आर्यसमाज एवं आर्य संस्थाओं के आवश्यक कर्तव्य एवं दायित्व

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मनमोहन कुमार आर्य

वर्तमान समय में आर्यसमाज की पहचान एक ऐसे भवन के रूप में होती हैं जहां आर्यसमाजी लोग रविवार को एकत्रित होकर यज्ञ, भजन एवं प्रवचन का कार्य करते हैं और फिर सप्ताह के शेष दिन अपने व्यवसाय  आदि के कार्यों में लगे रहते हैं। हमारा अनुमान है कि यदि सर्वे किया जाये तो बहुत से लोग तो आर्यसमाज व इसके संस्थापक के नाम, आर्यसमाज के उद्देश्य व इसके अतीत के आध्यात्मिक व समाज सुधार के हितकारी कार्यों से परिचित भी शायद नहीं होंगे। हमें लगता है कि यह स्थिति आर्यसमाज के संगठन में सिद्धान्त विरोधी, पद लोलुप, स्वार्थी व संख्या बढ़ाने की दृष्टि से बनाये गये अनार्य प्रवृत्ति के लोगों को सदस्य बनाये जाने के कारण उत्पन्न हुई है। जो आर्य हैं ही नहीं उन्हें भी सदस्य बनाये रहना इन समस्याओं का प्रमुख कारण प्रतीत होता है। इसके अतिरिक्त और भी अनेक कारण हो सकते हैं परन्तु हमने यह बात अपने ज्ञान व अनुभव के आधार पर संक्षेप में कही है। इसी कारण अच्छे लोग आर्यसमाज में नहीं आते। आज बड़े नगरों के 125 वर्षों पुराने समाजों में 100 की उपस्थिति भी नहीं हो पाती। यज्ञ के समय तो 10-15 उपस्थित लोगों को ही बहुत मान लिया जाता है। आज की परिस्थितियों में आर्यसमाज का पहला कार्य अपनी यथार्थ छवि विकसित करने का होना चाहिये। आर्यसमाज के प्रत्येक सदस्य को समय-समय पर अपने पड़ोसियों एवं इष्ट मित्रों में आर्यसमाज क्या है, आर्यसमाज की स्थापन क्यों की गई, आर्यसमाज का सदस्य बन कर सामान्य मनुष्य को होने वाले लाभ, आर्यसमाज और वर्णव्यवस्था या जन्मना जातिवाद, देश की आजादी में आर्यसमाज का योगदान, आर्यसमाज सर्वश्रेष्ठ धार्मिक एवं सामाजिक संस्था क्यों व कैसे?, आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द का आदर्श जीवन एवं विचार, ऋषि दयानन्द और ब्रह्मचर्य, सत्यार्थप्रकाश की विशेषतायें, सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से लाभ, क्या सत्यार्थप्रकाश वेदसम्मत एवं आर्ष शास्त्र सम्मत है?, हिन्दुओं का सत्यार्थप्रकाश न पढ़ने का कारण उनका अज्ञान व स्वार्थ, ऋषि दयानन्द का वेदभाष्य सर्वश्रेष्ठ वेदभाष्य क्यों व कैसे?, धर्म,अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति वेदाध्ययन व तदवत आचरण से आदि अनेक विषयों के ट्रैक्ट व लघुपुस्तक जो 15 मिनट से आधे घण्टे की अवधि में पढ़े जा सकें, प्रकाशित कर जनता में वितरित करने चाहिये। यदि आर्यसमाज का प्रत्येक सदस्य अपने जीवन में प्रत्येक माह 10 से 25 व्यक्तियों तक भी कुछ ट्रैक्ट वितरित करे तो आर्यसमाज आने वाले समय में देश विदेश में प्रसिद्ध हो सकती है। लोगों को आर्यसमाज और इसके संस्थापक तथा आर्यसमाज की मान्यताओं आदि का पर्याप्त ज्ञान हो सकता है। हमने जिन विषयों की चर्चा की है उसमें एक बात यह भी जोड़ना चाहते हैं कि इन लघु ग्रन्थों की भाषा सरल व सरलतम होनी चाहिये। वेद आदि के प्रमाण न हों तो अच्छा है। सभी बाते तर्कसंगत व रोचक शैली में प्रस्तुत हो जिससे पाठक पुस्तक की विषय वस्तु की ओर आकर्षित हो जाये और उसमें अध्यात्म व आर्यसमाज की भूख उत्पन्न हो जाये। क्या ऐसा होना सम्भव है? हमें इसमें असम्भव जैसा कुछ नहीं दीखता। हां, यह पुरुषार्थ से सम्बन्ध रखता है, अतः प्रयत्न तो करने ही होंगे। हम जो लेख प्रतिदिन लिखते हैं उसमें प्रायः विषय व भाषा की दृष्टि से इन्हीं बातों का ध्यान रखते हैं। हमें सफलता भी मिली है। नये व अनुभवी पाठक भी हमारे लेख पसन्द करते हैं और हमें फोन, पत्र व इमेल सहित फेसबुक पर लाइक व कमेन्ट्स द्वारा अपनी आख्या देते रहते हैं। पाठकों की एक ही मांग होती है कि लेख यथासम्भव छोटे होने चाहियें।

 

आज इस लेख में हम आर्यसमाज की एक छोटी सी त्रुटि व कमी की ओर ध्यान दिलाना चाहते हैं। इसकी पूर्ति होने पर भी आर्यसमाज को निश्चित रूप से लाभ हो सकता है। फेसबुक के माध्यम से एक स्थानीय युवक हमसे जुड़े हैं। किसी दुर्घटना में उन्हें काफी शारीरिक हानि हुई थी। अब वह ठीक हैं परन्तु वह हकलाकर वा रूक रूक कर बोलते हैं। स्वामी रामदेव जी वा आचार्य बालकृष्ण जी ने उन्हें सत्यार्थप्रकाश पढ़ने की प्रेरणा की थी। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश पढ़ा। उसके बाद उन्हें ऋग्वेदभाष्यभूमिका पढ़ने के लिए कहा गया। उसके लिए उन्होंने हमें फोन किया। हमारे पास विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली द्वारा प्रकाशित एक नई अतिरिक्त प्रति थी, वह हमने उन्हें भेंट कर दी। उसके बाद उन्होंने संस्कारविधि पढ़ने की इच्छा व्यक्त की। इस बीच एक घटना और घटी। उन्होंने प्रतिदिन यज्ञ करना आरम्भ कर दिया है। वह तसले में यज्ञ करते हैं। यह उनके लिए असुविधाजनक है। उन्होंने हमसे एक यज्ञकुण्ड सशुल्क उपलब्ध कराने के लिए कहा। इसके लिए हम देहरादून की स्वामी श्रद्धानन्द जी द्वारा स्थापित एक आर्य संस्था जहां पहले आर्य साहित्य, हवन सामग्री एवं यज्ञकुण्ड आदि सब चीजें मिला करती थी, वहां गये तो मैनेजेर महोदय ने बताया कि उन्होंने यज्ञकुण्ड रखना बन्द कर दिया है। पूछने पर कारण बताया कि लोग शिकायत करते थे। हमें यह उत्तर उचित प्रतीत नहीं हुआ। मैनेजर को हम क्या कहते? आर्य संस्थाओं के कर्मचारी आर्यसमाजी विचारधारा के अपवाद स्वरूप ही होते है। उन्हें न सत्यार्थप्रकाश और न यज्ञ के महत्व का ज्ञान होता है। संस्था के आर्यसमाजी प्रबन्धक जी वहां नहीं थे। फिर भी हमने मैनेजर साहब को कहा कि यदि किसी आर्यसमाजी व अन्य को यज्ञ करना हो, वह यज्ञ कुण्ड लेना चाहता हो, यह आश्रम उपयुक्त स्थान है, यहां यज्ञकुण्ड नहीं होगा तो क्या यज्ञकुण्ड का अभिलाषी व्यक्ति दिल्ली लेने जायेगा? हो सकता है कि उन्हें हमारा उत्तर समझ न आया हो। उसके बाद हमने अन्यत्र भी पता किया, किसी आर्यसमाज या आर्यसमाजी संस्था में यज्ञकुण्ड नहीं मिले। गुरुकुल पौंधा के आचार्य जी को फोन किया। उनके पास कुछ यज्ञकुण्ड उपलब्ध हैं। हमने उनसे ही निवेदन किया। आशा है कि कुछ दिनों में जब मिलना होगा तो हम उनसे प्राप्त कर लेंगे। दूरी कुछ अधिक होने से वहां सरलता से आना जाना नहीं हो पाता। तात्कालिक तौर पर हमने उन्हें अपना अतिरिक्त यज्ञकुण्ड दे दिया है। आर्यसमाज के हित में विचार करने पर हमें लगा कि भारत की सभी आर्यसमाजों में कुछ आवश्यक वस्तुएं विक्रय के लिए उपलब्ध होनी चाहियें जिनमें यज्ञकुण्ड भी एक है। इसके अतिरिक्त सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, दयानन्द लघुग्रन्थ संग्रंह, ऋषि के वेदभाष्य व अनेक विद्वानों द्वारा लिखित ऋषि जीवन चरित सहित यज्ञ समिधायें, यज्ञ सामाग्री, घृत व कपूर आदि भी विक्रय हेतु देश भर के सभी आर्यसमाजों व आर्य संस्थाओं में उपलब्ध होने चाहिये। यदि किसी दिन प्रातः 9 बजे से 6 बजे तक कोई व्यक्ति आर्यसमाज या आर्य संस्था में जाये तो यह सभी वस्तुयें अविलम्ब सशुल्क वहां मिल जानी चाहिये जैसे बाजार में दुकानों पर मिलती है। जिन अधिकारियों को इस कर्तव्य को स्वीकार करने में आपत्ति हो, हमारा विनम्र निवेदन है कि उन्हें अधिकारी पद छोड़ देना चाहिये। आर्यसमाज के अधिकारी रविवार को केवल दो या तीन घंटे का सत्संग आयोजित करने भर के लिए नहीं होते अपितु उन्हें व कर्मचारियों को इन आवश्यक गतिविधियों का संचालन भी करना चाहिये। इससे आर्य साहित्य के हमारे प्रकाशकों को भी लाभ होगा। इस कार्य के लिए आर्यसमाज में एक पृथक व्यक्ति भी रखा जा सकता है या किसी कर्मचारी को अन्य कार्यों के साथ यह दायित्व भी दिया जा सकता है।

 

हम यह भी अनुभव करते हैं कि सभी आर्यसमाजों में आर्यवीर दल की शांखा लगनी चाहिये। यदि प्रतिदिन नहीं लग सकती तो सप्ताह में अवकाश के किसी दिन लगाई जा सकती है। इससे युवकों के चरित्र निर्माण में सहायता मिलेगी। यह कार्य व दायित्व भी आर्यसमाज के पुरोहित जी को दिया जा सकता है। बाद में जब योग्य युवा तैयार हो जावें तो यह दायित्व समाज के किसी योग्य युवा को दिया जा सकता है। एक अन्य समस्या की ओर भी हम ध्यान दिलाना चाहते हैं। हमारे आर्यसमाजों में अनेक योग्य विद्वान व सज्जन पुरोहित होते हैं। कुछ लोभी व स्वार्थी प्रवृत्ति के भी होते व हो सकते हैं। हमने अधिकारियों को अच्छे पुरोहितों के साथ कठोर व अविश्वास का व्यवहार करते देखा है। उनका वेतन भी बहुत कम होता है जिससे वह अपना भोजन आदि भी निश्चिन्तता से नहीं कर पाते। अनेक पारिवारिक दायित्व पूरा करने में उनके सामने कठिनाईयां आती हैं। वह पूरे मन से काम नहीं कर पाते। हमारे अधिकारियों को पुरोहितों की गरिमा समझनी चाहिये। पुरोहित का पद मंत्री व प्रधान के पद से बड़ा होता है। आज देश में देखें तो प्रधानमंत्री मोदी जी या प्रदेश के मुख्य मंत्री अथवा जिला मैजिस्ट्रेट एक प्रकार से पुरोहित ही हैं। यह बात अलग है कि मोदी जी के अलावा कौन अपने कर्तव्यों का निर्वाह ठीक से कर रहा है? आर्यसमाज के अधिकारियों का अपने अच्छे पुरोहित के साथ अच्छा व सम्मानजनक व्यवहार होना चाहिये और साथ ही उनको दक्षिणा व सहयोग राशि भी आज की परिस्थितियों को देखते हुए निर्धारित करनी चाहिये। देहरादून के मिशनरी भाव के एक पुरोहित जी को सम्भवतः अधिकारियों के व्यवहार आदि कारणों से आर्यसमाज छोड़कर स्वतन्त्ररूप से पुरोहित का कार्य करने का निर्णय लेना पड़ा। पुरोहितों से सम्बन्धित एक शिकायत भी हमें मिली है। कई अच्छे पुरोहित भी यजमान से कार्यारम्भ से पूर्व दक्षिणा निर्धारित करते हैं। एक यजमान के साथ ऐसा ही किया गया। वह अति सम्पन्न व प्रसिद्ध व्यक्ति हैं। वह उससे कहीं अधिक देना चाहते थे, जितने धन की पुरोहित द्वारा उनसे मांग की गई थी। उन्हें बुरा लगा और यह बात हमारे सम्मुख आई। हमें भी दुःख हुआ। इस विषयक लेख हम अप्रैल, 2017 में ही लिख चुके हैं जिसे बहुत पसन्द किया गया और बहुत लोगों ने अपने कमेन्ट्स दिये। एक और घटना हमें याद हो आई। एक बार बाहर से किसी वृद्ध विद्वान् व्यक्ति का फोन आया। कोई सज्जन व्यक्ति बोल रहे थे। किसी प्रादेशिक सभा के अधिकारी के बारे में उन्होंने बताया कि वहां अध्यापिकाओं की नियुक्ति में लाखों रूपये लिये जाते हैं। सम्भवतः यह राशि उन्होंने 13 व 14 लाख के मध्य बताई थी। यह सुन कर हमें हैरानी हुई। हमें लगा कि यह वास्तविक स्थिति है। जिस समाज, सभा व संस्था में ऐसे अधिकारी होंगे वह संस्था कभी आगे नहीं बढ़ सकती। आज हम किसी अधिकारी के बारे में दावे से यह नहीं कह सकते कि वह अर्थ शुचिता के नियमों का पालन करता है। सम्भवतः यही आर्यसमाज की उन्नति में बाधक कारणों में प्रमुख कारण है। सभा व संस्थाओं पर इस पर विचार करना चाहिये।

 

हम यह भी अनुभव करते हैं कि आर्यसमाज के अधिकारियों को अपने विद्वानों की एक टीम बनाकर कम से कम 100 मीटर के वृत्त में निवास करने वाले प्रत्येक परिवार के पास जाकर वेद और आर्यसमाज के महत्व सहित आर्यसमाज के पूर्व किये गये महत्वपूर्ण कार्यों को बताना चाहिये। उन्हें बताना चाहिये कि आर्यसमाज की विचारधारा में वह सात्विक बल व सामर्थ्य है जिसकी देन पतंजलि योगपीठ के विश्व विख्यात योग प्रचारक स्वामी रामदेव, आचार्य बालकृष्ण, हीरो गु्रप के संस्थापक चेयरमैन श्री सत्यानन्द मुंजाल, एमडीएच के सीएमडी महाशय धर्मपाल आदि जैसे लोग हैं वा रहे हैं। वेद और आर्यसमाज की विचारधारा ने प्रसिद्ध देशभक्त व स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणीय नेता स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपतराय, भाई परमानन्द, महादेव गोविन्द रानाडे, पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा, शहीद पं. रामप्रसाद बिस्मिल, शहीद भगत सिंह आदि अनेक प्रसिद्ध हस्तियां देश को प्रदान की हैं। उन्नत लोगों को संस्कारित करना और दबे व नीचे गिरे भाईयों व बहिनों को सहारा देकर खड़ा करना व उन्हें वेद विद्या से आलोकित कर समाज में उच्च लोगों के समकक्ष खड़ा करने का काम भी आर्यसमाज ने किया है और अब भी कर रहा है। हम समझते हैं कि इससे आर्यसमाज की संख्या में भी वृद्धि होगी और समाज की पहचान भी बन सकती है। हम यह भी आवश्यक समझते हैं कि आर्यसमाज को दुकानों का किराया वसूली, स्कूल खोलने व चलाने, सम्पत्तियों की बिक्री, अस्पताल आदि खोलने व चलाने जैसे कार्य न कर केवल प्रचार पर ही ध्यान केन्द्रित करना चाहिये। आर्यसमाज में किसी सदस्य की मृत्यु के अवसर आयोजित शान्ति यज्ञ में भी आर्यसमाज को न्यूनतम शुल्क ही लेना चाहिये। हमारा अनुभव है कि आर्यसमाज ने विवाह व मृतक की शोक सभाओं के शुल्क समान रखे हुए हैं। यह हमारा देहरादून की एक समाज का अनुभव है। हम यह भी अनुभव करते हैं कि आर्यसमाज में यदि कोई निवास करना चाहे तो उसे दो तीन दिन के लिए रहने की अनुमति दे देनी चाहिये। यदि वह आर्यसमाजी हो तो अधिक परेशान नहीं करना चाहिये। यदि न भी हो तो उसका आईडी प्रूफ लेकर उसे अनुमति देनी चाहिये। कई व अधिकांश अधिकारी समाज के निष्ठावान सदस्यों व अतिथियों को भी अनुमति नहीं देते। यह लोग हमें ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के शत्रु लगते हैं। ऐसे लोग हमें आर्यसमाज के अधिकारी बनने योग्य प्रतीत नहीं होते। यह आर्यसमाज के प्रचार व प्रसार में बाधक तत्व हैं। इनसे बचना चाहिये। इस विषय पर भी विचार करना चाहिये।

 

हमें आर्यसमाज के हितों का ध्यान है। आलोचना करना हमारा स्वभाव नहीं है। हम आशा करते हैं कि हमारी इन पंक्तियों से लाभ तो नहीं होगा परन्तु लोगों को समस्या वा रोग का कुछ ज्ञान तो होगा ही। इतना होने पर भी हम समझते हैं कि हमारा परिश्रम सफल रहेगा। ओ३म् शम्।

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