पद्मावत पर विरोध की राजनीति क्यों?

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ललित गर्ग-

कल परिवार के साथ ‘पद्मावत’ देखी। इस फिल्म को लेकर जितने शोर-शराबें, बवाल अथवा अफवाहों ने देश की जनता को गुमराह किये हुए था, फिल्म देखकर लगा कि इस देश की जनता को बेमतलब कितना गुमराह किया जा सकता है। जिन राजपूतों ने और उनकी करणी सेना इस फिल्म का व्यापक विरोध किया, आन्दोलन चलाया, हिंसा की, तोड़फोड़ की- यह सब राजपूतों की आन-बान-शान को धुंधलाने के नाम पर किया गया। जबकि संजय लीला भंसाली की इस फिल्म को देखकर लगा कि इसमें ऐसा कुछ नहीं है। यह फिल्म देखकर और इसमें फिल्माये एवं दिखाये गये मेवाड़ के गौरव एवं राजपूतों की जीवनशैली को देखकर हर व्यक्ति गौरवान्वित हुआ। उस महान् संस्कृति एवं इतिहास के प्रति नतमस्तक भी हुआ और गद्गद् भी हुआ। प्रश्न है कि फिर विरोध क्यों हुआ? आन्दोलन क्यों हुआ? क्यों सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवहेलना हुई? क्यों विभिन्न राज्य सरकारों ने इसे अपने प्रांतों में प्रदर्शन नहीं करने के फरमान जारी किये? आखिर कौन लोग इस फिल्म के नाम पर इंसानों को बांटने की कोशिश कर रहे थे। यदि राजनीतिक स्वार्थ के लिये यह सब किया गया है तो अब ऐसी स्वार्थी राजनीति पर अंकुश लगना ही चाहिए। एक नई किस्म की वाग्मिता पनप रही है जो किन्हीं शाश्वत मूल्यों पर नहीं बल्कि भटकाव के कल्पित आदर्शों के आधार पर है। जिसमें सभी नायक बनना चाहते हैं, पात्र कोई नहीं। भला ऐसी सामाजिक व्यवस्था किस के हित में होगी?
‘पद्मावत’ के विरोध की राजनीति को देखते हुए यही लगा कि सब अपना बना रहे हैं, सबका कुछ नहीं। और उन्माद की इस प्रक्रिया में एकता की संस्कृति का नाम सुनते ही हाथ हथियार थामने को मचल उठते हैं। मनुष्यता क्रूर, अमानवीय और जहरीले मार्गों पर पहुंच जाती है। बहस वे नहीं कर सकते, इसलिए हथियार उठाते हैं। संवाद की संस्कृति के प्रति असहिष्णुता की यह चरम सीमा है। यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि हम बिना पड़ताल के, बिना सत्य का साक्षात्कार किये भावनाओं में बह कर राष्ट्रीय सम्पत्ति का नुकसान करने लगते हैं, जनहानि कर देते हैं। बिना ठोस प्रमाण के उत्पात मचाने वालों ने आखिर किन अराजक शक्तियों के इशारों पर लम्बे समय तक यह हिंसक आन्दोलन चलाया? जबकि फिल्म देखने के बाद मुझे लगा कि यह राजपूत संस्कृति का, उनके संस्कारों का, उनके सिद्धान्तों का, उनकी आन-बान-शान का, उनके इतिहास का, उनके नारी सम्मान का इतना भव्य, मनोरम, सटीक एवं प्रभावशाली प्रदर्शन पहली बार हुआ है, जिससे राजपूत जीवनशैली एवं संस्कृति का महिमामंडन ही हुआ है। राजपूतों की संस्कृति पर फिल्में बहुत बनी है, लेकिन संजय लीला भंसाली बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने मेवाड़ की संस्कृति, सती प्रथा को, मेवाड़ के आत्म-सम्मान को, राजपूतों की मान-मर्यादा को खूबसूरती से दर्शाया है। उन्होंने राजपूतों की वीरता तथा बलिदान को गौरवान्वित किया है और इसे देख कर प्रत्येक राजपूत ही नहीं देश का हर नागरिक गर्व महसूस कर रहा है।
‘पद्मावत’ के विरोध ने अनेक प्रश्न खड़े किये हैं। जो आत्म-मंथन का अवकाश चाहते हैं। क्यों राजपूत करणी सेना ने इतने दिनों के विरोध के बाद अपने बवाल को वापस लेने का फैसला किया है? इतना ही नहीं, करणी सेना ने एक कदम आगे बढा़ते हुए अपने सदस्यों को राजस्थान में इसे रिलीज करवाने में मदद करने को कहा है। पूरा साल लोग करणी सेना के विरोध प्रदर्शनों से लेकर आयोजित बंद-हिंसा-आन्दोलन आदि को देखते-सुनते व झेलते रहे थे। सर्वत्र तेरहवीं सदी की रानी पद्मावती की ही बातें हो रही थीं। जबकि इस फिल्म में रानी पद्मावती और अलाउद्दीन के बीच कोई भी सीन नहीं है। इसमें ऐसा कुछ नहीं है जो राजपूत समाज के इतिहास और भावनाओं को नुकसान पहुंचाए। फिर इतना विरोध क्यों एवं किनके इशारों पर हुआ। गलतफहमियां पनपनी नहीं चाहिए, क्योंकि इसी भूमिका पर विरोधी विचार जनम लेते हैं, विरोध का वातावरण बनता है।
क्या कारण बना कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद वाहनों को आग के हवाले करने, ट्रक ड्राइवरों के साथ मारपीट से लेकर स्कूल बसों पर पथराव तथा जलाने के प्रयास जैसी हिंसा एवं बर्बरता होती रही। चाहे भाजपा हो या कांग्रेस राजनीतिक जगत में इस हिंसा को लेकर पूर्ण चुप्पी इनके गिरते स्तर और वोट राजनीति का प्रमाण है। राजस्थान, हरियाणा, मध्यप्रदेश की चुनी हुई सरकारों ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को लागू करवाने के बजाय खुलेआम इसे चुनौती ही नहीं दी, मनमानी करने वाले तत्वों का काफी हद तक साथ भी दिया। न केवल सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की गरिमा को धराशायी किया गया, बल्कि भविष्य में उद्दंड समूहों द्वारा समाज पर अपने मुद्दों को थोपने का मार्ग प्रशस्त किया और ऐसा उस बात के लिए हुआ जिसे किसी ने न देखा था और न ही उसका कोई प्रमाण उनके पास था।
एक स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार सभी को समान रूप से मिला हुआ है। चित्रकला, नृत्य, नाटक, कहानी, लेखन आदि में दूसरों के विचारों, कलाओं एवं संस्कृति के प्रति असहिष्णुता प्रकट कर हम सामाजिक विघटन की जमीन तैयार करते हैं जो अनेक विघटनों का कारण बनती। इस तरह से पद्मावत का विरोध करने लगेगा तो समाज भला किस तरह से इतिहास एवं संस्कृृति से सीख लेने की बात सोच सकेगा। लोकतंत्र में ऐसी विघटनकारी स्थितियों का कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
इतिहास एवं संस्कृति के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले लोकतंत्र को कमजोर कर रहे हैं। यदि आप गौर करेंगे तो पाएंगे कि जहां-जहां पद्मावत कोे लेकर उग्र विरोध का वातावरण बना उन राज्यों में बीजेपी सत्ता पर काबिज है। तो क्या विरोधी पार्टी के लोगों ने इस आन्दोलन को हवा दी? राजस्थान की वसुंधरा सरकार की तो मजबूरी थी कि वहां पर दो लोकसभा एवं एक विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव होने थे, इसलिए वसुंधरा सरकार से कोई भी कार्रवाई की उम्मीद करना ही बेमानी था। यदि वसुंधरा को कार्रवाई करनी होती तो करणी सेना के प्रमुख कालवी पर उसी दिन मुकदमा कर देती, जिस दिन उनके लोगों ने पद्मावत के सेट को तोड़ा था और भंसाली को थप्पड़ जड़े थे। यदि उस वक्त कालवी पर मुकदमा हो जाता तो आज ये नौबत ही नहीं आती। लेकिन जो स्थिति बनी, पद्मावत के तर्कहीन विरोध से जो विघटनकारी माहौल बना, वैसी स्थिति भविष्य में न हो, इसका हम सबको प्रयास करना चाहिए। विरोध की संस्कृति की जगह संवाद की संस्कृति बने तो समाधान के दरवाजे खुलते जायेंगे, दिल भी खुलते जायेंगे। बुझा दीया जले दीये के करीब आ जाये तो जले दीये की रोशनी कभी भी छलांग लगा सकती है। ऐसी स्थिति में हम राजनीतिक मोहरें बनने से बच सकेंगे। पद्मावत, गौरक्षा, राष्ट्र गीत, राष्ट्र ध्वज क्या कह रहे हैं? यह कोई नहीं सुन रहा। इन्हें बैसाखी बनाकर राजनीति मत चलाओ। स्वयं बैसाखी बनकर उनका संदेश फैलाओ, ताकि संस्कृति गाढ़ी सांझी बनी रहे। प्रेषक

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