सबसे मंहगा ग्लोबल ब्रॉण्ड बाबा रामदेव

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

मुझे बाबा रामदेव अच्छे लगते हैं। वे इच्छाओं को जगाते हैं आम आदमी में जीने की ललक पैदा करते हैं। भारत जैसे दमित समाज में इच्छाओं को जगाना ही सामाजिक जागरण है। जो लोग कल तक अपने शरीर की उपेक्षा करते थे, अपने शरीर की केयर नहीं करते थे, उन सभी को बाबा रामदेव ने जगा दिया है।

इच्छा दमन का कंजूसी के भावबोध, सामाजिक रूढ़ियों और दमित वातावरण से गहरा संबंध है। बाबा रामदेव ने एक ऐसे दौर में पदार्पण किया जिस समय मीडिया और विज्ञापनों से चौतरफा मन, शरीर और पॉकेट खोल देने की मुहिम आरंभ हुई है। यह एक तरह से बंद समाज को खोलने की मुहिम है जिसमें परंपरागत मान्यताओं के लोगों को बाबा रामदेव ने सम्बोधित किया है।

परंपरागत भारतीयों को खुले समाज में लाना,खुले में व्यायाम कराना,खुले में स्वास्थ्य चर्चा के केन्द्र में लाकर बाबा रामदेव ने कारपोरेट पूंजीवाद की महान सेवा की है। बाबा रामदेव ने जब अपना मिशन आरंभ किया था तब उनके पास क्या था? और आज क्या है? इसे जानना चाहिए।

आरंभ में बाबा रामदेव सिर्फ संन्‍यासी थे, उनके पास नाममात्र की संपदा भी नहीं थी आज वे पूंजीवादी बाजार के सबसे मंहगे ग्लोबल ब्रॉण्ड हैं। अरबों की संपत्ति के मालिक हैं। यह संपत्ति योग-प्राणायाम से कमाई गई है। इतनी बडी संपदा अर्जित करके बाबा रामदेव ने एक संदेश दिया है कि अगर जमकर परिश्रम किया जाए तो कुछ भी कमा सकते हो। कारपोरेट जगत की सेवा की जाए तो कुछ भी अर्जित किया जा सकता है।

बाबा ने एक ही झटके में योग-प्राणायांम का बाजार तैयार किया है। जड़ी-बूटियों का बाजार तैयार किया है। योग को स्वास्थ्य और शरीर से जोड़कर योग शिक्षा की नई संभावनाओं को जन्म दिया है। पूंजीवादी आर्थिक दबाबों में पिस रहे समाज को बाबा रामदेव ने योग के जरिए डायवर्जन दिया है। सामान्य आदमी के लिए यह डायवर्जन बेहद मूल्यवान है। जिसके कारण वह कुछ समय के लिए ही सही प्रतिदिन तनावों के संसार से बाहर आने की चेष्टा करता है।

जिस समाज में आम आदमी को निजी परिवेश न मिलता हो उसे विभिन्न योग शिविरों के जरिए निजी परिवेश मुहैय्या कराना, एकांत में योग करने का अभ्यास कराना।जिस आदमी ने वर्षों से सुबह उठना बंद कर दिया था उस आदमी को सुबह उठाने की आदत को नए सिरे से पैदा करना बड़ा काम है।

नई आदतें पैदा करने का अर्थ है नई इच्छाएं पैदा करना। स्वयं से प्यार करने, अपने शरीर से प्यार करने की आदत डालना मूलतः व्यक्ति को व्यक्तिवादी बनाना है और यह काम एक संयासी ने किया है, जबकि यह काम बुर्जुआजी का था।

बाबा रामदेव की सफलता यह है कि उन्होंने व्यक्ति के शरीर में पैदा हुई व्याधियों के कारणों से व्यक्ति को अनभिज्ञ बना दिया। मसलन किसी व्यक्ति को गठिया है तो उसके कारण हैं और उनका निदान मेडीकल में है लेकिन जो आदमी बाबा के पास गया उसे यही कहा गया आप फलां-फलां योग करें, प्राणायाम करें,आपकी गठिया ठीक हो जाएगी। अब व्यक्ति को योग और गठिया के संबंध के बारे में मालूम रहता है, गठिया के वास्तव कारणों के बारे में मालूम नहीं होता।

बाबा चालाक हैं अतः मेडीकल में जो कारण बताए गए हैं उनका अपनी वक्तृता में इस्तेमाल करते हैं, जबकि बाबा ने मेडीकल साइंस की शिक्षा ही नहीं ली है। ऐसी अवस्था में उनका मेडीकल ज्ञान अविश्वसनीय ही नहीं खतरनाक है और इस चक्कर में वे एक ही काम करते हैं कि समस्या के वस्तुगत ज्ञान से व्यक्ति को विच्छिन्न कर देते हैं। इस तरह बाबा ने व्यक्ति का उसकी वस्तुगत समस्या से संबंध तोड़ने में कामयाबी हासिल कर ली।

बाबा रामदेव की कामयाबी के पीछे एक अन्य बड़ा कारण है रामजन्मभूमि आंदोलन का असफल होना। भाजपा और संघ परिवार की यह चिन्ता थी कि किसी भी तरह जो हिन्दू जागरण रथयात्रा के नाम पर हुआ है उस जनता को किसी न किसी रूप में गोलबंद रखा जाए और उत्तरप्रदेश और देश के बाकी हिस्सों में राममंदिर के लेकर जो मोहभंग हुआ था, उसने हिन्दुओं के मानस में एक खालीपन पैदा किया था। इस खालीपन को बाबा ने खूब अच्छे ढ़ंग से इस्तेमाल किया और हिन्दुओं को गोलबंद किया।

राममंदिर के राजनीतिक मोहभंग को चौतरफा धार्मिक संतों और बाबा रामदेव के योग के विस्फोट के जरिए भरा गया। राममंदिर के मोहभंग को आध्यात्मिक-यौगिक ध्रुवीकरण के जरिए भरा गया। राममंदिर का सपना चला गया लेकिन उसकी जगह हिन्दू का सपना बना रहा है। विभिन्न संतों और बाबाओं की राष्ट्रीय आध्यात्मिक आंधी ने यह काम बड़े कौशल के साथ किया है।

हिन्दू स्वप्न को पहले राममंदिर से जोड़ा गया बाद में बाबा रामदेव के सहारे हिन्दू सपने को योग से जोड़ा गया। बाबा के लाइव टीवी कार्यक्रमों में हिन्दू धर्म का प्रचार स्थायी विषय रहा है। जबकि सच है कि योग-प्राणायाम की भारतीय परंपरा वह है जो चार्वाकों की परंपरा है। ये वे लोग रहे हैं जो नास्तिक थे, भगवान को नहीं मानते थे। हिन्दू धर्म और हिन्दू समाज की अनेक बुनियादी मान्यताओं की तीखी आलोचना किया करते थे।

बाबा रामदेव ने बड़ी ही चालाकी और प्रौपेगैण्डा के जरिए योग को हिन्दूधर्म से जोड़ दिया है और यही उनका धार्मिक भ्रष्टाचार है। इस तरह बाबा रामदेव ने योग के साथ हिन्दूधर्म को जोड़कर योग से उसके वस्तुगत विचारधारात्मक आधार को ही अलग कर दिया है।

हम सब लोग जानते हैं कि बाबा रामदेव ने पतंजलि के नाम से सारा प्रपंच चलाया हुआ है लेकिन उनके प्रवचनों में व्यक्त हिन्दू विचारों का पतंजलि के नजरिए से दूर का संबंध है।

योग का सबसे पुराना ग्रंथ है ‘योगसूत्र’ । इसकी धारणाओं का हिन्दुत्व और सामयिक हिन्दू संस्कृति के प्रवक्ताओं की धारणाओं के साथ किसी भी किस्म का रिश्ता नहीं है। प्रसिद्ध दार्शनिक देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ने लिखा है ‘वैदिक साहित्य में योग शब्द का अर्थ था जुए में बांधना या जोतना।’

अति प्राचीन युग से ही यह शब्द कुछ ऐसी क्रियाओं के लिए प्रयोग में लाया जाता था जो सर्वोच्च लक्ष्य के लिए सहायक थीं। अंततः यही इस शब्द का प्रमुख अर्थ बन गया। दर्शन में योग का गहरा संबंध पतंजलि के ‘योगसूत्र’ से है। जेकोबी का मानना ये पतंजलि वैय्याकरण के पंडित पतंजलि से भिन्न हैं। लेकिन एस.एन.दास गुप्त के अनुसार ये दोनों एक ही व्यक्ति हैं। और उन्होंने इस किताब का रचनाकाल 147 ई.पू. माना है। जेकोबी ‘योगसूत्र’का रचनाकाल संभवतः540 ई. है।

सांख्य और योग के बीच में गहरा संबंध है। हम सवाल कर सकते हैं कि आखिरकार बाबा रामदेव सांख्य-योग का आज के संघ परिवार के द्वारा प्रचारित हिन्दुत्व के साथ संबंध किस आधार पर बिठाते हैं? दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि पतंजलि के ‘योगसूत्र’ लिखे जाने के काफी पहले से लोगों में योग और उसकी क्रियाओं का प्रचलन था।

डी.पी चट्टोपाध्याय ने लिखा है ‘‘ ‘योगसूत्र’ में वर्णित योग, मूल यौगिक क्रियाओं से बहुत भिन्न था। इस विचार में कोई नवीनता नहीं है। योग्य विद्वान इसे तर्क द्वारा गलत साबित कर चुके हैं। इनमें से कुछ विद्वानों का कहना है कि योग का प्रादुर्भाव आदिम समाज के लोगों की जादू टोने की क्रियाओं से हुआ।’’

एस.एन.दास गुप्त ने ‘ए हिस्टरी ऑफ इण्डियन फिलॉसफी’ में लिखा है ‘‘पतंजलि का सांख्यमत, योग का विषय है … संभवतः पतंजलि सबसे विलक्षण व्यक्ति थे क्योंकि उन्होंने न केवल योग की विभिन्न विद्याओं का संकलन किया और योग के साथ संबंध की विभिन्न संभावना वाले विभिन्न विचारों को एकत्र किया, बल्कि इन सबको सांख्य तत्वमीमांसा के साथ जोड़ दिया,और इन्हें वह रूप दिया जो हम तक पहुंचा है। पतंजलि के ‘योगसूत्र’ पर सबसे प्रारंभिक भाष्य, ‘व्यास भास’ पर टीका लिखने वाले दो महान भाष्यकार वाचस्पति और विज्ञानभिक्षु हमारे इस विचार से सहमत हैं कि पतंजलि योग के प्रतिष्ठापक नहीं बल्कि संपादक थे। सूत्रों के विश्लेषणात्मक अध्ययन करने से भी इस विचार की पुष्टि होती है कि इनमें कोई मौलिक प्रयत्न नहीं किया गया बल्कि एक दक्षता पूर्ण तथा सुनियोजित संकलन किया गया और साथ ही समुचित टिप्पणियां भी लिखी गईं।’’

यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि योग का आदिमरूप तंत्रवाद में मिलता है। दासगुप्त ने लिखा है कि योग क्रियाएं पतंजलि के पहले समाज में प्रचलित थीं। पतंजलि का योगदान यह है कि उसने योग क्रियाओं को ,जिनका नास्तिकों में ज्यादा प्रचलन था, तांत्रिकों में प्रचलन था, इन क्रियाओं को आस्तिकों में जनप्रिय बनाने के लिए इन क्रियाओं के साथ भाववादी दर्शन को जोड़ दिया।

डी.पी.चट्टोपाध्याय ने लिखा है ‘ये भाववादी परिवर्तन सैद्धांतिक और क्रियात्मक दोनों प्रकार के हुए।’ इस प्रसंग में आर. गार्बे ने लिखा है कि ‘‘ योग प्रणाली द्वारा सांख्य दर्शन में व्यक्तिगत ईश्वर की अवधारणा को सम्मिलित करने का उद्देश्य केवल आस्तिक लोगों को संतुष्ट करना और सांख्य द्वारा प्रतिपादित विश्व रचना संबंधी सिद्धांत को प्रसारित करना था। योग प्रणाली में ईश्वर संबंधी विचार निहित नहीं बल्कि उन्हें यूं ही शामिल कर लिया गया था।‘योगसूत्र’ के जिन अंशों में ईश्वर का प्रतिपादन हुआ है ,वे एक-दूसरे से असंबद्ध हैं और वास्तव में योगदर्शन की विषयवस्तु तथा लक्ष्य के विपरीत हैं। ईश्वर न तो विश्व का सृजन करता है और न ही संचालन। मनुष्य को उसके कर्मों के अनुसार पुरस्कार या दण्ड नहीं देता। ईश्वर में विलीन को मनुष्य (कम से कम प्राचीन योगदर्शन के अनुसार) अपने जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य नहीं मानता… प्रत्यक्ष है कि ईश्वर का जो अर्थ हम लगाते हैं यह उस प्रकार के ईश्वर का मूल नहीं है और हमें काफी उलझे हुए विचारों का सामना करना पड़ता है जिनका लक्ष्य इस दर्शन के मूल नास्तिक स्वरूप को छिपाना तथा ईश्वर को मूल विचारों के अनुकूल जैसे तैसे बनाना है। स्पष्ट है कि ये उलझे हुए विचार इस बात को सिद्ध करते हैं कि यदि किसी प्रमाण की आवश्यकता हो तो वे वास्तविक योग में किसी व्यक्तिगत ईश्वर के लिए कोई स्थान नहीं है।… किंतु योग प्रणाली में एक बार ईश्वर संबंधी विचार को सम्मिलित कर लेने के बाद यह आवश्यक हो गया कि ईश्वर और मानव जगत के बीच कोई संबंध स्थापित किया जाए क्योंकि ईश्वर केवल अपने ही अस्तित्व में बना नहीं रह सकता था। मनुष्य और ईश्वर के बीच का यह संबंध इस तथ्य को लाकर स्थापित किया गया कि जहां ईश्वर आपको इहलौकिक या नैसर्गिक जीवन प्रदान नहीं करता (क्योंकि वह तो व्यक्ति के सुकर्मों अथवा कुकर्मों के अनुसार मिलते हैं), वहां ईश्वर अपनी करूणा दिखाकर मनुष्य की सहायता करता है और यह मनुष्य उसके प्रति पूर्ण आस्था रखता है ताकि मोक्ष प्राप्ति के मार्ग में आने वाली बाधाएं दूर हो सकें। किंतु ईश्वर में मानव की आस्था और दैवी कृपा पर आधारित यह क्षीण संबंध भी योग दर्शन में सम्मिलित होकर दुर्बोध सा प्रतीत होता है।’’ (एनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजन ऐंड एथिक्स, सं.जे. हेस्टिंग्स, एडिनबरा, 1908-18)

14 COMMENTS

  1. स्वामी रामदेव जी की जय.

    * आजाद देश में स्वामी रामदेव ही तो है तो खुलकर लाखो लोगो के सामने प्रमाणों के साथ भ्रष्टाचार के आकडे प्रस्तुत कर रहे है.
    * एक समय तो योग और प्रयानाम केवेल उच्च वर्ग तक ही सिमित था वोह भी योगा के नाम से. आज फिर से स्वामी रामदेव जी ने किसी एक प्रान्त नहीं बल्कि पुरे देश व् विश्व में सर्व सुलभ बना दिया है.
    * जो शहद किसी नमी कंपनी में ८०० से १००० रुपए में मिलती थी वोही आज २०० में मिल रही है. अन्य उत्पाद भी विश्व स्तरीय, शुद्ध और काफी वाजिव दाम पर है – इस पर एक भी शब्द नहीं कहा है श्री चतुर्वेदी जी ने.
    * आजादी के बाद झूठे इतिहास इतिहास ने हमारे अन्दर का स्वाभिमान समाप्त कर दिया था जिसे पूज्य स्वामीराम देवजी ने पुनर्जीवित किया है.
    * एक सरसी खांसी में ३०० से ५०० का खर्चा हो जाता है, जिसे प्रयानाम के द्वारा पूर्ण मुक्त किया जा सकता है. जो प्रयानाम करते है उनसे पूछिय कितना फायदा हुआ है. वे हजारो लोग पागल नहीं है जो आस्था चेनल पर अपने अनुभव सुनते है की किस प्रकार सालो की उनकी बीमारी प्रयानाम से पूर्ण ख़त्म हो गई है.
    * उपभोक्ता बाजार प्रणाली का निर्याणक होता है. लम्बे समय तक वोही वास्तु बाजार में टिकती है तो सस्ती हो, टिकाऊ हो, शुद्ध हो – स्वामी रामदेव जी के हर उत्पाद इनपर खरे उतारते है. जो सामान हम बहुराष्ट्रीय कंपनियों से बहुत मेहेंगी कीमत पर और बिना गारंटी के की शुद्ध है की नहीं खरीदते थे, वोही सामान लोग स्वामी रामदेव जी से खरीद रहे है. देश का पैसा देश में.
    * घर में बच्चा अपने आप सुबह नहीं उठता है, माँ बाप जबरदस्ती उठाते है तब ही लगातार उठने से आदत पड़ती है तो हमेशा साथ रहती है. स्वामी रामदेव जी भी अभिभावक की भूमिका निभा रहे

  2. जय कौशल जी के तर्कों के आगे बाकिसभी का कुतर्क या अँधानुकरण का अरण्यरोदन मात्र है .जय कौशल जी आप सही हैं .चूँकि वर्तमान में कुछ सेमिनार इत्यादि में व्यस्त हूँ अतएव ,सत्य के लिए किये जा रहे इस संघर्ष रुपी यग्य में आदरणीय चतुर्वेदी जी के कालजयी ,सर्वजन हिताय लेखों और उनके व्द्वत्ता पूर्ण गवेक्षनात्म्क दार्शनिक चिंतन पर अपनी प्रतिक्रया व्यक्त करने में असमर्थ हूँ …प्रतेक प्रगतिशील ,धर्मनिरपेक्ष और देश के सर्वहारा का हित चिन्तक श्री चतुर्वेदी जी से सहमत है .चूँकि गरीवों के पास उन्नत तकनीकी संसाधन नहीं हैं .उनके पास मजदूरी करने के बाद भी बमुशिकल मानक पोषण आहार ही उप्लोब्ध नहीं वे तो- इन्टरनेट को या मीडिया को और उसके इस घ्रणित खेल को जो पूंजीवादी और साम्प्रदायिक तत्व खेल रहे हैं -के बारे में बिलकुल अनजान हैं .उन्हें नहीं मालूम की एक महा अवतार हो चूका है जिसका नाम है -बाबाबाद…इस बाबाबाद ने देश के कुछ खाते पीते मुस्टंडों को चमत्कृत किया है किन्तु देश की ८० फीसदी जनता के सवालों पर ये बाबा मौन हैं .वे एक नेक काम जरुर कर रहे हैं .स्वदेशी के नाम पर भारतीय सरमायादारी के ब्रांड एम्बेसडर वन चुके हैं …जगदीश्वर चतुर्वेदी ऐसे सेकड़ों बाबाओं को इतिहास के कूड़ेदान में अकेले ही फेंकने में सक्षम हैं …श्रीराम तिवारी

  3. जैकौशलजी, पहली बात,मेरे जैसे नास्तिक का आस्था से तो दूर दूर तक कोई नाता नहीं. अब बात आती है तर्क पर तो इसके साथ एक शब्द और जुड़ा हुआ है वह है कुतर्क और मेरे ख्याल से आपके आदरणीय चतुर्वेदीजी ज्यादातर कुतर्क करते हैं और विषय से हट कर बात करते हैं.मैंने आज तक न रामदेवजी की किसी दवा का इस्तेमाल किया है न उनकी कोई योग क्रिया ही अपनाई है,पर वे इतने लोकप्रिय हो गए हैं की मैं उनकी तरफ से आँख भी नहीं बंद कर सकता.अभी पिछले दिन एक प्रसिद्द डाक्टर मित्र कह रहे थे की हमलोग चाहे अपने पेशे के लिहाज से बाबा रामदेव को कुछ भी कहे पर एक बात तो माननी पड़ेगी की रामदेव जी ने आम आदमी को स्वास्थय के प्रति जागरूक तो कर ही दिया है और यही रामदेवजी की सफलता हैकि एक एलोपैथिक डाक्टर को भी उनके पक्ष में बोलने को बाध्य होना पड़ता है. मेरे ख्याल से अगर ब्राहमनेतर वाली बात नहीं भी सही होतो इतना तो सत्य है की रामदेवजी की लोकप्रियता कही न कही आपके चतुर्वेदीजी को चुभ रही हैं.अगर रामदेवजी के कार्य या उनके धनोपार्जन की विधि चतुर्वेदीजी के ही कथनानुसार पूंजीवाद के करीब पड़ती है तोभी इसमे दखल देने का अधिकार आपके चतुर्वेदीजी को किसने दिया?
    हमारे बीच अधिकतर लोग वे हैं जो कही न कही पुर्बाग्रह से ग्रसित हैं अतः मेरे जैसों की बाते उनके मष्तिष्क में धसती ही नहीं है.ऐसे लोग तब और परेशान हो जाते हैं जब मैं आस्तिकता और नास्तिकता की सीमा से अलग हटकर बात करताहूं.मैं सत्य को सत्य मानता हूँ इसमें आपका सत्य और मेरा सत्य जैसा कुछ भी नहीं है.आदमी जब अपनी आँखों से विभिन्न रंगों के चश्मे उतार कर देखेगा देगा तब उसे भी मेरे जैसा ही दिखेगा ऐसा मेरा विश्वास है.

  4. क्या हम आस्था को तार्किक दृष्टि से देख सकते हैं?

  5. आदरणीय R Singh जी, अगर यह आलेख चतुर्वेदी जी द्वारा केवल इस मंशा के तहत लिखा गया है कि एक ब्राह्मणेतर व्यक्ति (बाबा रामदेव) कैसे इतनी ऊँचाई पर पर पहुँच सकता है, उसकी कमियां खोजकर नीचे गिराना चाहिए, तो मैं आपसे न केवल पूरी तरह सहमत हूं बल्कि चतुर्वेदीजी की सख्त आलोचना भी करता हूं। पर अगर ऐसा नहीं है (जैसा कि मुझे लगता है) तो मैं कहना चाहूँगा कि हमें सिर्फ़ आस्था के सहारे नहीं चलना चाहिए। यद्यपि बाबा रामदेव योग के माध्यम से वाकई देश में एक जरूरी काम कर रहे हैं। इसके लिए मैं स्वयं उनका प्रशंसक हूं। बस मेरा आपसे ये पूछना है, चूंकि बाबा देश को योग-शिक्षा दे रहे हैं और लोग इससे अच्छा भी महसूस कर रहे हैं, तो क्या इसीलिए उनपर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता क्योंकि बाबा अब तर्क नहीं आस्था क विषय बन गए हैं।

  6. जैकौशलजी,मैं आपसे एक सवाल पूछता हूँ,चतुर्वेदीजी के इस आलेख की आवश्यकता थी क्या?जो समाज के लिए इतना बड़ा काम कर रहा है उसको नीचा दिखाने के अतिरिक्त इस लेख का कोई अन्य उद्देश्य है तो वह मेरे समझ में नहीं आ रहा है..ऐसे भी चतुर्वेदीजी की मैं यह विशेषता देख रहा हूँ की जिसके पीछे पड़ते हैं उसको जल्दी छोड़ते नहीं.रामदेव जी पर तो उनकी ज्यादा ही कृपादृष्टि लगती है. ऐसे कहना तो नहीं चाहिए पर उनके रामदेवजी के बारे में लेखों को देख कर कभी कभी तो मुझे एहसास होने लगता है कही चतुर्वेदी जी के इर्ष्या का कारण ये तो नहीं है की एक ब्राह्मणेतर प्राणी योग के मामले में इतनी प्रसिद्धि कैसे पा गया? अगर चतुर्वेदीजी सचमुच साम्यवादी हैं तो उनका तो इससे कोई वास्ता ही नहीं होना चाहिए था,क्योंकि मार्क्सवादी जिन लोगों को अपना मसीहा मानते है उन्होंने योगक्रिया पर कोई टिपण्णी की है ऐसा मुझे तो नहीं लगता.मैंने पहले भी इसी सन्दर्भ में बहुत कुछ लिखा है और अब यह कहता हूँ की चतुर्वेदीजी रामदेवजी का पीछा अब तो छोड़ दे. चतुर्वेदीजी के चाहने वालों को भी मैं एक सलाह देना चाहता हूँ.यद्दपि किसी की भक्ति से किसी को रोका नहीं जा सकता पर अंध भक्ति भी अच्छा नहीं है.
    रामदेवजी समाज के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए बहुत कुछ कर रहे हैं और उन्हें करने दिया जाये तो ज्यादा अच्छा हो. हाँ अगर वे कोई गलत काम कर रहे हों तो उस गलत कार्य को अवश्य सामने लाया जाये. उस हालत में वाग्जाल की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी .साफ साफ शब्दों में कुछ कहने से लोगों के समझ में भी जल्दी आ जायेगा . लोगों को जागृत करना गलत नहीं है पर गुमराह करना जुर्म है.
    ऐसे श्री प्रेम सिंही के एक बात से मैं भी पूर्ण सहमत हूँ की इस लेख के शीषक से इस लेख का कोई सम्बन्ध नहीं है, क्योंकी इस लेख के शीर्षक से इस लेख का कोई सम्बन्ध मुझे भी नहीं दीखता.

  7. आदरणीय जगदीश्वर जी, इस आलेख की बहुत आलोचना की जा रही है, योग मूलत: चार्वाकों से शुरु हुआ, या पतंजलि से अथवा पतंजलि ने उस समय उपलब्ध सभी यौगिक क्रियाओं को इकट्ठा कर केवल उन्हें भाववादी दर्शन से जोड़कर हिंदुओं की आस्था के अनुकूल बनाया। जो भी हो, आपका यहआलेख बेहद विचारोत्तेजक है।

  8. मैं नहीं जानता की अन्य लोग श्रीमान चतुर्वेदीजी को कब से जानते हैं पर मैं तो उनके संपर्क में प्रवक्ता के माध्यम से ही आया इसलिए चतुर्वेदीजी के वारे में पूर्ण निष्कर्ष निकालू तो मैं भी फैलेशी आफ इलिसित जेनेरालैजेसन का शिकार हो जाऊंगा,पर इनके लेखों को प्रवक्ता में देखने के बाद और चूँकि वे यहाँ बहुत ज्यादा लिख रहे हैं और अपनी हठधर्मिता के कारन हर दिशा में हाथ पांव मार रहे हैं, चाहे उस विषय में उन्हें कुछ भी ज्ञान हो या नहीं,मुझे यह निष्कर्ष निकालने का मन कर रहा है की श्रीमान चतुर्वेदीजी एक विकृत मष्तिष्क के मालिक हैं और उन्हें खुद ही पता नहीं है की वे क्या लिख रहे हैं. हर चीज को तोड़ मरोड़ कर सामने लाना अगर विद्वता तो उनके समर्थक उन्हें विद्वान् भी कह सकते हैं पर व्यक्तिगत रूप से मैं अपना विचार प्रकट कर चुका और उसे बदलने का कोई इरादा नहीं है.
    रह गयी बात योग द्वारा शरीर को तंदरुस्त रखने का प्रश्न तो उसमे आस्तिकता और नास्तिकता का प्रश्न उठाना ही बेमानी है. स्वस्थ मष्तिष्क के लिए स्वस्थ शरीर आस्त्तिकता और नास्तिकता के बहस से परे है.शरीर की स्वस्थता अगर मनुष्य को सम्भोग के लिए ज्यादा समर्थता प्रदान करती है तो इसमे किसी को एतराज क्यों?कही उनको अपनी साम्यवादी परम्परा तो टूटती हुई तो नजर नहीं आती?ऐसे भी कपिल का नाम लेने में उन्हें बहुत कठिनाई आयी होगी,क्यों एक भारतीय हिन्दू ऋषि उनके मार्क्स का मसीहा साबित हो यह उन्हें कैसे गवारा हुआ?

  9. चतुर्वेदी जी यानि चार वेद, परन्तु आपका लेख,आपके तर्क,आपकी विव्दवता पर प्रश्नवाचक का चिन्ह लगाते है काश आप प्राणायाम व योग का आनन्द जानते ?ईस क्षेत्र मेँ लक्षमी माता स्वयम ही अपने पुत्र के पास सदैव रहना चाहती है।

  10. अपनी दमित वासनाएं आप सब जगह देखने के अभ्यस्त हो गए लगते हैं. इच्छाएं जगाना तो नास्तिक वादी विचार ‘ कम्युनिस्म’ का काम है. डा. साहेब आप सचमुच अपनी लाल ऐनक से सारी दुनिया को लाल देखने के लए ( स्पष्टवादिता के लिए क्षमा चाहूँगा ) अभिशप्त हो चुके हैं. वामपंथियों का हिन्दू विरोध का पागलपन असाध्य रोग बन चुका है. लाइलाज हैं ये लोग. कुछ कहना बेकार है और इनसे किसी उचित व तर्क सगत बात की अपेक्षा भी व्यर्थ है. इतना ही काफी है की लोग इन्हें समझ लें की ये क्या हैं और इनकी समझ का स्तर व दिशा क्या है. बौखलाहट से निकले लेखों के कारण खोरहे सम्मान का कष्ट भी ये अनुभव नहीं कर रहे. काफी संवेदना रहित स्वभाव है जनाब का.

  11. योग के विषय पर पकड़ न होने के साथ साथ इस बार तो लेख ही दिग्भ्रमित हो गया है . पिछले लेख में कम से कम बाबा रामदेव की आलोचना का छुपा हुआ प्रयास एक सूत्र के रूप में तो दिखता था, इस बार तो वह भी नहीं हैं .

  12. पाठक-गण, इस लेख के शीर्षक का लेख के साथ कोई संबंध नहीं है| अपना कीमती समय इसे पढ़ने में व्यर्थ न करें| यदि कार्यनिवृति-वश इस लेख को पढ़ डालने की इच्छा हो तो इन्टरनेट पर भारत स्वाभिमान ट्रस्ट की वेबसाईट पर भी दृष्टि अवश्य डालें| बाबा रामदेव द्वारा भारत में यथार्थ स्वतंत्रता के लिए चलाए उनके अभियान को निरर्थक करने के उपक्रम में व्यस्त राजनीतिक शक्तियां पथभ्रष्ट मीडिया के बेतुके शीर्षकों द्वारा उनके प्रति जनता में अविश्वाश और भ्रम पैदा करने में जुटे हुए हैं| प्रवक्ता के इस मंच पर सभी धर्मों के लोगों द्वारा लिखे लेख पढ़ लगभग चार दशक पश्चात हिन्दी में कुछ पढ़ने लिखने की इच्छा जागी है| आज हिंदी-भाषी ज्ञानवान और जागरूक है| इतिहास साक्षी है और इसमे कोई अचम्भा नहीं कि जगदीश्वर चतुर्वेदी जैसे लोग भारत में यथापूर्व स्थिति बनाए रखने में भ्रष्ट और अनैतिक राजनीतिक शक्तियों को अपना सहयोग देते रहे हैं| मुझे विशवास हो चला है कि हिंदी-भाषी बाबा रामदेव और राहुल बाबा में अंतर पहचानते हैं|

  13. आलेख तो बहुत सटीक और सत्यान्वेषी है .ऊपर से पेरा-१५ में …अति प्राचीन युग ….जेकोबी …पतंजलि ….वैयाकरण …..पतंजलि …यहाँ कहीं शायद लगता है की आप महान व्याकरण आचार्य -महर्षि पाणिनि का उल्लेख करने के बजाय पतंजलि का दो बार सतत उल्लेख करते चले गए ..वैसे …सम्पूर्ण योग -सांख्य -चार्वाक -लोकायत -वौद्ध मतों में योग विद्द्या का वही तात्पर्य था जो आपने अभ्व्यक्त किया है .

  14. माननीय चतुर्वेदी जी
    आप क्या लिख रहे हैं । वैसे आप जैसे विद्नान अनाप शनाप लिखें यह आशा नहीं की जाती है । आपका एक स्तर है, ऐसा मैं मानता था । लेकिन इस लेख को बढने के बाद मुझे काफी निराशा हुई ।

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