नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति: क्या समझा जाएगा शिक्षकों का दृष्टिकोण ?

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66वें गणतंत्र दिवस पर भारत सरकार ने नई शिक्षा नीति लांच की है।अखबारों में आ रहे विज्ञापनों के अनुसार नई शिक्षा नीति के निर्माण में जन-जन का मन्तव्य जाना जाएगा।स्थानीय स्तर पर नई शिक्षा नीति पर सुझाव आमंत्रित किए जाएंगे , उन पर बहस कराया जावेगा। सार्थक बहस से जो निष्कर्ष प्राप्त होगे उन्हें नई शिक्षा नीति में लागू किया जाएगा।ऐसे 33 बिन्दु हैं जिन पर चर्चा होनी है।सवाल है कि क्या इन बिन्दुओं पर शिक्षकों का दृष्टिकोण जानने की कोशिश की जावेगी?

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षकों का दृष्टिकोण जानना जरूरी इसलिए है क्योंकि शिक्षक ही शिक्षा-नीति को धरातल पर उतारने का काम करेंगे । ऐसे में कोई भी शिक्षा नीति पूरी तरह तभी सफल होगी जब उसे देश का शिक्षक आत्मसात करने को तैयार होगा।बहुधा होता यही है कि बंद कमरों में नीतियां तैयार की जाती हैं, उन्हें शिक्षकों पर लाद दिया जाता है फिर असफलता का ठीकरा शिक्षकों के माथे फोड़ दिया जाता है।

शिक्षा को समवर्ती सूची में रखा गया है।परंतु शिक्षा के क्षेत्र में , विशेषकर स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में निर्णय राज्य सरकार दवारा लिए जाते हैं। राज्य सरकार ही पाठ्यक्रम तय करती हैं। स्कूलों में शिक्षकों के चयन और भर्ती के मापदण्ड , वेतन निर्धारण आदि का कार्य भी राज्य सरकार करती है।अभी हाल ही में आर टी ई के प्रावधानों के मुताबिक शिक्षकों के चयन और भर्ती के मापदण्डों में सारे देश में एकरूपता लाने की कोशिश की गई है। किन्तु वेतनमान व सुविधाओं में सारे देश के शिक्षकों में पर्याप्त भिन्नता है। मध्यप्रदेश जैसे कुछ राज्यों में तो एक ही स्कूल में , एक ही कक्षा को पढाने वाले ,योग्यता एवं भर्ती में समान मापदण्डों के बावजूद वेतन में अत्यधिक अन्तर है।यहां पर शिक्षक शिक्षा का मुख्य स्रोत होने से अधिक राजनीतिक दलों के एकमुश्त वोट होते हैं। शिक्षा एवं शिक्षकों को राजनैतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करने से बचाने का प्रावधान राष्ट्रीय शिक्षा नीति में होना चाहिए।

स्कूली शिक्षा को अनुत्पादक समझकर इसकी उपेक्षा करना समाज को घातक परिणाम देगा। शिक्षकों की पारदर्शी चयन प्रक्रिया से लेकर आकर्षक वेतनमान व सुविधाओं का प्रावधान नई शिक्षा नीति में होना चाहिए।नई शिक्षा नीति में सम्पूर्ण भारत में शिक्षकों के समकक्ष समान पदो के लिए समान नाम , समान सेवा शर्तें, समान वेतनमान व समान सुविधाओं का प्रावधान होना चाहिए।यदि भारत सरकार नई शिक्षा नीति में ऐसा प्रावधान करती है तो शिक्षक वेतनमान व सुविधाओं के लिए अपेक्षाकृत अधिक निश्चिंत होंगे।ठोस सेवा शर्तों के प्रावधान होने से एक बार सेवा में आने के बाद दूसरी सेवाओं में जाने की संभावना कम होगी।जिससे शिक्षक स्वयं को शिक्षकीय आचरण में ढालकर बच्चों के अध्ययन-अध्यापन में अपेक्षाकृत अधिक ध्यान दे सकेंगे।आकर्षक वेतनमान व ठोस सेवा शर्त होने से वे युवक जो बैंक, लोकसेवा आदि के लिए तैयारी करते हैं इस सेवा में आने का मन बनाएंगे।

कुछ राज्य सरकारों दवारा शिक्षकों की नियुक्ति की कार्यवाही स्वयं न कर पंचायतों और स्थानीय निकायों के माध्यम से कराई जाती है। इन संस्थाओं दवारा नियुक्त शिक्षकों के नाम अलग रखकर इनका पृथक वेतनमान निर्धारित किया जाता है। जिसमें राज्य सरकार दवारा पूर्व में नियुक्त सरकारी शिक्षकों के वेतन और स्थानीय निकायों दवारा नियुक्त समकक्ष शिक्षकों के वेतन , सुविधाओं और सेवाशर्तों में काफी भिन्नता होती है।स्थानीय निकायों दवारा नियुक्त शिक्षकों के साथ प्रायः दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है।वेतनमान काफी कम होता है।इन्हें वेतन आयोग दवारा अनुशंसित सिफारिशों का लाभ नहीं मिलता।पूर्णकालिक सेवा प्रदान करने के बावजूद आकस्मिक मृत्यु, दुर्घटना आदि होने पर बीमा का प्रावधान नहीं होता।प्रत्येक ग्राम स्तर पर विद्यालय होने के बावजूद स्थानांतरण आदि नीतियों का लाभ प्राप्त नहीं होता। जबकि सरकार अपनी सुविधा अनुसार किसी भी शिक्षक को अन्यत्र स्थानांतरित करने के लिए विवश कर सकती है।परंतु शिक्षक की स्वेच्छा पर स्थानांतरण की नीति नहीं बनाई गई है।ऐसे शिक्षक इन्हीं छोटी-छोटी सुविधाओं को सरकार से मनवाने के लिए आन्दोलन करते दिखाई देते हैं।जिससे छात्रों के अध्ययन-अध्यापन में बाधा पहुंचती है।

आर टी ई के प्रावधानों के मुताबिक छात्र संख्या के अनुपात में शिक्षकों की भर्ती किया जाना आवश्यक है।परंतु राज्य सरकार चुनावी समीकरण को देखते हुए ही शिक्षकों की भर्ती का विज्ञापन निकालती है। चूंकि बहुत अधिक संख्या में शिक्षकों की आवश्यकता होती है अतः राज्य सरकार इस संख्या को अधिक बढ़ा -चढ़ाकर दिखाने के लिए पूरे पांच सालों में सिर्फ एक बार ही शिक्षकों की भर्ती करती हैं। वह भर्ती भी चुनाव की तारीखों के नजदीक की जाती हैं। ताकि उसका लाभ चुनाव में लिया जा सके।दूसरी ओर , स्थायी पदों पर भर्ती न कर संविदा या अतिथि आधार पर अस्थायी पद सृजित कर भर्तियां की जाती हैं ताकि एक बार और उन्हें स्थायी करने के नाम पर वोटबैंक की तरह इस्तेमाल किया जा सके।मध्यप्रदेश ,राजस्थान और छत्तीसगढ़ में शिक्षाकर्मी के नाम से , उत्तरप्रदेश में शिक्षामित्र के नाम से , हरियाणा में अतिथि अध्यापक के नाम से दिल्‍ली में संविदा शिक्षक के नाम से ऐसी भर्तियां की गई हैं।मध्यप्रदेश में आज भी संविदा शिक्षक नाम से पहले अस्थायी पद पर भर्ती की जाती है फिर 3 वर्ष बाद उनका अध्यापक संवर्ग में संविलियन किया जाता है। यद्यपि अध्यापक संवर्ग भी सरकारी पद नहीं माना गया है।अध्यापक संवर्ग का पद स्थानीय निकाय का पद मानकर सरकारी शिक्षक संवर्ग से बहुत अधिक अन्तर रखते हुए वेतन दिया जाता है।संविदा शिक्षकों के भी लाखों पद लम्बे समय तक खाली रहते हैं जिनके विरुद्ध संस्था स्तर पर अतिथि अध्यापकों की भर्ती की जाती है जिनका वेतन एक मजदूर की मजदूरी से भी कम होता है और उन्हें किसी भी समय बिना किसी सूचना के सेवा से पृथक किया जा सकता है।

संविदा शिक्षक , अतिथि अध्यापक नाम से भर्ती शिक्षक अस्थायी पद होने के कारण सदैव अन्य सेवाओं की तरफ देखते हैं।बच्चों के प्रति उनकी जिम्मेदारी भी कम होती है।उनका इस सेवा में बना रहना अनिश्चित होता है।इसके अतिरिक्त इसी अनिश्चितता के कारण प्रतिभावान युवा इन सेवाओं की तरफ कभी आकर्षित नहीं होते जिससे स्कूलों में योग्य शिक्षकों की सदैव कमी बनी रहती है।मजबूरी में विद्यालय में पदस्थ अन्य विषय शिक्षकों को अपने विषय के अतिरिक्त अन्य विषयों का अध्यापन कार्य करना पड़ता है।इस प्रकार के अध्यापन से गुणवत्ता में कमी आना निश्चित है।नई शिक्षा नीति में यह प्रावधान होना चाहिए कि शिक्षकों की सीधे स्थायी पदों पर स्थायी वेतनमान में नियुक्ति हो और यह भी सुनिश्चित किया जावे कि लम्बे समय तक स्कूल में शिक्षकों के पद रिक्त न हो और एक ही पद पर अस्थायी रूप से काम करने की अधिकतम सीमा निर्धारित हो उसके बाद उस पद को अस्थायी रूप से नहीं भरा जा सकता ।

भर्ती एवं सेवा शर्तों के अतिरिक्त स्कूली शिक्षा में पर्यवेक्षण एवं निरीक्षण के पारंपरिक तरीकों में बदलाव की जरूरत है।स्कूली शिक्षा में गुणात्मक पर्यवेक्षण का अभाव है।शिक्षक की मुख्य भूमिका यह है कि वह स्कूल के बच्चों में दक्षता विकसित करने का कार्य करे।कक्षा एवं पाठ्यक्रम अनुसार उनमें योग्यता लाए। यदि वह ऐसा नहीं कर पाता तो लापरवाही एवं उदासीनता के लिए उसे जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए।किंतु गुणात्मक पर्यवेक्षण के अभाव में ऐसे शिक्षक जो परिश्रम करते हैं और ऐसे शिक्षक जो बिल्कुल भी परिश्रम नहीं करते उनको चिन्हित कर पृथक नहीं किया जाता।शिक्षकों को इतनी अधिक छूट होती है कि वह वर्णमाला का ज्ञान न रखने वाले विद्यार्थी को भी लगातार कक्षोन्नति देते रहते हैं।इससे वे शिक्षक जो परिश्रम करते हैं वे हतोत्साहित होते हैं और कालांतर में वे भी परिश्रम न करने के आदी हो जाते हैं।जिला और प्रखण्ड स्तर के शिक्षा कार्यालय मात्र डाक के आदान-प्रदान की जिम्मेदारियों तक सीमित होते हैं।उनके दवारा सघन पर्यवेक्षण नहीं किया जाता ।कोरम पूर्ति हेतु किए गए पर्यवेक्षण में शिक्षक की उपस्थिति मात्र से संतोष कर लिया जाता है।जबकि विद्यालयीन निरीक्षण का मुख्य उददेश्य शिक्षक दवारा बच्चों पर किए गए कार्य का अवलोकन होना चाहिए।

ग्रामीण बच्चों की उपस्थिति प्रायः निराशाजनक होती है। सरकार विद्यार्थियों और अभिभावकों को बहुत सी सुविधाएं प्रदान करती है।यदि सरकार इन सुविधाओं को उन बच्चों की उपस्थिति से संबद्ध कर दे तो ग्रामीण विद्यालयों के बच्चों की उपस्थिति में सुधार संभव है।प्रायः देखा गया है कि नियमित उपस्थित होने वाले विद्यार्थियों और नियमित उपस्थित न होने वाले विद्यार्थियों के दक्षता स्तर में पर्याप्त अंतर होता है।सरकार को ऐसा कोई रास्ता निकालना होगा जिससे अभिभावक अपने बच्चों की स्कूल में उपस्थिति सुनिश्चित करें।

शिक्षा के क्षेत्र में सम्पूर्ण भारत में क्रांति लाने के लिए आवश्यक है कि शिक्षकों को उनकी जिम्मेदारी के लिए चेतन बनाया जाए लेकिन उससे पहले यह भी जरूरी है कि शिक्षकों की भर्ती से लेकर अध्यापन की शैली तक किए जाने वाले प्रयोगों पर पाबंदी लगाई जाए। नवाचार के नाम पर सरकारी रुपयों का अब तक मात्र दुरुपयोग हुआ है।दो साल के व्यावसायिक प्रशिक्षण के बावजूद प्रशिक्षण के नाम पर आए दिन शिक्षकों को व्यस्त रखना उचित नहीं है।यदि शिक्षक पढ़ाना चाहे तो वह बेहतर जानता है कि वह कैसे पढ़ाए ।यह हो सकता है कि प्रशिक्षकों का एक दल निरंतर विद्यालयों का पर्यवेक्षण करे और उनके विद्यालय में ही बच्चों के सम्मुख शिक्षक की कठिनाईयों का निदान करे परंतु प्रशिक्षण के नाम पर शिक्षकों को बार-बार स्कूल से बुलाना और धन अपव्यय करना सर्वथा अनुचित है।

स्कूली शिक्षा की आज की स्थिति बिल्कुल भी संतोषजनक नहीं है और इसे अच्छा बनाने के लिए नई शिक्षा नीति में प्रावधान होना ही चाहिए जिसमें शिक्षकों का दृष्टिकोण भी शामिल हो।

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