पिछले दिनों चीन ने वास्तविक नियंत्रण रेखा पर स्थिति स्पष्ट करने के भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रस्ताव को खारिज कर एक बार फिर अपनी कुटिल मंशा जाहिर की। उसने तर्क गढ़ा कि वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर परस्पर स्थितियों को स्पष्ट करने के पूर्ववर्ती प्रयासों के दौरान दिक्कतें आ चुकी हैं लिहाजा वह सीमा पर शांति बनाए रखने के लिए भारत के साथ आचार संहिता के समझौते को ही तरजीह देगा। याद होगा कुछ वर्ष पहले चीन ने एक आचार संहिता (कोड ऑफ कंडक्ट) भारत के सामने रखा था जिसमें उसने शर्त थोपी थी कि दोनों पक्ष वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के निकट न तो ढांचागत निर्माण करेंगे और न ही सैन्य गतिविधियों को बढ़ावा देंगे। किंतु भारत ने इस आचार संहिता को ठुकरा दिया। यह इसलिए भी आवश्यक था कि वास्तविक नियंत्रण रेखा से ठीक पीछे का इलाका पहाड़ी है और यहां अपने सैनिकों की तैनाती तथा इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करना भारत के लिए जरुरी है। जबकि वास्तविक नियंत्रण रेखा से सटा चीन का इलाका भारत की तरह दुर्गम नहीं बल्कि समतल और पठारी है। लिहाजा चीन कम समय में ही यहां अपने सैनिकों की तैनाती कर सकता है। यहीं वजह है कि वह बार-बार आचार संहिता के पालन की बात कर रहा है। दरअसल उसकी मंशा सीमा विवाद को सुलझाने की नहीं है। अब समय आ गया है कि भारत चीन से अपने द्विपक्षीय रिश्ते की पुर्नसमीक्षा करे और समझने की कोशिश करे कि उसके मन में क्या चल रहा है। यह भी विचार करना आवश्यक है कि चीन को अर्दब में रखने के लिए भारत को किस नीति की जरुरत है। समझना होगा कि भारत के लिए चीन और पाकिस्तान के बीच बढ़ती प्रगाढ़ता शुभ नहीं है। चीन न केवल कश्मीर मसले पर पाकिस्तान के साथ खड़ा है बल्कि अंतर्राष्ट्रीय मोर्चे पर यानी सुरक्षा परिषद में भी भारत की स्थायी सदस्यता का विरोध करता है। ऐसे में चीन से आशा रखना कि वह भारत के प्रति सकारात्मक होकर सीमा विवाद सुलझाएगा संभव नहीं है। उचित होगा कि भारत भी चीन को उसी की भाषा में जवाब दे। भारत को चाहिए कि वह तिब्बत की स्वतंत्रता और वहां हो रहे मानवाधिकारों के हनन का मुद्दा उठाकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चीन की घेराबंदी करे। अगर भारत तिब्बत मसले को अन्तर्राष्ट्रीय कुटनीति की तीव्र आंच पर रखता है तो निःसंदेह चीन को अपनी भारत विरोधी नीति पर पुनः विचार करना होगा। समझना होगा कि तिब्बत की स्वतंत्रता का मसला शुरू से ही चीन के लिए परेशानी का शबब रहा है। लेकिन अचरज यह कि भारत तिब्बत रुपी हथियार को कभी भी चीन के विरुद्ध आजमाने की कोशिश नहीं करता है। हां, यह सही है कि चीन शुरू से भारत के हुक्मरानों से कुबुलवाने में सफल रहा है कि ताईवान और तिब्बत उसका हिस्सा है और उस पर भारत को मुखर नहीं होना चाहिए। लेकिन भारत को समझना होगा कि चीन के बढ़ते दुस्साहस पर लगाम कसने के लिए अब उसे पूर्व की स्वीकारोक्ति से बंधे रहना उचित नहीं होगा। जरुरत ‘जैसे को तैसा’ की नीति पर आगे बढ़ने की है। किसी से छिपा नहीं है कि दशकों से चीन अरुणाचल प्रदेश पर अपनी गिद्ध दृष्टि जमाए हुए है। उसकी मंशा यहां प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से अपना शासन स्थापित करना है। इसी रणनीति के तहत वह यहां के लोगों को वीजा देने से इंकार करता है। यही नहीं भारत द्वारा तिब्बत को चीन का हिस्सा मानने के बावजूद भी वह अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा छोड़ने को तैयार नहीं है। वह भारत से सीमा विवाद निपटाने के बजाए उलझाए रखना चाहता है। सिर्फ इसलिए कि भारत पर उसका मनोवैज्ञानिक दबाव बना रहे। जबकि सीमा विवाद सुलझाने की बात १९७६ से ही चल रही है, लेकिन वह दस्तावेजों के आदान प्रदान में अपने दावे के नक्षे भारत को उपलब्ध नहीं कराता। इसके बावजूद भी भारत चीन की तमाम शर्तों को मानते हुए बातचीत के लिए तैयार दिखता है। अरुणाचल प्रदेश के ९०,००० वर्ग किमी भू-भाग पर वह आज भी अपना दावा जताता है। अरुणाचल प्रदेश की तरह जम्मू-कश्मीर में भी उसकी दुस्साहसपूर्ण गतिविधियां बढ़ती जा रही है। पाकिस्तान भारत को घेरने के लिए जम्मू-कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा चीन को समर्पित कर चुका है। चीन यहां लगातार अपनी सैन्य गतिविधियां बढ़ाता जा रहा है। पाकिस्तान और चीन का निकट आना भारत ही नहीं बल्कि संपूर्ण दक्षिण एशिया के लिए खतरनाक है। विगत कुछ वर्षों में इस्लामाबाद से चीन के उरुमची तक आवागमन में तेजी आयी है। अगर भारत सतर्क नहीं होता है तो बीजिंग-इस्लामाबाद का नापाक गठजोड़ भारत की संप्रभुता के लिए चुनौती साबित होगा। किसी से छिपा नहीं है कि गुलाम कश्मीर में सामरिक रुप से महत्वपूर्ण गिलगित-बल्तिस्तान क्षेत्र पर चीन का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। यहां तकरीबन १०००० से अधिक चीनी सैनिकों की मौजूदगी बराबर बनी हुई है। चीन इन क्षेत्रों में निर्बाध रुप से हाईस्पीड सड़कें और रेल संपर्कों का जाल बिछा रहा है। सिर्फ इसलिए की भारत तक उसकी पहुंच आसान हो सके। चीन अरबों रुपये खर्च करके कराकोरम पहाड़ को दो फाड़ करते हुए गवादर के बंदरगाह तक रेल डालने के प्रयास में भी जुटा है। अगर भारत सोचता है कि उसकी दोस्ताना नीति से चीन का खतरनाक नजरिया बदल जाएगा तो यह भूल है। समझना होगा कि चीन का पारंपरिक इतिहास दोस्ती की आड़ में खंजर भोंकने वाला रहा है। लिहाजा भारत को भ्रम में रहने के बजाए परंपरागत कुटनीति में बदलाव करना चाहिए। भारतीय विदेश नीति पंडित जवाहर लाल नेहरु के समय से ही भटकाव की शिकार रही है। चीन के जवाब में भारत के पास सौदेबाजी की नेहरु काल की बची हुई सीमित ताकत यानी तिब्बत का मसला भी परवर्ती शासकों ने मुफ्त में गवां दी। इस उम्मीद में की चीन भारत के प्रति कम आक्रामक होगा। इंदिरा गांधी से लेकर डा० मनमोहन सिंह तक सभी सरकारें तिब्बत को स्वषशासी क्षेत्र मानती रही हैं। नतीजा सामने है। चीन की आक्रामता में कमी नहीं आयी है और वह बेफिक्र होकर पाकिस्तान के जरिए भारत की घेराबंदी में जुटा है। चीन की कुटनीतिक सफलता ही कही जाएगी कि भारतीय हुक्मरान आज तक चीन से कुबुलवा नहीं पाए कि अरुणाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है। इसी कमजोरी का लाभ उठाकर वह भारत के नाक में दम किए हुए है। चीन भारत के पड़ोसी देशों मसलन नेपाल, बंगलादेश और म्यांमार में भी अपना हस्तक्षेप बढ़ा रहा है। दुनिया को मालूम है कि वह श्रीलंका में बंदरगाह बना रहा है। अफगानिस्तान में अरबों डालर निवेष कर तांबे की खदानें चला रहा है। म्यांमार की गैस संसाधनों पर भी कब्जा जमाने की फिराक में है। खबर तो यहां तक है कि वह कोको द्वीप में नौ सैनिक बंदरगाह बना रहा है। विशेषज्ञों की मानें तो चीन रक्षा क्षेत्र में भारत के मुकाबले कई गुना अधिक खर्च कर रहा है। जबकि भारत का रक्षा बजट चीन की तुलना में आधा है। जरुरत इस बात की है कि भारत चीन के खिलाफ तिब्बत का मसला उठाकर चीन विरोधी देशों को अपने पाले में लाए। जापान, मलेशिया और सिंगापुर चीन के बढ़ते साम्राज्यवादी नीति सेखुश नहीं है। समय आ गया है कि भारत तिब्बत के मसले पर अपनी चुप्पी तोड़े ताकि चीन की धौंसबाजी पर लगाम कसा जा सके।