आरक्षण की सियासी चाल

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jatसंदर्भ : जाट आरक्षण को कैबिनेट में मंजूरी –

प्रमोद भार्गव

कांग्रेस नेतृत्व वाली सप्रंग सरकार ने भ्रष्टाचार विरोधी अध्यादेश लाने की बजाय जाटों को आरक्षण देने की सियासी चाल चल दी। वह भी चुनावी अधिसूचना जारी होने से ठीक पहले। सियासी चाल यह इसलिए है क्योंकि केंद्रीय नौकरियों में जाटों को आरक्षण देने वाला यह प्रावधान सर्वोच्च न्यायालय के सामने विधि सम्मत ठहराना मुश्किल होगा। क्योंकि जाटों को आरक्षण देने का फैसला लेते समय सरकार ने न्यायालय के उन सभी दिशा निर्देशों को भुला दिया जिनमें जाटों के पिछड़े होने के आंकड़े जुटाए बिना आरक्षण देने की मनाही की गर्इ थी। जाहिर है केंद्रीय मंत्री मण्डल के इस फैसले का हश्र भी वैसा ही होने की उम्मीद बढ़ गर्इ है, जैसा कि अल्पसंख्यक को आरक्षण देने के समय हुआ था ? यह घोषणा उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के ठीक पहले मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने की दृष्टि से की गर्इ थी। जाट समूदाय का बाहुल्य देश के 7 हिन्दी भाषी राज्यों में फैला हुआ है। इनमें हरियाणा, दिल्ली, पशिचमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश प्रमुख हैं।

आर्थिक रूप से सक्षम व दबंग जातीय समुदाय बढ़ती महत्वांकाक्षा के चलते आरक्षण की मांग कर रहें हैं। लिहाजा नैतिक रूप से आरक्षण का विरोध करने वाली संपन्न व समृद्ध जातियां भी जाटों को दिए आरक्षण के बाद एक-एक कर आरक्षण-लाभ के पक्ष में आती दिखार्इ देने लगेंगीं। जाट जाति को जब राजस्थान और उत्तर प्रदेश में पिछड़े वर्ग की आरक्षण सूची में शामिल कर लिया गया था तो उसका अनुसरण गुर्जर जाति ने राजस्थान में किया था। जाट महासभा तभी से केंद्र सरकार की सेवाओं में पर्याप्त आरक्षण की मांग कर रही थी। लेकिन राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग जाटों को ओबीसी का दर्जा देने को तैयार नहीं हुआ था। पिछले साल आयोग ने जाटों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक हैसियत जानने के लिए भारतीय समाज विज्ञान अनुसंधान परिषद से सर्वेक्षण कराने का फैसला किया था। इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट अभी तक नहीं आर्इ है। बावजूद केंद्र सरकार ने पिछड़ा वर्ग आयोग पर दबाव बनाकर जाटों को आरक्षण देने की रिपोर्ट यथाशीघ्र देने को वाध्य किया। लाचार आयोग ने रिपोर्ट भेज भी दी। लेकिन जो खबरे निकलकर आ रही है उन से पता चला है कि आयोग के सदस्य जाट समुदाय को आरक्षण देने पर एकमत नहीं थे। बावजूद केंद्र सरकार ने आरक्षण देने का फैसला ले लिया ? अब यदि इस रिपोर्ट के आधार पर आरक्षण को न्यायालय में चुनौती दी जाती है तो इस मसले को आधार बनाया जाएगा कि सरकार ने आरक्षण के सिद्धांत को बिना कसौटी पर कसे इतना बड़ा फैसला कैसे ले लिया ?

आरक्षण की लक्ष्मण रेखा का जो संवैधानिक स्वरूप है, उसमें आरक्षण की सीमा को पचास प्रतिशत से ऊपर नहीं ले जाया जा सकता। इसलिए तय है, जाटों को केंद्रीय सेवा में जो आरक्षण मिला  है, वह वंचितों और जरूरतमंदों की हकमारी है। तमाम प्रदर्शनों के बावजूद अभी तक गुर्जरों को राजस्थान में पांच फीसदी भी आरक्षण नहीं दिया जा सका है। आरक्षण की सीमा में जातियों को लाए जाने की सीमाएं भी सुनिशिचत हैं। कर्इ संवैधानिक अड़चने हैं। किस जाति को पिछड़े वर्ग में शामिल किया जाए, किसे अनुसूचित जाति में और किसे अनुसूचित जनजाति में इसकी परिभाषित कसौटियां हैं। कसौटी पर जब किसी जाति का आर्थिक व सामाजिक रूप से दरिद्र और पिछड़ापन खरा उतरता है, तब कहीं उस जाति के लिए आरक्षण की खिड़की खुलती है। इसके बाद राष्ट्रपति की मोहर की अनिवार्यता है। यदि संविधान की मूल भावना का ख्याल करें तो साफ होता है कि आरक्षण गरीबी हटाने या रोजगार उपलब्ध कराने का जरिया नहीं है। अलबत्ता इसका मकसद उन जातियों और उपेक्षित तबको को सत्ता व सरकार में भागीदारी कराकर सम्मानजनक स्थान देना है, जो सदियों से ऐतिहासिक कारणों व सामाजिक असमानताओं के चलते सामाजिक न्याय पाने में बहिष्कृत रहते हुए हाशिये पर पड़े थे। लेकिन बिडंवना है कि राजनैतिक दलों ने आरक्षण को वोट कबाड़ने का औजार मान लिया है।

सरकार यदि वाकर्इ सियासी चाल नहीं चलते हुए जाटों को आरक्षण दने के पक्ष में थी तो उसे संविधान एवं अदालत के दिशा निर्देशों का पालन करना था। इसके लिए पहली शर्त थी कि आरक्षण पाने वाला समुदाय सामाजिक व आर्थिक रूप से वास्तव में पिछड़ा हो। उसके पिछड़े पन के आंकड़े भी होने चाहिए, अन्यथा संविधान में दिय समता के अधिकार को नकारना मुश्किल होगा। जाटों को आरक्षण देते वक्त सरकार ने इन मानकों की अभेलना कि इसलिए कैबिनेट के इस फैसले की वैधानिकता संदिग्ध है। लिहाजा आरक्षण का यह सगूफा न्यायालय के समक्ष ठहर नहीं पाएगा।

हालात ये हो गए हैं कि आरक्षण का अतिवाद अब हमारे राजनीतिकों में वैचारिक पिछड़ापन बढ़ाने का काम कर रहा है। नतीजतन रोजगार व उत्पाद के नए अवसर उत्सर्जित करने की कोशिशों की बजाय हमारे नेता नर्इ जातियां-उपजातियां तलाश कर उन्हें आरक्षण के लिए उकसाने का काम कर रहे हैं। इसके नकारात्मक पहलुओं को नजरअंदाज करके यदि रोजगार के अवसर उपलब्ध नौकरियों में ही तलाशे जाते हैं तो बेरोजगारी दूर करने के सार्थक उपाय सामने आने वाले नहीं हैं ? मौजूदा सरकारें चाहें तो नौकरी-पेशाओं की उम्र घटाकर, सेवानिवृत्तों का सेवा विस्तार प्रतिबंधित कर और प्रतिनियुकितयों पर विराम लगाकर बड़ी मात्रा में युवाओं को रोजगार मुहैया करा सकती हंै ? वैसे भी कम्प्यूटर और इंटरनेट तकनीक में उम्रदराज नौकरी-पेशा तालमेल बिठाने में अक्षम हैं। ऐसे में इस तकनीक से त्वरित प्रभाव और पारदर्शिता की जो उम्मीद थी, उस पर यह तकनीक इसलिए खरी नहीं उतरी क्योंकि उसकी नर्इ तकनीक सीखने में कोर्इ जिज्ञासा ही नहीं रह गर्इ है।

अब यह प्रावधान सख्ती से लागू होना चाहिए कि जिस व्यकित को एक मर्तबा आरक्षण मिल चुका है, उसकी संतान को किसी भी हाल में आरक्षण की सुविधा न मिले। क्योंकि एक बार आरक्षण हासिल हो जाने के बाद जब परिवार की इकार्इ आर्थिक रूप से संपन्न हो चुकी है तो उसे खुली प्रतियोगिता की चुनौती स्वीकार करनी चाहिए। जिससे उसी के समुदाय के वंचित व्यकित को आरक्षण का लाभ मिले ? इस योग्यता के आधार पर नागरिक समाज का निर्माण होगा और वंचित तबका अवसर मिलने से कुंठा मुक्त रहेगा। जातीय समुदायों को यदि हम आरक्षण के बहाने संजीवनी देते रहे तो न तो जातीय चक्र टूटने वाला है और न ही किसी एक समुदाय का समग्र विकास अथवा कल्याण होने वाला है। आजाद भारत में ब्राह्राण, वैश्य और कायस्थों को निर्विवाद रूप से सबसे ज्यादा सरकारी व निजी नौकरियों के अवसर मिले, लेकिन क्या इन जातियों के समग्र समाज की दरिद्रता दूर हो पार्इ ? यही सिथति पिछड़ा, हरिजन व आदिवासियों के साथ है। इनका भी कल्याण कहां हो पाया ? दरअसल आरक्षण सामाजिक असमानता तोड़ने का अस्त्र बन ही नहीं पाया ? प्रगति का भ्रामक साध्य जरूर इसे मान लिया गया है। नौकरी हासिल करने के वही साधन सर्वग्राही व सर्वमंगलकारी होंगे, जो खुली प्रतियोगिता का हिस्सा बनेंगें। वरना आरक्षण में आरक्षण की मांग तो विकृत राजनीति के चेहरे को कुरूप बनाते हुए जातिगत प्रतिद्वंद्विता को ही बढ़ाने का काम करेगी ?

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