करके वो हल्का महसूस कर रहा हो। किसी मित्र ने लिखा कि ऐसी आतंकवादी घटना की निंदा और विरोध में जो अपनी वाल पर कुछ भी नहीं लिख रहा वह देश विरोधी है। चुप्पी देश  विरोधी कैसे हो गई।

कोई हँस रहा है, जन्मदिन दिन मना रहा है, शादी में शिरकत कर रहा है, रैस्टोरैंट में खाना खा रहा है या सिनेमा देख रहा है तो उसका दुख नकली है! ऐसे विचार प्रकट किये जा रहे है! मतलब आप चाहते क्या थे कि सारा देश अवसाद ग्रस्त हो जाये या आक्रोश में देश की संपत्ति को नुकसान पहुँचाये या यातायात रोके, बंध करवाये! नारे लगाये और सड़कों पर आ जाये। दुख था तो कुछ पीड़ित परिवारों की मदद कर देते, अपनी डी. पी. काली करते या  मोमबत्ती जलाते पर अपने दुख की तुलना दूसरे के दुख से तो न करते ।यदि कोई किसी देशद्रोही गतिविधि में संलग्न नहीं था तो उसे किसी को ये बताने की ज़रूरत नहीं थी कि वह कितना दुखी हैं और उनका दुख असली है या दिखावा!

कुछ लोग फ़िज़ूल की अटकलें लगाने से बाज़ नहीं आ रहे थे। ये माना कि सुरक्षा में कहीं न कहीं चूक हुई थी पर ये कहना कि ऐसा जान बूझ कर राजनीतिक लाभ के लिये करवाया गया है सरासर ग़लत था। विपक्ष के पक्षधर बिना किसी प्रमाण के इस प्रकार की बातें फैला रहे थे। कोई सवाल करें तो कहा कि संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। अटकलें तो कुछ भी लगाई जा सकती हैं…. ये भी हो सकता है…… वो  भी हो सकता है………..पर  कठिन समय अप्रमाणित बात कहना वह भी जनता द्वारा चुने गये नेता के लिये बेहद गैर जिम्मेदाराना था ।

इस समय सोशल मीडिया पर व्यंग्य किये जाते रहे ‘कड़ी निंदा’ की खिल्ली उड़ाई गई। कुछ करते नहीं  देश के नेतृत्व पर ये आरोप लगाया गया। यद्ध के लिये जनता ललकार रही थी लग रहा था हर भारतवासी कफन सिर पर बाँध कर युद्ध के लिये पाकिस्तान को ललकार रहा है । तभी एक मुहिम चली  Saynotowar, दोनों पक्ष आपस में उलझ कर तू तू मैं मैं कर रहे थे और एक दूसरे को देशद्रोही कह रहे थे। हमारे प्रधानमंत्री अपने भाषण करते हुए नाटकीय और असंवदन शील दिख रहे थे, प्रधानमंत्री ने बस इतना कहा सैनिक कार्यवाही कहाँ कैसे कब करनी है, ये निर्णय उन्होने सेना के ऊपर छोड़ दिया है ।

पुलवामा हमले के तेरहवें दिन वायु सेना ने पाकिस्तान की सीमा में घुसकर बम गिराये जिनका लक्ष्य केवल आतंकी ठिकाने था। इससे पहले कि सेना या सरकार कोई वक्तव्य जारी करती हमारी अति उत्साहित मीडिया ने मरने वालों की संख्या बतानी शुरू कर दी. इनका आँकड़ा 200 से 400 के बीच बताया जा रहा था। हमारा देश अतिशयोक्तियों का देश है कहीं कहीं ख़ूब जश्न मने, कहीं सारी कार्यवाही को चुनावी साज़िश कह दिया गया।

अगले दिन पाकिस्तान ने हवाई हमले की कोशिश की, जिसे हमारी वायु सेना ने नाकाम कर दिया, लेकिन हमारा एक पायलेट अभिनंदन उनकी गिरफ्त में था। अब सारा देश अटकलें लगा रहा था, जिनेवा कन्वैंशन की बात हो रही थी। उधर गैर ज़िम्मेदार लोग सोशल मीडिया पर लहु-लुहान अभिनंदन की फोटो शेयर कर रहे थे। इस पूरे घटनाक्रम को चुनावी रंग दे दिया गया था। कुछ लोग कह रहे थे  कि इस हमले का श्रेय किसी नेता या पार्टी को नहीं बल्कि केवल वायु-सेना को देना चाहिये। वायु- सेना को श्रेय देने से कोई नहीं रोक रहा था, परन्तु निर्णय लेने की स्वतंत्रता भारत सरकार ने सेना को दी है। सरकार बीजेपी की है जिससे प्रधानमंत्री मोदी जी हैं। हमारे यहाँ सेना का राज तो है नहीं इसलिये इसका श्रेय भारत सरकार को देना तो पड़ेगा, चाहें अन्य मोर्चों पर आप उसकी भरपूर आलोचना करें।

हम भी अजीब है! कल तक जिनका ख़ून खौल रहा था ‘निंदा’ पर व्यंग्य किये जा रहे थे कर्म करने की सलाह दी जा रही थी आज वही लोग कर्म को राजनीति से प्रेरित कह रहे है। यहाँ तक कि मानो पुलवामा हमला करवाना भी एक चुनावी साज़िश थी। ये तो हद ही हो गई। मुश्किल समय वक्त हमें देश के प्रधानमंत्री और सरकार के साथ खड़ा होना चाहिये था । मैं यही कर रही थी, जिसकी वजह से कुछ लोगों को मुझे भक्त कह रहे थे! भक्त तो सब जानते हैं कि अब मोदी जी के समर्थकों को कहा जाता है। मैंने उनके नेतृत्व की आलोचना भी की है और कुछ मुद्दों पर सराहना की है । कुछ लोग जो सोशल मीडिया पर इलैक्ट्रौनिक मीडिया को कोसते रहे वही लोग सोशल मीडिया पर क्या कर रहे थे! अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धता दिखा रहे थे। आज जबकि विपक्ष तक बयानबाज़ी से बच रहा था, यहाँ बेहूदा बयानबाज़ी हो रही थी । भले ही प्रधानमंत्री से मेरे या आपके सैंकड़ों मतभेद हों परन्तु इस देश की जनता ने उन्हे चुना है इसलिये हम उनके साथ खड़े रहे थे

अभिनंदन की प्रतीक्षा लम्बी रही, पाकिस्तान ने इसके लिये शांति दूत का चोला पहन कर अपनी स्थिति विश्व के सामने मजबूत की, यहाँ तक शांति का नोबल पुरस्कार मिलने की भी अपेक्षा की गई जबकि सीमा पर फायरिंग गोला बारूद चलता रहा सैनिक शहीद होते रहे। सैनिकों का शहीद होना मीडिया के लिये कोई नई बात नहीं थी इसलिये सारे चैनल्स वाघा बॉर्डर से हिले नहीं।ये सभी चैनल्स टी आर पी के हिसाब से चलते हैं और टी आर पी  उन ही को मिलती है जो हम देखते हैं इसलिये वो हर वो ख़बर सुनाते हैं जिसे सब देखना चाहते हैं,  इसे भी चुनावी दाव  पेंच कहा गया । मीडिया  पर आरोप लगा कि मीडिया ने अन्य शहीद हुए जवानों की ख़बरों को अनदेखा किया। ख़ैर अभिनंदन सुरक्षित आ गये, यह बहुत अच्छी बात है। हालाँकि इमरान ने भला काम अंतर्राष्ट्रीय दबाव में किया है पर मैं उन्हें धन्यवाद ज़रूर कहूँगी। अभिनंदन की रिहाई का श्रेय किसें दें ये भी बहस हुई और इमरान का औपचारिक शुक्रिया करते करते कुछ लोगों को इमरान से प्यार तक हो गया! ये क्या हो गया है देशवासियों को! देश के प्रधानमंत्री का विरोध करते करते आप पाकिस्तान परस्त हो गये !

पुलवामा की दुखद घटना के बाद वायु सेना ने जो किया उसकी जितनी प्रशंसा की जाये कम है परंतु इसका श्रेय भारत सरकार को देना तो पड़ेगा क्योंकि यहाँ सेना का राज नहीं है, युद्ध तो आख़िरी विकल्प होता है युद्ध न वो चाहते थे न हम ।ये प्रचार सोशल मीडिया और मीडिया बेवजह कर रहे थे। सोशल मीडिया पर एक युद्ध सरकार व मोदी जी के समर्थकों और मोदी जी को नापसंद करने वालों के बीच चल रहा था जबकि विपक्ष कुछ दिन संयत रहा

मोदी जी ने उस समय जो निर्णय लिये सही थे पर काश वो इस समय चुनावी रैलियों से परहेज़ करते। काश पूरा देश संगठित दिखता। चुनाव तो होना ही है पर इन घटनाओं को चुनावी राजनीति के परिपेक्ष्य में न देखा जाता तो अच्छा होता। ।यदि इमरान इतने शाँति-प्रिय हैं तो लगातार सीज़फायर उलंघन की ख़बरों आना बंद क्यों नहीं हे रहा?

मोदी के नेतृत्व में दम है पर खामियाँ भी कम नहीं हैं! खामियों का जिक्र फिर कभी।

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बीनू भटनागर
मनोविज्ञान में एमए की डिग्री हासिल करनेवाली व हिन्दी में रुचि रखने वाली बीनू जी ने रचनात्मक लेखन जीवन में बहुत देर से आरंभ किया, 52 वर्ष की उम्र के बाद कुछ पत्रिकाओं मे जैसे सरिता, गृहलक्ष्मी, जान्हवी और माधुरी सहित कुछ ग़ैर व्यवसायी पत्रिकाओं मे कई कवितायें और लेख प्रकाशित हो चुके हैं। लेखों के विषय सामाजिक, सांसकृतिक, मनोवैज्ञानिक, सामयिक, साहित्यिक धार्मिक, अंधविश्वास और आध्यात्मिकता से जुडे हैं।

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