उपन्यास अंश(आमचो बस्तर से)- नरबलि और माँ दंतेश्वरी

 राजीव रंजन प्रसाद

विलियम्सन का अगला कदम था बस्तर की आत्मा का हनन। भोंसला शासक रघुजी तृतीय पर दबाव बनाया जाने लगा। माँ दंतेश्वरी के मंदिर में नरबलि होने की खबरों को हवा दी जाने लगी जिसकी आड़ में कभी भोंसला राजा तो कभी कंपनी बहादुर की ओर से अपमान जनक पत्र भूपाल देव तक पहुँचते रहे। राजा की ओर से हर बार प्राप्त पत्रों के उत्तर में यही गया कि – “दंतेवाड़ा में स्थित माँ दंतेश्वरी के मंदिर में किसी तरह की मेरिया प्रथा चलन में नहीं है। यहाँ धार्मिक अनुष्ठान होते हैं तथा पशुओं की बलि, यहाँ तक कि भैंसे की बलि अवश्य दी जाती है किंतु नर-बलि का प्रावधान नहीं है।“

राजा का यह स्पष्टीकरण अमान्य कर दिया गया। रघुजी तृतीय ने दंतेवाड़ा मंदिर की सुरक्षा तथा मेरिया प्रथा को रोकने के लिये अपनी सेना भेजने का निर्णय लिया।

“योवर हाईनेस, मेरा सुझाव है कि आपके पास ‘मुस्लिम और अरब’ सैनिकों की जो टुकडी है उसे दंतेवाड़ा भेज दीजिये।“ विलियम्सन ने दरबार में अदब से अपनी टोपी उतारते हुए कहा।

“नहीं ऑफिसर, यह देवी का अपमान होगा। आदिवासी इसे नहीं मानेगे। विद्रोह हो सकता है।” एक सभासद उठ खड़ा हुआ।

“नरबलि को ले कर कंपनी बहुत गंभीर है। हिन्दू सैनिक होंगे तो इस प्रथा को अनदेखा कर सकते हैं।” विलियम्सन ने तर्क दिया।

“यह धार्मिक मामला है। हमें लोगों की भावना और परम्परा का सम्मान करना चाहिये।” भोंसला राजा ने कहा।

“यस योवर हाईनेस। आपके मुसलमान सैनिक मंदिर के अंदर नहीं जायेंगे। उनका काम निगरानी करना होगा जिससे किसी तरह की नरबलि नहीं हो सके।” विलियम्सन ने चालाकी से अपनी बात मनवा ली।

मुसलमान और अरब सैनिकों की एक टुकडी दंतेवाड़ा-मंदिर में तैनात कर दी गयी। इस तैनाती ने बस्तर के राजा की विवशता को एक बार और उजागर कर दिया। राज्य के कुल देवी का मंदिर जो एक शक्ति पीठ भी है, वह मुसलमान सैनिकों से रक्षित हो यह बात न मंदिर के पुजारियों को जज़्ब हो रही थी न ही आम आदिवासी को। मुस्लिम सैनिकों का रहन सहन और उनकी मनमानी ने भी दंतेवाड़ा और उसके आस पास के क्षेत्र का माहौल तनावपूर्ण कर दिया। यह आदिम मान्यताओं पर सीधा और जान बूझ कर किया गया हमला था।

*****

सोबती को घोटुल बिदाई दे रहा था। अपने ‘चेलक’ कोसा के साथ वह नयी ज़िन्दगी में प्रवेश करने जा रही थी। सलफी के कई दौर चले और बीसियों मुर्गे दावत में होम हो गये। रात के बढ़ते-बढ़ते भी न तो समूह नृत्य की उर्जा थमी, न ही गीत बंद हुआ। अब बोल मस्ती भरे न हो कर भाव भरे हो गये थे। एक साथ उठती स्वर लहरी कि – तुम आज जा रही हो मेरी ‘साईगुती’, मेरी सखी; देखो तुम्हारे जाने से हम सब उदास हैं। गाँव-घोटुल उदास है; तुम जहाँ रहना, सुखी रहना –

सिरपुर हेलो डोरी डोरो। निवेदेके दाकार रोय रोय। सांको निवेदेके काकट रोय। बरग सरपार ते, उदीतन सिरदार सरपार ताहे हनद, ताने इने पाय नदी अयो अयो इनद, तुत ताने ओनदी सोईदार।

गीत ऐसे जिसमें एक एक चेलक और मोटियारी के मन की पीड़ा उभरती थी कि – मेरी सखी तेरे जाने से घर सूना हो जायेगा। ओ उस लड़की की माँ!! जो वहाँ खड़ी थोड़ा झुकी और शरमायी हुई है, अब उसे भुला दो। वह नये जीवन में प्रवेश करने जा रही है। तुमने जो शादी की रस्म के लिये चावल को पानी में ड़ाल दिया था, वह मिल गया है इस लिये यह शादी सफल होगी –

रे रेला रे रेला रे रेलो नियरा मनदाना लोनी रोय हेलो। लोनी गाजुर हिन्दु रोय हेलो लयोर ततेल मदा री सांगो मन्दो देरी कोकोती रे वाकोती यबाड़ रे।

सचमुच भावुक कर देने वाला क्षण था सोबती के लिये। वह कितनी खुशकिस्मत ‘मोटियारी’ थी कि अपने प्रेमी कोसा से ही बियाह करने जा रही थी। उसने घोटुल में देखा था कि कितनों के प्रेमी छूट गये। उसने कितनी ही सहेली मोटियारियों को उन साथियों के साथ जीवन बिताने के लिये गीत गा कर बिदा किया था जो असल में उनके प्रेमी नहीं थे। वे गीत जीवन साथी के साथ सुखी जीवन जीने और प्रेमी को भूल जाने के भावों भरे होते थे।

सोबती ने अपनी सबसे गहरी सखी ‘लक्मी’ को महीने भर हुए जब बिदा किया था, तब वह कितनी उदास थी। लक्मी को पार-गाँव के चेलक से बिहाव करना पड़ा। उसके प्रेमी ने दूसरी मोटियारी पसंद कर ली थी।…। तब उस गीत को गाते हुए सबसे तेज स्वर सोबती का ही था कि वह लक्मी को समझा सके कि – जाओ सखी अब इस घोटुल में कभी मत आना। अपने प्रेमी को भूल जाना बल्कि बहुत जल्दी ही तुम उसे भूल जाओगी क्योंकि विवाह की जिन्दगी में असीम आनंद है –

नियराजोर तोर ल्योर रोक हेलो। जो दिये ओन दोय किति रोय हेलो।

संगी रे जारे तीर लयोर रोय हेलो।

अदेरे राजो पुरी रोह हेलो। डदेके वर पुंदकी रोय हेलो।

…..। आज सोबती की आँखों में आँसू थे। वह एक एक कर अपने साथियों से बिदा हो रही थी। एक नजर भर उसने घोटुल की उन दीवारों को देखा जिन पर परबत, टोकनी, हाँथ के छापे, पुतला, खिड़की, बिच्छू, देवता, घोडा, त्रिशूल….और भी जाने क्या क्या अंकित था।

इधर दोस्त ‘चेलक-मोटियारियों’ की एक टोली का नृत्य उफान पर था। चेलकों ने सिर पर गौर के सींग लगाये थे और कंधे पर हाँथ भर का ढ़ोल – मांदर लटकाया हुआ था। मांदर की लय बद्ध थाप पर सबके पैर एक साथ थिरक रहे थे। मोटियारियों ने एक हाँथ दूसरे साथी की कमर में डाला और दूसरे हाँथ में तिरडुड्डी थामी थी। तिरडुड्डी एक लोहे की छड़ है जिस पर लोहे की ही पत्तियों का झुमका लगा होता है। नृत्य करते हुए जब तिरडुड्डी को मोटियारिया एक साथ पटकती हैं तो अत्यंत कर्णप्रिय छनक सुनाई पड़ती है।

इस दिन की प्रतीक्षा थी सोबती को। अपने श्रंगार के लिये कितनी तैयारी की थी उसने। उसने बड़े ही चाव से अपने गाल, छाती, कलाईयों, हथेली के पिछले हिस्से, घुटने के उपर, पैर की उंगलियों पर, पिंडलियों पर गुदना करवाया। गुदनारी जब पत्तों के रस में डुबों डुबो कर उसके शरीर पर कहीं सर्पाकार आकृतियाँ तो कहीं मोर, फूल या फिर मछली बना रही थी तब उसे पीड़ा से अधिक सुखानुभूति हो रही थी। शरमा कर सोबती ने गुदनारी से कहा कि उसके प्रेमी – कोसा का नाम का भी वह गुदना कर दे। गुदनारी भी खिलखिला उठी और फिर दोनों ने साथ मिल कर गाया –

ईली ओझिल गोदालि बांहां। इज्जत गेली मरजद गेली घांडी दे महां रे।

आज सोबती ने देर तक शंखिनी नदी में डुबकी लगाई। उसने कवेलू के टुकड़ों और गोल पत्थरों से शरीर को मल-मल कर गोरा किया। छींद की पत्तियाँ चबा कर अपने होंठ लाल किये, आँखों में आज सोबती ने काजल भी लगाया था। उसने अपने बाल जूड़े की तरह बाँध लिये और फिर नदी के पानी में मुखड़ा देख कर कई बार शरमाने के बाद जूड़े में गेन्दे के फूल भी खोंस लिये। लाल रंग की कंघी जिसे वह पड़िया कहती थी जूड़े में खोंस ली। घुटने से कमर तक उसे ढ़क कर सुन्दरता देता लाल वस्त्र भी सोबती ने इस तरह पहना कि उसके पेट पर का गुदना छुप न जाये। कमर पर उसने पीतल के छोटे छोटे घुंघरू लटका लिये और पैरों में पीतल की पायल भी डाली। सिर पर एक पट्टी जिस पर कौड़ियाँ जड़ी हुई थी आज सोबती के प्रमुख गहनों में थी।

गले में रंग बिरंगी लाल-सफेद घुंघचियों की माला, घास के बीज की माला और एक कौडियों की माला भी उसने डाल ली। बहुत सी मालाओं ने उसे सुन्दरता की देवी बना दिया मानों स्वयं प्रकृति ने उसका श्रंगार किया था। मालायें उसके स्तनों तक झूल रही थी। सोबती भला अपने स्तनों को क्यों ढ़केगी? स्तन तो वो लड़कियाँ ढ़कती हैं जो प्रेम करना जानती ही नहीं। जबकि सोबती…उसने तो कोसा को अपना मन और जीवन समर्पित कर दिया है। इधर कोसा ने भी कम तैयारी नहीं की थी। आज उसकी ‘डगरपोल यानी कि माला’, केवल घास के बीजों, मूंगों और मनकों की ही नहीं थी बल्कि उसने साँप के दाँत की बनी मनखिया भी पहनी थी।….।

अब घोटुल से बिदाई की बेला आ गयी। घोटुल की मोटियारियों ने चुहुल करते हुए अनगिनत कंघियाँ सोबती के जूड़े में खोंस दीं। सभी साथी सोबती और कोसा को गाँव के गेवड़े तक ले आये। यह गाँव की सीमा थी। नव दम्पत्ति से गेवड़े की पूजा करवायी जाने लगी। आँटे की लकीर खींच कर चौंक बनाया गया जिस पर लोहे के छल्ले रख दिये गये। सोबती और कोसा को एक दूसरे की कमर में हाँथ ड़ाल कर बिना पीछे देखे छल्ले को पार करने के लिये कहा गया। अब लगभग सारी रस्मे हो गयी थीं। बिदाई के बाद गम से भरे घोटुल में कोई और कार्यक्रम नहीं होता।……।

सोबती नयी जिन्दगी की ओर अपना अगला कदम बढ़ा पाती इससे पहले ही गाँव की यह सीमा घोडों के टापों की शोर से गूंज उठी। दसियों अरब सैनिक वहाँ आ पहुँचे। सनसनी फैल गयी। सैनिक रह रह कर कोड़े को जोर से झड़कता जिसकी आवाज़ हवा के साथ मिल कर सन्नाटे को चीर जाती।

एक सैनिक ने आगे बढ़ कर अपने घोड़े पर से ही सोबती का हाँथ पकड़ लिया। सोबती की कसमसाहट और घबराहट से व्यथित कोसा आक्रोशित हो गया। उसने आगे बढ़ कर सोबती का हाँथ छुडाने की कोशिश की कि….सटाक। कोड़े का एक वार उसकी पीठ पर पड़ा और चमडी उधेडता हुआ ही हटा। कोसा ने फिर भी हिम्मत नहीं हारी। सोबती का हाँथ पकड़ कर उसने फिर अपनी ओर खींचा। कोड़े के अगले वार से वह बिलबिला उठा, सोबती का हाँथ उससे छूट गया था।

मराठाओं के इन मुसलमान-अरब सैनिकों ने यह पहली बार नहीं किया था। दंतेवाड़ा और उसके आस पास उनका आतंक मचा हुआ था। आदिम औरतें उनकी रोज की आवश्यकताओं में सम्मिलित हो गयी थीं। राह चलते, झोपडों में घुस कर या कि हाट बाजार से युवतियों को उठा लिया जाता। इन युवतियों से बलात्कार ही नहीं होता बल्कि कई तो बंधुआ बना ली जाती। फिर आरंभ होता उनका नारकीय जीवन। दिन भर इन सैनिकों के काम करना और रात भर उनकी हवस बुझाना…..।

सोबती ही नहीं उसके साथ दो और युवतियाँ घुड़सवार सैनिकों ने उठा ली और अपने शिविर में ले आये। एक ही रात में सोबती के जीवन में अंधकार बस गया। कितनी लम्बी थी यह रात जिसका आरंभ तो उमंगों से हुआ। उसके सपनों को उतनी ही बेदरदी से उसी रात कई अरब सैनिकों ने एक एक कर कुचल दिया। अपनी मनमानी करने के बाद सैनिकों ने सोबती को जिस कमरे में धकेल कर बाहर से बंद कर दिया वहाँ घुप्प अंधकार था; यद्यपि बाहर आसमान रक्तिम हो गया था मानों सोबती की हालत पर बहुत रो चुका हो।…आह!! सोबती को कितनी तकलीफ हुई थी यहाँ लक्मी को देख कर, वह बता नहीं सकती। दोनों सहेलियाँ देर तक एक दूसरे से लगे लग कर रोती रहीं।

एक छोटा सा कमरा जिसमें भेड़-बकरियों की तरह ठूंस कर आदिम युवतियाँ रखी गयी थीं। सैनिकों के लिये भोजन बनाना, परोसना और शिविर की साफ सफाई जैसे काम उनसे लिये जा रहे थे। सैनिकों के लिये रखे गये अनाज के भंडारण और उसकी सफाई जैसे काम इन बेगार के लिये लायी गयी युवतियों के जिम्मे था। किसी मराठा या अंग्रेज अधिकारी के दौरे पर भी यही युवतियाँ उनके आगे परोस दी जातीं।

ऐसा नहीं था कि बस्तर का शासन इन घटनाओं से अनभिज्ञ था। राजा भूपालदेव को हाँथ मलने के अलावा कोई विकल्प नहीं सूझ रहा था। दीवान लाल दलगंजनसिंह इन परिस्थितियों में मूक दर्शक नहीं रहना चाहते थे। अनेकों बार भरे दरबार में ही उन्होंने भूपालदेव की कटु आलोचना कर दी। उनका मानना था कि मराठों के पिट्ठू बन कर नहीं रहा जाना चाहिये। जनता सुलग रही है और यह परिस्थिति बस्तर राज्य की स्वतंत्रता के लिये उचित है। अगर राजा ठोस कदम उठायेंगे तो वे मजबूत होंगे।

लाल दलगंजन सिंह की शिकायत रायपुर के भोंसला अधिकारियों तक पहुँचायी गयी। पूर्व-दीवान जगबंधु और पूर्व सभासद जगन्नाथ बहीदार अब भी राजा भूपालदेव के दायें और बायें हाथ थे। चापलूसी हर युग में कारगर अस्त्र रही है। राजा और दीवान चूंकि प्रशासन की दो धाराओं की तरह कार्य कर रहे थे अत: रायपुर के मराठा अधिकारी ने शिकायत को गंभीरता से लिया। दीवान को रायपुर तलब किया गया और उनकी गतिविधियों पर लम्बी पूछताछ का सिलसिला लगभग छ: महीनों तक चला। दलगंजनसिंह पर कोई अभियोग सिद्ध न हो सका। वे पुन: जगदलपुर लौट आये। अब उनके मन में भूपाल देव और उनके खासमखासों को ले कर कटुता बढ़ गयी थी।

राजनीतिक अस्थिरता में पीसी जा रही जनता का कोई हमदर्द नहीं था। अब हथियार उठा लेने की बारी रियाया की थी। अपनी परम्पराओं पर निरंतर हमलों से और सबसे बढ़ कर दंतेश्वरी देवी के अपमान से वे इतने आहत थे कि अब उनके लिये स्वाभिमान ही जीने मरने का प्रश्न बन गया। अरब-मुसलमान सैनिकों ने घोटुलों को अपनी अय्याशी का अड्ड़ा बना लिया। यह सब उन्हें दिये गये निर्देशों के अनुरूप किया जा रहा था चूंकि घोटुल ग्रामीण एकता के वे स्तंभ है जो आदिमों के शक्ति संचायक भी थे। एक साथ उनका एकत्रित होना और कथा-कहानियों के साथ आग की रोशनी में राजनीति पर बात करना, जीवन चर्या थी। ऐसे माहौल में जब उनका असंतोष जब फट पड़ता तो विद्रोह की रूपरेखा इन्हीं घोटुलों में तैय्यार होती थी। हिड़मा माझी ने घोटुल में एलान किया कि अब लड़ना है और मरना है। घुटनों के बीच सिर घुसाये बैठा कोसा खड़ा हुआ। उत्तेजना में उसके हाँथ पैर काँप रहे थे।

“मैं सबको मार दूंगा” वह सलफी के नशे में था लेकिन उसके आवेश का कारण नशा नहीं था।

कोसा सोबती के गम में टूट चुका था। विद्रोह की रूपरेखा में उसके जोश ने जैसे आग में घी डाल दिया। अनेको माड़िया युवक-युवतियों की बंधी हुई मुट्ठियों वाले हाँथ उपर उठ गये। इस भीड़ में अनेको कोसा थे और अनेकों वो सोबतियाँ भी, जिनके तन को ‘मुसलमान-अरब सैनिकों’ ने अपमानित किया था। दंतेवाड़ा और उसके आस-पास के घोटुल वीरान कर दिये गये। जंगल के भीतर गोपनीय बैठकों के अनेकों दौर हुए जिसमें विद्रोह की पूरी योजना बनायी गयी।

हिड़मा माझी के नेतृत्व में माड़ियाओं की एक सशस्त्र टुकडी तैयार हो रही थी। कोसा इस तैयारी में अगुवा था, उसका जोश देखते ही बनता था। ये दंड़ामी माड़िया जिनका निवास मैदानी वन हैं – दंतेवाड़ा, कोंटा, बीजापुर और आंशिक रूप से जगदलपुर तक फैले हुए हैं। काले रंग, साधारण कद काठी के पुष्ट देह और अच्छी शारीरिक क्षमता रखने वाली यह प्रजाति अपनी वीरता में भी कुछ कम नहीं।

इधर दंतेवाड़ा में नर बलि की जाँच के लिये ओड़िशा क्षेत्र मे तैनात अंग्रेज अधिकारी कैप्टन जे मैकविकार के दौरे पर आने की चर्चा जोरों पर थी। दौरे से पूर्व कुछ अंग्रेज अधिकारी दंतेवाड़ा वहाँ की परिस्थिति का जायजा लेने पहुँचे। जिस मंदिर में ‘मुसलमान-अरब’ सैनिकों की रात दिन की निगरानी हो, वहाँ ‘मेरिया’ या नरबलि का होना असंभव था। यह मामला जिन्दा रख कर अंग्रेज राजा की नाक में दम किये रहना चाहते थे। बस्तर के राजा को अपनी गद्दी जाती हुई प्रतीत होने का अहसास इस रोज रोज की जाँच से बना हुआ था।

आज सोबती अंग्रेज अधिकारी की सेवा में पेश की गयी। कई महीनों के नारकीय जीवन ने उसके भीतर के नारी और व्यक्ति होने की भावना को वस्तु होने अहसास में बदल दिया था। अब तक वह प्यालों में शराब परोसने और फिर मराठा या अंग्रेज अधिकारियों के आरामदेय बिस्तर पर बिछ जाने के सलीके से वाकिफ हो गयी थी। उसे अपने शरीर पर होने वाले अमानवीय और यदा कदा पैशाचिक बरताव से भी अब शिकायत नहीं रही। उसका शरीर एक यंत्र मात्र था जिसके भीतर का मन मर गया था।

डाक बंगले का वह कमरा शमां की हल्की सी आभा से रोशन था। अंग्रेज अधिकारियों को जहाँ भी ठहराया जाता, व्यवस्था उनके ही चोंचलों के अनुरूप की जाती थी। बस्तर इस तरह की मेहमाननवाज़ी का आदी होने लगा था। अंग्रेज अधिकारी रसेल बहुत पी चुका; अब नशे को रंगीन करने की बारी थी। सोबती उसके इशारे पर बगल में आ कर बैठ गयी। रसेल को मांस का खिलौना मिल गया।

अपना काम पूरा होने के बाद हिकारत से और लात से रसेल ने सोबती को बिस्तर के नीचे धकेल दिया। रसेल जानवर था। सोबती ने अपने अंगों की पीड़ा को बर्दाश्त कर खड़ा होना चाहा कि तभी ऐसा लगा जैसे डाक बंगले के बाहर कुछ गिरने की आवाज़ आयी है। रसेल नशे के बाद भी सतर्क था।

“हू इज देयर” वह चीखा।

रसेल अपने नाईट गाउन का फीता बाँधता हुआ उस मेज की ओर भागा जहाँ दराज में उसका रिवाल्वर रखा हुआ था। बढ़े हुए शोर से महसूस होने लगा कि डाक बंगले के बाहर हजारो आदिमों का समूह इकठ्ठा हो गया है। पर्दा हटा कर रसेल ने बाहर देखा, उसका नशा काफुर हो गया। तीर-धनुष, तलवारे, फरसे, टंगिये और भाले थामे माड़ियों ने डाक बंगले को चारों ओर से घेर लिया था। रसेल ने देखा बाहर पहरा दे रहे दो अरब सैनिक लहूलुहान ज़मीन पर पड़े थे, उनके शरीर में दसियों वाण घुसे हुए थे। वह सिहर गया। एक रिवाल्वर नाकाफी था और गोली चलाना हालात को और बिगाड़ सकता था। सूचना बाहर भेजने का कोई जरिया भी नहीं था। वह जड़वत हो गया। अब उसके दरवाज़े को जोर जोर से पीटा जाने लगा। रसेल ने सोबती को इशारा किया कि वह दरवाज़ा खोले और वह स्वयं रिवाल्वर थाम कर कोने में खड़ा हो गया। सोबती ने दरवाज़ा खोला और स्तब्ध द्वार पर ही खड़ी रह गयी। कंधे पर धनुष, एक हाँथ में मुट्ठी भर वाण और दूसरे हाँथ में टंगिया थामे उसके सामने ‘कोसा’ खड़ा था।

जीवन कहाँ ले आया? कोसा जिसके साथ सोबती ने जीवन बिताने के सपने देखे थे वह आज जीवन हथेली पर लिये अपने जीवन को बरबाद किये जाने का बदला लेने पर उतारू था।….। कोसा ने बहुत दर्द भरी निगाह से सोबती की ओर देखा फिर बिना एक शब्द कहे साथियों के साथ कमरे के भीतर आ गया।

रसेल का चेहरा पीला पड़ गया। वह अपनी ओर बढ़ते कोसा को रिवाल्वर दिखा कर चेतावनी देने लगा। सोबती को इस हाल में देखने के बाद अब कोसा पर केवल खून सवार था। वह झपटता हुआ रसेल की ओर लपका और अगले ही पल टंगिये से वार उसकी गरदन पर कर दिया। रसेल की रिवाल्वर से भी इसी पल गोली चल गयी थी।….। कोसा के सिर के बीचों बीच गोली धंस गयी; वह सीधे सिर के बल जमीन पर गिड़ पड़ा।…। सोबती चीखती हुई उसकी ओर भागी।…..। गोलियों के चलने की आवाज़ें निकट आने लगीं। विद्रोही माड़िया सतर्क हो गये। अरब सैनिक डाल बंगले की ओर बढ़े आ रहे थे।…..। सैनिक जब डाक बंगले के भीतर प्रविष्ठ हुए, भीतर दो लाशें और एक ज़िन्दा लाश थी। विद्रोहियों का गुस्सा इस तरह फूटा था कि उन्होंने रसेल के शव के कई टुकड़े कर दिये।

इसी तरह विद्रोह फैलने लगा। आंग्ल-मराठा सरकार ऐसी अशांति हर्गिज नहीं चाहती थीं कि उनकी ही जान और प्रतिष्ठा पर आँच आ जाये। उन्हें तो केवल राज्य को अराजक बनाये रखना था जिसके बल पर वे बस्तर की राजनीतिक ताकत को तोड़ दें। अंग्रेज अधिकारी कैप्टन जे मैकविकार इस अराजक माहौल में भी दंतेवाड़ा पहुँचे और नर बलि का सच जानने की जांच में जुट गये। उनकी सुरक्षा के लिये राजा भूपाल देव ने जगदलपुर से सशस्त्र घुड़सवारों की एक टुकडी भेजी, इसके अलावा अंग्रेज सिपाही भी सुरक्षा में तैनात किये गये थे।

कैप्टन मैकविकार जांच में जुट गये। शंकिनी और डंकिनी नदी के तट पर स्थित माँ दंतेश्वरी के मंदिर का अधिकतम हिस्सा काष्ठ निर्मित था किंतु उसकी भव्यता में कोई कमीं नहीं। किले की दीवार से बाहरी सुरक्षा मंदिर को प्रदान की गयी थी। अहाते पर स्थित गरुड़ स्तंभ के सामने से ही चांदी का छत्र और स्वर्ण मुकुट धारी देवी दंतेश्वरी के दर्शन हो जाते हैं। श्याम सुन्दर जिया मंदिर के प्रधान पुजारी थे। मैकविकार को मंदिर में भीतर प्रवेश करने से पहले ही उन्होंने रोक दिया। इशारों से मैकविकार को समझ में आया कि भीतर वे पतलून पहन कर प्रवेश नहीं कर सकते। उन्हें एक धोती उपलब्ध करायी गयी। उन्होंने एक माड़िया की सहायता से धोती पहनी और आदिम मान्यताओं को सम्मान दर्शाते हुए सिर झुका कर मंदिर के भीतर प्रवेश किया।

मैकविकार को यह जानकारी दी गयी थी कि ग्यारहवी शताब्दी में जब नागवंशी राजाओं ने गंगवंशी राजाओं पर अधिकार कर बारसूर को अपनी राजधानी बनाया; उन्हें पास के ही गाँव तारलापाल में स्थित देवी गुड़ी में अधिष्ठापित देवी की प्रसिद्धि ने आकर्षित किया। नागवंशी राजा जगदेश भूषण धारावर्ष स्वयं देवी के दर्शन करने के लिये तारलापाल उपस्थित हुए तथा बाद में इसी स्थल पर उन्होंने अपनी कुल देवी मणिकेश्वरी की प्रतिमा को स्थापित कर मंदिर बनवाया और अपनी राजधानी को भी बारसूर से तारलापाल ले आये। चौदहवी शताब्दी में काकतीय राजा अन्नमदेव ने जब नाग राजाओं को पराजित किया उन्होंने भी इस मंदिर में ही अपनी कुल देवी माँ दंतेश्वरी की मूर्ति स्थापित कर दी। कालांतर में तारलापाल का ही नाम बदल कर दंतेवाड़ा हो गया।

 

मैकविकार यह जान कर आश्चर्य से भर उठे कि मां दंतेश्वरी की महिमा अत्यंत प्राचीन धार्मिक कथा “शिव और सती” से जोड़ कर भी देखी जाती है। अपने पिता के द्वारा पति का अपमान किये जाने पर सती ने पिता के यज्ञ कुण्ड में कूद कर ही अपने प्राण दे दिये थे। कुपित भगवान शिव अपनी पत्नी सती का शव ले कर तांडव करने लगे। धरती पर देवी सती के अंग जहाँ जहाँ पर गिरे वहाँ देवी का शक्तिपीठ स्थापित है। यह प्रबल मान्यता है कि इसी स्थल पर देवी सती का दंत-खंड़ गिरा था।

 

मैकविकार को यह समझने में देर न लगी कि क्यों दंतेश्वरी इस आदिम राज्य की जीवन रेखा है और वह कौन सी शक्ति है जिसने अनेकों आदिम जातियों को उनकी विविधताओं के बाद भी एक किया हुआ है। पुजारी श्याम सुन्दर जिया ने किसी भी तरह की नर बलि से इंकार कर दिया। मैकविकार दूर-सुदूर भटकते रहे और अनेक आदिमों से पूछताछ करते रहे। नरबली का कोई साक्ष्य उन्हें नहीं मिल सका। एक भी गवाह मिलने का अर्थ होता राजा भूपालदेव के खिलाफ कड़ी कार्यवाई। उन्हें भी यह बात तर्क के परे लग रही थी कि जिस मंदिर में एक पूरी सेना ही नरबली रोकने और उसकी निगरानी के लिये लगायी गयी हो तब मेरिया प्रथा कैसे संभव है? पहले नर-बलि प्रचलन में रही होगी, लेकिन अब……।

 

मैकविकार की जांच पूरी हो गयी। वे राजा और दीवान से मुलाकात करने के लिये जगदलपुर निकलने ही वाले थे, तभी उनकी नज़र सोबती पर पड़ी। वह खामोश और बुझी हुई कमरे की सफाई करने में जुटी हुई थी। सोबती की आँखों में ऐसा कुछ था कि अंग्रेज अधिकारी सोच में पड़ गया। उसे लगा कि नरबलि के संबंध में उसकी जाँच में यह युवती सहायता कर सकती है। मैकविकार सोबती के हालात से अनुमान लगा रहे थे कि संभवत: उसके पति की बलि दे दी गयी है। दुभाषिये को बुलवाने के लिये आदमी दौड़ा दिया गया। मैकविकार ने सोबती को सामने की कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। सोबती जमीन पर बैठ गयी।

 

“दंतेश्वरी मंदिर में नर-बलि होती है? मैकविकार ने दुभाषिये के आते ही सोबती से पूछा।

सोबती ने कुछ कहा और फिर फूट फूट कर रोने लगी। उसके आँसू जो महीनों से भीतर ही थे एकाएक नदी बन कर बाहर आ गये थे। मैक्सविकार सोबती के इस व्यवहार पर आश्चर्य हुआ। उसे लगा कि जांच का प्रतिफल निकल आया है। जिज्ञासा से भर कर उसने दुभाषिये से पूछा – “व्हाट डिड़ शी से?”

“साहब यह कह रही है कि उसकी ही बलि चढ़ा दो, वह जीना नहीं चाहती।” एक पल की चुप्पी के बाद दुभाषिये ने कहा।

2 COMMENTS

  1. भाई राजीव जी, आपका पढ़ना यानी छत्तीसगढ़ की सौंधी माटी से रूबरू होना है. उसकी थाती, सांस्कृतिक विरासत और वनवासी जीवन को उजागर करने के आपके भागीरथ प्रयास को नमन.

  2. राजीव जी ! बहुत परिश्रम किया है आपने …यह इतनी बानगी से ही प्रमाणित हो गया है. निश्चित ही यह उपन्यास ही नहीं है बल्कि बस्तर का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है ……

    बस्तर के सहज सरल जीवन को देशी-विदेशी सभी नराधमों ने जी भर कर लूटा है ….यह लूट प्रतियोगिता अभी तक थमी नहीं है. उपन्यास में बस्तर की मौन वेदना का एब्सेस भलभला कर फूट गया है …..स्त्री उत्पीडन की गहन वेदना, स्वतंत्रता के बलात अपहरण का आक्रोश, नपुंसक राजा की विवशता, आयातित अरब मुसलमानों की बर्बरता ……मुझे लगता है कि कलम के सिपाही का कर्त्तव्य पूरा करने में आप लेश भी पीछे नहीं रहे हैं. बस्तर आज भी सुलग रहा है ….यह उपन्यास बस्तर के अबूझ रहस्यों को उजागर करने में सफल रहा है …वे रहस्य जिन्हें जान बूझ कर दबाया जाता रहा है ….आखिर इन रहस्यों के मूल में शोषण का घिनौना और अमानवीय चेहरा भी जो छिपा है. एक बहुत बड़ी कमी को आपने पूरा किया है …इसके लिए बस्तर आपका ऋणी रहेगा. हम कलम और कलम के सिपाही का सादर अभिवादन करते हैं.

    हम इस दस्तावेज़ के बाज़ार में आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं.

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