पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों में सबसे अधिक दांव उत्तरप्रदेश पर लगा है और हो भी क्यों न, दिल्ली की गद्दी का रास्ता उत्तरप्रदेश से ही होकर जाता है। जाहिर है कि उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव के परिणाम देश की भावी राजनीति की ओर इशारा करेंगे, पर अन्य राज्यों के चुनाव परिणामों को भी सत्ता और विपक्ष से जुड़े तमाम दल गंभीरता से लेंगे। ये चुनाव कांग्रेस और भाजपा का भविष्य तय करेंगे, तो कई क्षेत्रीय दलों को भी अपना दायरा बढ़ाने का मौका मिलेगा। इसी फेहरिस्त में उत्तरप्रदेश में सत्तारूढ़ बहुजन समाज पार्टी लगातार अपना राजनीतिक दायरा बढ़ा रही है। क्षेत्रीय से राष्ट्रीय दल में तब्दील होती बसपा पंजाब और उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में दमखम से उतरी है। बसपा की इन राज्यों में धमक से कांग्रेस-भाजपा खेमे में हलचल मच गई है।
सोशल इंजीनियरिंग इन प्रदेशों में बसपा का कितना भला करेगी, यह तो भविष्य तय करेगा, पर मायावती दिल्ली की गद्दी पर बैठने का ख्वाब संजोए इन प्रदेशों में कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं। पंजाब की बात करें, तो यहां 29 प्रतिशत वोटर दलित समुदाय से आते हैं, जो बसपा का पुख्ता वोट बैंक हैं। 1992 के विधानसभा चुनाव में बसपा अपने नौ विधायकों के साथ पंजाब में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुकी है। वहीं, 1996 में बसपा-अकाली दल गठबंधन ने लोकसभा चुनाव में चार सीटें अपने खाते में दर्ज कराई थीं। आज स्थिति यह है कि एक समय जहां बसपा का वोट प्रतिशत 16.32 था, जो घटकर 5.75 प्रतिशत रह गया है। परिदृश्य साफ है कि बसपा अपना पुराना जादू चलाना चाहती है, ताकि दिल्ली का रास्ता साफ हो सके। वैसे देखा जाए, तो कांशीराम की जन्मस्थली होने के बावजूद पंजाब में बसपा का प्रभाव नगण्य ही रहा है। 29 फीसदी दलित वोटर होने के बावजूद पार्टी अपने प्रदर्शन में एकरूपता नहीं रख पाई।
इसके पीछे मुख्य कारण है, पंजाब की राजनीति में दलित मुद्दों का गौण होना। वहां सिख-दलित टकराव जैसा कोई कारण भी नहीं है, जो बसपा को प्रदेश में मजबूत होने दे। फिर भी, बसपा पंजाब में उत्तरप्रदेश की तरह कामयाब सोशल इंजीनियरिंग की दम पर आगे बढ़ रही है। मायावती के लिए पंजाब कितना महत्वपूर्ण है, इसका अंदाजा तो इसी बात से लगाया जा सकता है कि मायावती उत्तरप्रदेश को छोड़कर पंजाब में चुनाव प्रचार के लिए उतर चुकी हैं। यदि मायावती दलित वोटरों के अलावा सवर्ण वोटों को अपने पाले में लाने में कामयाब रहती हैं, तो पंजाब की राजनीति में बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है, जिससे सत्ता की लड़ाई और रोचक हो जाएगी। वहीं, उत्तराखंड में बसपा का यूं तो कोई खास जनाधार नहीं है, पर संयुक्त उत्तरप्रदेश का अंग होने के कारण पार्टी के लिए संभावनाएं खत्म नहीं हुई हैं। प्रदेश में 16 लाख से अधिक जनसंख्या पिछड़ी जातियों की है, जो बसपा को मजबूती दे सकती है। उत्तराखंड को लेकर भी पार्टी रणनीतिकार कितने चिंतित हैं, यह इस बात से साबित होता है कि पार्टी ने राज्य की सभी 70 विधानसभा सीटों पर सबसे पहले प्रत्याशियों की घोषणा की है।
बसपा नेताओं का सोचना है कि उत्तराखंड गठन के बाद से राज्य में काबिज कांग्रेस-भाजपा सरकारों ने जनता को कुछ नहीं दिया है। लिहाजा, उत्तरप्रदेश में बसपा की कामयाबी और बसपा सरकार के कार्यकाल में प्रदेश की विकास दर उत्तराखंड में बड़ा उलटफेर कर सकती है। राजनीतिक विश्लेषक भी इस बार बसपा की बढ़ती ताकत को स्वीकार कर रहे हैं। कुछ विश्लेषकों का मत है कि इस बार के चुनाव परिणाम राज्य में बसपा को किंगमेकर की भूमिका में ला सकते हैं। यहां भी बसपा सोशल इंजीनियरिंग को जीत का फार्मूला बना रही है। बसपा के चुनावी पैतरों से दोनों राज्यों में चुनाव संघर्षपूर्ण हो गए हैं। जहां दोहरा संघर्ष था, वह अब त्रिकोणीय हो गया है। हालांकि, बसपा को अभी कोई गंभीरता से नहीं ले रहा, पर राजनीति में कुछ भी संभव है। यदि बसपा दोनों राज्यों में 10-15 सीटें जीतने में कामयाब रही, तो अन्य पार्टियों के सत्ता समीकरण गड़बड़ा सकते हैं। सबसे अधिक नुकसान कांग्रेस को हो सकता है, जिसका पिछड़ी जातियों में अच्छा प्रभाव है।