ईश्वर की बनाई भौतिक जड़ सत्ता ब्रह्माण्ड में सर्वत्र व्यवस्था व शान्ति है

0
262

-मनमोहन कुमार आर्य

               हम इस संसार में रहते हैं। हमारी पृथिवी सौर मण्डल के अन्य ग्रहों व उपग्रहों में से एक है। इसी प्रकार के असंख्य एवं अनन्त सौर मण्डल इस सृष्टि में परमात्मा ने बनाये और धारण किये हुए हैं। यह सारे ग्रह व उपग्रह आकाश में स्थित हैं। इनमें कुछ अपनी धुरी पर एक स्थान पर घूमते हैं और कुछ अपनी धूरी सहित अपने अपने सूर्य या प्रमुख ग्रह की परिक्रमा कर रहे हैं। सब ग्रहों एवं उपग्रहों की एक दूसरे से दूरियां एवं उनके परिमाण भिन्न हैं। इतने विशाल ब्रह्माण्ड का संचालन इस संसार में व्याप्त निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ एवं सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा कर रहा है। परमात्मा अनादि, नित्य, अविनाशी, अमर एवं सृष्टिकर्ता है। परमात्मा की ही तरह संसार में चेतन जीव भी हैं जो आकार एवं प्रकार में सूक्ष्म, एकदेशी, ससीम एवं अल्पज्ञ हैं। यह जीव अनादि ण्चं नित्य हैं। यह उत्पत्ति धर्म वाले नहीं हैं। यह सदा से हैं और सदैव रहेंगे। इन जीवों की संख्या अगणनीय वा अनन्त है। परमात्मा इन सब जीवों को जानता व सबके सुख व दुःख का ध्यान रखता है। वह सब जीवों के भूत एवं वर्तमान कर्मों का फल देता है। सिद्धान्त है कि जीव जो जो शुभ व अशुभ कर्म करता है उसे उसके फल अवश्य ही भोगने पड़ते हैं। यह ईश्वर का विधान है। इसमें कोई बाधा नहीं डाल सकता है। आज तक जितने धर्म गुरु, धर्म-मत संस्थापक तथा आचार्य आदि भिन्न भिन्न मतों व धर्मों के हुए हैं, वह सब भी जीवात्मा होने के कारण अन्य सामान्य एवं साधारण जीवों की तरह से अपने अपने कर्मों का फल भोगते हैं। अब तक जितने भी ऋषि व मत-मतान्तरों के आदि काल के बाद आचार्य व संस्थापक आदि हुए हैं, वह सब भी मृत्यु के तुरन्त बाद अपने कर्मों के अनुसार अनेक प्राणी योनियों में पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं। यह सिद्धान्त सभी मत-मतान्तरों पर लागू होता है। कोई मत अच्छा व बुरा, विद्या व अविद्या से युक्त कैसा भी क्यों न हो, किसी मत के किसी भी व्यक्ति को ईश्वर के नियमों में छूट नहीं मिलती। श्री राम हों या श्री कृष्ण, कोई भी ऋषि हो या महर्षि, किसी भी मत का संस्थापक हो या आचार्य, सबके ऊपर ईश्वर के नियम समान रूप से लागू होते हैं। जिन भी व्यक्तियों ने मत-मतान्तर व पन्थ आदि चलायें हैं वह सब भी आज कहीं न कहीं किसी न किसी योनि में अपने कर्मानुसार सुख व दुख का भोग कर रहे हैं। ईश्वर उन्हें अनादि काल से जन्म व मृत्यु प्राप्त कराता आ रहा है और भविष्य में भी ऐसा होगा। किसी को इस नियम, बन्धन व मोक्ष से अवकाश व छूट प्राप्त नहीं होगी।

               ब्रह्माण्ड में सभी ग्रह व उपग्रह अथवा लोक लोकान्तर आदि गुणों की दृष्टि से जड़ पदार्थ हैं। वह सब ईश्वर के पूर्ण नियंत्रण में हैं। जड़ पदार्थों को चेतन मनुष्यों की भाति अपनी इच्छा से काम करने की स्वतन्त्रता नहीं होती। वह वैज्ञानिक नियमों व किसी व किन्हीं चेतन सत्ताओं के अधीन काम करते हैं। परमात्मा ने जो सृष्टि के नियम बनाये हैं वह सभी जड़ चेतन पदार्थों पर लागू होते हैं। चेतन जीवों में मनुष्यों को परमात्मा ने कर्म करने में स्वतन्त्रता दी है और उनके शुभ व अशुभ कर्मों की व्यवस्था व न्याय के रूप में दण्ड व पुरस्कार को अपने अधीन रखा है। ईश्वर की बनाई सृष्टि में केवल मनुष्य के पास ही सोच विचार करने सहित ज्ञान प्राप्ति व विवेक को प्राप्त होने की सामथ्र्य है। जो सामथ्र्य मनुष्य को प्राप्त है वह सामथ्र्य पशुओं, पक्षियों व अन्य प्राणियों में नहीं है। अतः मनुष्य के पास बुद्धि होने के कारण यदि वह कभी कोई गलत काम करता है वा करेगा तो ईश्वर उसको दण्ड देता है। उस ईश्वर की यह व्यवस्था हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, जैन व सिख सभी सम्प्रदायों पर समान रूप से लागू है। शुभ कर्मों का फल सुख तथा अशुभ कर्मों का फल दुःख मिलता है। ईश्वर के अतिरिक्त सभी मनुष्य जीव कोटि के हैं। ऋषि सभी धर्म मतों के गुरु, आचार्य संस्थापक भी जीव ही थे, उनको भी ईश्वर उनके अच्छे बुरे कर्मों का दण्ड देता है। मनुष्य को प्राप्त स्वतन्त्रता, उसकी ईश्वर व समाज का ज्ञान प्राप्त करने में उदासीनता  और मात्र धनोपार्जन पर जोर देना उससे जाने अनजानें में अनेक प्रकार के अशुभ व पाप कर्मों को कराता है। जीवन में यदि सन्तुलन नहीं होगा तो यह हानिकारक होता है। आजकल आर्य हिन्दुओं में धनोपार्जन में ही अपना पूरा जीवन लगा देने के प्रति वातावरण दृष्टिगोचर होता है। मनुष्य की ज्ञान वृद्धि व आर्य-हिन्दू जाति के जिस प्रकार के संगठन की आवश्यकता है, वह नहीं है। इसी कारण से सन् 1947 में देश का विभाजन हुआ था। उसके बाद भी देश का सांस्कृतिक स्वरूप बदलता व बिगड़ता हुआ दृष्टिगोचर हो रहा है। शायद अभी भी समय है कि हम विचार करें और अपनी समस्त बुराईयों को दूर कर लें। इसके लिये हमें ऋषि दयानन्द के जीवन के अनुकरण सहित उनके ग्रन्थों में की गई प्रेरणाओं को समग्रता से आत्मसात करना होगा।

               ईश्वर के बनाये इस भौतिक संसार वा ब्रह्माण्ड में सभी नियम पूरी तरह से ठीक-ठीक काम कर रहे हैं। मनुष्य को ईश्वर ने कर्म करने में स्वतन्त्र बनाया है। सृष्टि में यह मनुष्य ही अपनी स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करता हुआ दिखाई देता है। भारत में यह दुरुपयोग यूरोप के देशों से कहीं अधिक होता दिखाई देता है। हमें दूसरों की नहीं अपने बन्धुओं की जो ऋषियों, राम तथा कृष्ण को अपना पूर्वज मानते हैं, ईश्वर, वेद और दयानन्द को मानते हैं, उनकी चिन्ता है। समाज में इस प्रकार की चर्चायें सुनने को मिलती है कि आर्य हिन्दु जाति का भविष्य बहुत अधिक चुनौती पूर्ण है और यह जाति अपनी चुनौतियों भावी खतरों के प्रति सर्वथा उपेक्षा का व्यवहार कर रही है। यदि यह जड़ पदार्थों पशुपक्षियों से भी शिक्षा ले तो यह अपनी रक्षा कर सकती है। मधु मक्खी के छत्ते पर यदि कोई व्यक्ति एक पत्थर मार दे तो सभी मक्खियां उस पर झपट पड़ती है। मधुमक्खियों का संघटन एवं एकता से मनुष्य भी शिक्षा ले सकते हैं। यदि कोई हम पर या हमारे भाईयों पर अन्याय व अत्याचार करता है या उसकी योजना बनाता है, तो हमें सावधान रहकर उसका संगठित रूप से प्रतिकार करना चाहिये। ऐसा हम तभी कर सकते हैं जब हम पूर्णरूपेण संगठित होंगे। हम संगठित नहीं है, इसीलिये हमें नष्ट करने की योजनायें देश व इससे बाहर बनती हैं। इस कार्य सहित देश विरोधी कार्य इतने बड़े पैमाने पर हो रहें हैं कि हमारी सुरक्षा सम्बन्धी सरकारी एजेंसियां इसके लिये कम पड़ रही हैं। अतः प्रत्येक व्यक्ति को सावधान रहने सहित धर्म संस्कृति से जुड़े संगठनो से जुड़ना होगा और जो हमसे वोट लेकर हमारे साथ न्याय नहीं करते उनके प्रति भी हमें उचित व्यवहार करना होगा। यदि सावधान रहेंगे तभी बच सकेंगे अन्यथा पाकिस्तान और बंगला देश में हिन्दुओं के साथ जो हो व्यवहार हुआ अब भी हो रहा है उसे देखकर हम अपने भविष्य का अनुमान कर सकते हैं।                ब्रह्माण्ड एवं पूरे जड़ जगत में शान्ति एवं व्यवस्था कायम है। सभी ग्रह व उपक्रम अपने अपने मार्ग पर चल रहे हैं। इनमें परस्पर कहीं कभी आघात प्रत्याघात नहीं होते। यह परमात्मा के नियमों का पालन कर रहे हैं। मनुष्य अनेक जातियों, सम्प्रदायों, मत, पन्थ, घर्म, मजहब आदि में बंटे हुए हैं। इनमें धर्म के नाम पर मतैक्य होना सम्भव नहीं दीखता। परस्पर विरोधी राजनीतिक दलों के सत्ता रूपी स्वार्थ की सिद्धि के गठबन्धन बन सकते हैं परन्तु मानवता के कल्याण के लिये सभी मत-पन्थ-सम्प्रदाय सत्य को स्वीकार और असत्य को अस्वीकार करने के लिये तत्पर व तैयार नहीं है। मनुष्य संसार में अन्य प्राणियों में सबसे बुद्धिमान सत्ता है। परमात्मा ने इसे सत्यासत्य का विवेक करने के लिए बुद्धि दी है। मनुष्यों के कर्तव्यों को ही धर्म कहा जाता है। मत व धर्म में समानता नहीं अन्तर होता है। धर्म उसे कहते हैं जिसे सब स्वीकार करें और मत वह होता है जिसे मनुष्य अपने हानि, लाभ व स्वार्थ सहित अपने अपने विवेक से स्वीकार करते हैं। धर्म के विषय में अभी तक मतैक्य नहीं हो पाया है। अतः हमें भविष्य में हर परिस्थिति का सामना करने के लिये तैयार रहना चाहिये। यदि आपको अपने आसपास कहीं कोई बंगलादेशी या पाकिस्तान के अत्याचारों से पीड़ित व्यक्ति दिखाईं दें तो उनसे जरुर बात करें कि उनके साथ उन देशों में क्या क्या हुआ। इससे आप अपने भविष्य का अनुमान कर सकेंगे। मनुष्य सत्य को ग्रहण करना छोड़ चुका है। जहां मजबूरी होती है वह करता है और जहां उसकी मनमानी चलती है वह मनमानी करता है। समझदारी इसी बात में है कि हम अपने भविष्य की चिन्ता करें जिससे हम भविष्य में सुरक्षित रह सकें। बहुत से बुद्धिजीबी अपने किन्हीं स्वार्थों के कारण ईमानदार प्रधानमंत्री मोदी जी का विरोध करते हुए मिल जायेंगे। हमें प्रकृति व वेदों से शिक्षा लेनी चाहिये। यदि देश के सभी आर्य व हिन्दू आर्यसमाज के नियमों व सिद्धान्तों को पूर्णतया अपनायेंगे तो हमें लगता है कि हम भविष्य में सुरक्षित रह सकते हैं और अपने लोगों से द्वेष रखने वालों को भी नियंत्रित कर सकते हैं। ओ३म् शम्।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here