गंगा की निर्मलता का सवाल

-अरविंद जयतिलक-

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गंगा भारतीय संस्कृति की प्रतीक है। हजारों साल की आस्था और विश्वास की पूंजी है। देश की अमृत रेखा व मोक्षदायिनी है। शास्त्र, पुराण और उपनिषद उसकी महिमा का बखान करते हैं। पौराणिक मान्यता है कि राजा भगीरथ वर्षों की तपस्या के बाद ज्येष्ठ शुक्ल दशमी के दिन गंगा को पृथ्वी पर लाने में सफल हुए। स्कंद पुराण व वाल्मीकी रामायण में गंगा अवतरण का विशद व्याख्यान है। गंगा का महत्व सिर्फ धार्मिक-सांस्कृतिक ही नहीं बल्कि आर्थिक भी है। उसके बेसिन में देश की तकरीबन 43 फीसद आबादी निवास करती है और प्रत्यक्श-परोक्ष रुप से उसकी जीविका गंगा पर ही निर्भर है। गंगा गोमुख से निकल उत्तराखंड में 450 किमी, उत्तर प्रदेश में 1000 किमी, बिहार में 405 किमी, झारखंड में 40 किमी और पश्चिम बंगाल में 520 किमी सहित कुल 2525 किमी लंबी यात्रा तय करती है। लेकिन त्रासदी है कि जीवनदायिनी गंगा प्रदूषण के दर्द से कराह रही है। 1985 में शुरू गंगा एक्शन प्लान के 30 साल गुजर जाने और हजारों करोड़ के खर्च के बाद भी उसे निर्मल निर्मल नहीं किया जा सका है। गौरतलब है कि गंगा को निर्मल बनाने के लिए जून 1985 में गंगा एक्शन प्लान शुरु किया गया। इस एक्शन प्लान के तहत उत्तर प्रदेश के छह, बिहार के चार और पश्चिम बंगाल के 15 यानी कुल 25 शहरों को शामिल किया गया जिस पर तकरीबन 450 करोड़ रुपए खर्च हुए। इसी तरह 1993 से 2009 के बीच गंगा एक्शन प्लान-2 के तहत 838 करोड़ रुपए खर्च हुए। 1989 में राजीव गांधी की सरकार ने गंगा को प्रदूषण से मुक्त करने के लिए सीवेज टीटमेंट प्लांट योजना बनायी लेकिन जनसहभागिता के अभाव में यह योजना दम तोड़ गयी। सच तो यह है कि इन प्लानों से गंगा का निर्मल होना तो दूर बल्कि पहले से भी अधिक प्रदुशित हुई है।

आज भी उसके बेसिन में प्रतिदिन 275 लाख लीटर गंदा पानी बहाया जाता है जिसमें 190 लाख लीटर सीवेज एवं 85 मिलीयन लीटर औद्योगिक कचरा होता है। गंगा की दुगर्ति के लिए मुख्य रुप से सीवर और औद्योगिक कचरा ही जिम्मेदार है जो बिना शोधित किए गंगा में बहा दिया जाता है। जरुरत इस बात की है कि गंगा के तट पर बसे औद्योगिक शहरों के कल-कारखानों के कचरे को गंगा में गिरने से रोका जाए और ऐसा न करने पर ऐसी ईकाईयों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की जाए। गत वर्ष वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट से उद्घाटित हुआ कि प्रदूषण की वजह से गंगा नदी में आक्सीजन की मात्रा कम होती जा रही है। सीवर का गंदा पानी और औद्योगिक कचरे को बहाने से क्रोमियम एवं मरकरी जैसे घातक रसायनों की मात्रा बढ़ी है। भयंकर प्रदूषण के कारण गंगा में जैविक आक्सीजन का स्तर 5 हो गया है जबकि नहाने लायक पानी में कम से कम यह स्तर 3 से अधिक नहीं होना चाहिए। गोमुख से गंगोत्री तक तकरीबन 2500 किमी के रास्ते में कालीफार्म बैक्टीरिया की उपस्थिति दर्ज की गयी है जो अनेक बीमारियों की जड़ है। गत वर्ष पहले औद्योगिक विष-विज्ञान केंद्र लखनऊ के वैज्ञानिकों ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि गंगा के पानी में ई-काईल बैक्टीरिया मिला है जिसमें जहरीला जीन है। वैज्ञानिकों ने माना कि बैक्टीरिया की मुख्य वजह गंगा में मानव और जानवरों का मल बहाया जाना है। यह तथ्य है कि ई-काईल बैक्टीरिया की वजह से सालाना लाखों लोग गंभीर बीमरियों की चपेट में आते हैं। प्रदूषण के कारण गंगा के जल में कैंसर के कीटाणुओं की संभावना प्रबल हो गयी है। जांच में पाया गया है कि पानी में क्रोमियम, जिंक, लेड, आसेर्निक, मरकरी की मात्रा बढ़ती जा रही है। वैज्ञानिकों की मानें तो नदी जल में हैवी मेटल्स की मात्रा 0.01-0.05 पीपीएम से अधिक नहीं होनी चाहिए। जबकि गंगा में यह मात्रा 0.091 पीपीएम के खतरनाक स्तर तक पहुंच गया है। मौजूदा केंद्र की सरकार ने गंगा को निर्मल बनाने के लिए एक अलग मंत्रालय के गठन के अलावा 2037 करोड़ रुपए की ‘नमामि गंगे’ योजना शुरु की है। अच्छी बात यह है कि गंगा को प्रदूषित करने वाले उद्योगों की निगरानी शुरु हो गयी है। पर बात तब बनेगी जब आम जनमानस गंगा की सफाई को लेकर गंभीर होगा। गंगा के घाटों पर प्रत्येक वर्ष लाखों लाशें जलायी जाती हैं और दूर स्थानों से जलाकर लायी गयी अस्थियों को प्रवाहित किया जाता है। ऐसी आस्थाएं गंगा को प्रदुषित करती हैं। हद तो यह कि गंगा सफाई अभियान से जुड़ी एजेंसियां भी गंगा से निकाली गयी अधजली हड्डियां और राखें पुनः गंगा में ही उड़ेल देती हैं। आखिर इस सफाई अभियान से किस तरह का मकसद पूरा होगा। जब तक आस्था और स्वार्थ के उफनते ज्वारभाटे पर नैतिक रुप से लगाम नहीं लगेगा तब तक गंगा का निर्मलीकरण संभव नहीं है।

गत वर्ष इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्देश पर सरकार ने गंगा के किनारे दो किलामीटर के दायरे में पॉलिथिन एवं प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाया। लेकिन यह प्रतिबंध सिर्फ तमाशा साबित हुआ। मनाही के बावजूद भी गंगा के किनारे पॉलिथिन एवं प्लास्टिक बिखरे पड़े हैं। गौर करें तो इसके लिए हमारा समाज ही जिम्मेदार है। जब तक समाज गंगा को प्रदूषण से मुक्त करने का व्रत नहीं लेगा गंगा की सफाई संभव नहीं है। ध्यान रखना होगा कि गंगा में तकरीनब एक हजार छोटी-बड़ी नदियां मिलती है। अगर गंगा को स्वच्छ रखना है तो इन नदियों की भी साफ-सफाई जरुरी है। पर्यावरणविदों की मानें तो गंगा की दुर्दशा के लिए गंगा पर बनाए जा रहे बांध भी जिम्मेदार हैं। यही वजह है कि वे एक अरसे से गंगा पर बांध बनाए जाने का विरोध कर रहे हैं। प्रख्यात पर्यावरणविद् और आइआइटी खड़गपुर के सेवानिवृत शिक्शक स्वामी ज्ञानस्वरुप सांनद (जीडी अग्रवाल) गंगा विमुक्ति का अभियान चला चुके हैं। उन्होंने यूपीए सरकार के दौरान आमरण अनशन किया। गोमुख से निकलने के बाद गंगा का सबसे बड़ा कैदखाना टिहरी जलाशय है। इस जलाशय से कई राज्यों को पानी और बिजली की आपूर्ति होती है। यह भारत की सबसे बड़ी पनबिजली परियोजनाओं में से एक है। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि इसकी कीमत गंगा को विलुप्त होकर चुकाना पड़ेगा। पर्यावरणविदों का मानना है कि गंगा पर बांध बनाए जाने से जल प्रवाह में कमी आयी है। प्रवाह की गति धीमी होने से गंगा में बहाए जा रहे कचरा, सीवर का पानी और घातक रसायनों का बहाव समुचित रुप से नहीं हो पा रहा है। पर्यावरणविदों का तर्क यह भी है कि गंगा पर हाइड्रो पॉवर प्रोजेक्ट लगाने से पर्यावरणीय असंतुलन पैदा होगा। उत्तर काशी क्षेत्र में लोहारी नागपाला पनबिजली परियोजना को पुनः हरी झंडी दिखायी गयी तो गंगोत्री से उत्तरकाशी के बीच गंगा का तकरीबन सवा सौ किलोमीटर लंबा क्षेत्र सूख जाएगा। उनका कहना है कि अगर गंगा पर प्रस्तावित सभी बांध अस्तित्व में आए तो गंगा का 39 फीसद हिस्सा झील बन जाएगा। इससे प्राकृतिक आपदाओं की संभावना बढ़ जाएगी। गंगा पर बनाए जाने वाले 34 बांधों और गंगा की कोख का खनन को लेकर संत समाज भी अरसे से आंदोलित है। याद होगा आज से चार साल पहले गंगा के किनारे अवैध खनन के खिलाफ आंदोलनरत चौंतीस वर्षीय निगमानंद को अपनी आहुति तक देनी पड़ी। अच्छी बात यह है कि गंगा की सफाई को लेकर केंद्र की मोदी सरकार संवेदनशील है और सर्वोच्च न्यायालय की भी कड़ी नजर है। वह समय-समय पर केंद्र सरकार को ताकीद भी कर रहा है। अभी पिछले वर्ष ही उसने सरकार द्वारा पेश किए गए हलफनामे पर असंतुश्टि जतायी और सरकार से गंगा की सफाई के मामले में एक समय सीमा तय करने को कहा। उसने सरकार को ताकीद किया कि वह आम आदमी की भाशा में समझाए कि गंगा कब तक और किस तरह साफ होगी। पर समझना होगा कि गंगा की निर्मलता की जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की ही बल्कि समाज की भी है। जब जब आम जनमानस के मन में गंगा के प्रति संवेदनशीलता और सच्ची आस्था का भाव पैदा नहीं होगा तब तक गंगा को प्रदूषण से मुक्त नहीं किया जा सकता।

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