पुलिस को मानवतावादी बनाने की जरूरत

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प्रमोद भार्गव

उत्तर प्रदेश में सत्ता परिवर्तन के बाद व्यवस्था परिवर्तन के संकेत मिलने लगे हैं। इसी सिलसिले में प्रदेश के कुछ बड़े शहरों में पुलिस आयुक्त प्रणाली लागू करने की तैयारी की जाने लगी है लेकिन क्या पदों में नाम तब्दीली से बदलाव आ जाएगा ? दरअसल पुलिस में आमूलचूल परिवर्तन के लिए बुनियादी पहल की जरूरत है। इस नजरिए से एक तो पुलिस का चेहरा मानवता वादी बनाया जाए दूसरे कानून एवं व्यवस्था की देख भाल की जिम्मदारी एक अलग तंत्र को सौपी जाए और अपराध व अनुसंधान से जुड़े मामलों का अलग से तंत्र विकशित किया जाए तो उम्मीद की जा सकती है कि पुलिस के चरित्र में कोई बदलाव आए। पुलिस के चरित्र में परिवर्तन आईपीएस बनाम आईएएस के द्वंद्व एवं अहंकार टकराव के चलते भी नहीं हो पा रहा है।

पुलिस की कार्यप्रणाली प्रजातांत्रिक मूल्यों और संवैधानियक अधिकारों के प्रति उदार, खरी व जवाबदेह हो इस नजरिये से सर्वोच्च न्यायालय ने करीब छह साल पहले राज्य सरकारों को मौजूदा पुलिस व्यवस्था में फेरबदल के लिए कुछ सुझाव दिए थे, इन पर अमल के लिए कुछ राज्य सरकारों ने आयोग और समितियों का गठन भी किया। लेकिन किसी नतीजे पर पहुंचने से पहले ये कोशिशें आईएएस बनाम आईपीएस के बीच उठे वर्चस्व के सवाल और अह्म के टकराव में उलझकर रह र्गइं। ब्रितानी हुकूमत के दौरान 1861 में वजूद में आए ‘पुलिस एक्ट’ में बदलाव लाकर कोई ऐसा कानून अस्तित्व में आए जो पुलिस को कानून के दायरे में काम करने को तो बाध्य करे ही, पुलिस की भूमिका भी जनसेवक के रूप में चिन्हित हो, क्या ऐसा नैतिकता और ईमानदारी के बिना संभव है ? पुलिस राजनीतिकों के दखल के साथ पहुंच वाले लोगों के अनावश्यक दबाव से भी मुक्त रहते हुए जनता के प्रति संवेदनशील बनी रहे, ऐसे फलित तब सामने आएंगे जब कानून के निर्माता और नियंता ‘अपनी पुलिस बनाने की बजाय अच्छी पुलिस’ बनाने की कवायद करें।

पुलिस को समर्थ व जवाबदेह बनाने के लिए उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह बनाम भारतीय संघ के एक मामले में उच्चतम न्यायालय ने पुलिस व्यवस्था को व्यावहारिक बनाने की दृष्टि से सोराबजी समिति की सिफारिशें लागू करने की हिदायत राज्य सरकारों को दी थी। लेकिन पुलिस की कार्यप्रणाली को जनतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप बनाने की पहल देश की किसी भी राज्य सरकार ने नहीं की। चूंकि ‘पुलिस’ राजनीतिकों के पास एक ऐसा संवैधानिक औजार है जो विपक्षियों को कानूनन फंसाने अथवा उन्हें जलील व उत्पीडि़त करने के आसान तरीके के रूप में पेश आती है। इसीलिए पुलिस तो पुलिस, सीवीसी और सीबीआई को भी विपक्षी दल सत्ताधारी हाथों का खिलौना कहते नहीं अघाते। लेकिन जब इसे बदलने और जनहितकारी बनाए जाने की हिदायत देश की सर्वोच्च न्यायालय ने दी थी तब कांग्रेस और साम्यवादी राज्य सरकारों की बात तो छोडि़ए उन तथाकथित राष्ट्रवादी दलों की सरकारें भी इस ब्रिटिश एक्ट को पलटने की उदारता नहीं दिखाई। जबकि ये दल पानी पी-पीकर फिरंगी हुकूमत को कोसती रहती हैं। इससे जाहिर होता है सभी राजनीतिक दलों की फितरत कमोबेश एक जैसी है। नौकरशाही की तो डेढ़ सौ साल पुराने इसी कानून के बने रहने में ही बल्ले-बल्ले है। सो पूरे देश में यथा राजा, तथा प्रजा की कहावत फलीभूत हो रही है।

इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आजादी के 64 साल बाद भी पुलिस की कानूनी सरंचना, संस्थागत ढांचा और काम करने का तरीका औपनिवेशिक नीतियों का पिछलग्गू है। इसलिए इसमें परिवर्तन की मांग न केवल लंबी है बल्कि लाजिमी भी है। लिहाजा इसी क्रम में कई समितियां और आयेाग वजूद में आए और उन्होंने सिफारिशें भी कीं। परंतु सर्वोच्च न्यायालय के बार-बार निर्देश देने के बावजूद राज्य सरकारें सिफारिशों को लागू करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देने की बजाय इन्हें टालती रही हैं। बल्कि कुछ सरकारें तो सर्वोच्च न्यायालय की इस कार्यवाही को विधायिका और कार्यपालिका में न्यायपालिका के अनावश्यक दखल के रूप में देखती हैं। इसीलिए सोराबजी समिति ने पुलिस विधेयक का जो आदर्श प्रारूप तैयार किया है, वह ठण्डे बस्ते में है।

पुलिस की स्वच्छ छवि के लिए जरूरी है उसे दबाव मुक्त बनाया जाए। क्योंकि पुलिस काम तो सत्ताधारियों के दबाव में करती है, लेकिन जलील पुलिस को होना पड़ता है। झूठे मामलों में न्यायालय की फटकार का सामना भी पुलिस को ही करना होता है। पुलिस के आला-अधिकारियों की निश्चित अवधि के लिए तैनाती भी जरूरी है। क्योंकि सिर पर तबादले की तलवार लटकी हो तो पुलिस भयमुक्त अथवा भयनिरपेक्ष कानूनी कार्रवाई को अंजाम देने में सकुचाती है। कई राजनेताओं के मामलों में तो जांच कर रहे पुलिस अधिकारी का ऐन उस वक्त तबादला कर दिया जाता है, जब जांच निर्णायक दौर में होती है। जब प्रभावित होने वाला नेता यह भांप लेता है कि जांच में वह प्रथम दृश्ट्या आरोपी साबित होने वाला है तो वह अपनी ताकत का बेजा इस्तेमाल कर जांच अधिकारी को बेदखल करा देता है। हालांकि जांच और अभियोजना के लिए पृथक एजेंसी की जरूरत भी सिफारिशों में हैं। ऐसा होता है तो पुलिस लंबी जांच प्रक्रिया से मुक्त रहते हुए, कानून-व्यवस्था को चुस्त बनाए रखने में ज्यादा ध्यान दे पाएगी।

पुलिस को एफआईआर दर्ज करने के लिए बाध्यकारी बनाए जाने की कवायद भी सिफारिशों में शामिल है। क्योंकि पुलिस कमजोर व पहंुचविहीन व्यक्ति के खिलाफ तो तुरंत एफआईआर लिख लेती है, लेकिन ताकतवर के खिलाफ ऐसा तत्काल नहीं करती। इसलिए नाइंसाफी का शिकार बने लोग अदालत के लिए मामलों को संज्ञान में ला रहे हैं। ऐसे मामलों की संख्या पूरे देश में लगातार बढ़ रही है। इस वजह से पहली नजर में जो दायित्व पुलिस का है उसका निर्वहन अदालतों को करना पड़ रहा है। अदालतों पर यह अतिरिक्त बोझ है। अदालतों में ऐसे मामले अपवाद के रूप में ही पेश होने चाहिए। न्यायालय ने तो निर्देशित भी किया है कि पुलिस किसी भी फरियादी को एफआईआर दर्ज करने से मना नहीं कर सकती। दिल्ली उच्च न्यायालय ने तो एफआईआर की प्रति भी अनिवार्य रूप से फरियादी को देने और उसे फौरन वेबसाइट पर डालने की हिदायत दी है।

राष्ट्रीय पुलिस आयोग भी पुलिस की मौजूदा कार्यप्रणाली से संतुष्ट नहीं है। आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक देश में 60 फीसदी ऐसे लोगों को हिरासत में लिया जाता है, जिन पर लगे आरोप सही नहीं होते। कारागारों में बंद 42 फीसदी कैदी इसी श्रेणी के हैं। ऐसे ही कैदियों के रखरखाव और भोजन पानी पर सबसे ज्यादा धनराशि खर्च होती है। ऐसे मामलों में सीबीआई और पुलिस की नाकामी जाहिर होती है और निर्दोषों को बेवजह प्रताड़ना झेलनी पड़ी है। इसलिए राज्य सरकारों को पुलिस व्यवस्था में सुधार की जरूरत को नागरिक हितों की सुरक्षा के तईं देखने की जरूरत है, न कि पुलिस को राजनीतिक हित-साध्य के लिए खिलौना बनाने अथवा पद परिवर्तन के लिए किए जाने वाले बदलाव व्यर्थ ही रहेंगे ?

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  1. पुलिस राजनेताओं और दबंगों और पैसों के लिया कार्य करती है. ये अपराधी पैदा करती है, समस्याओं को पैदा करती है. मानवीय से कोंसों दूर कार्य करती है

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