अनहोनी को होनी कर दे…!

-तारकेश कुमार ओझा-
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तब मेहमानों के स्वागत में शरबत ही पेश किया जाता था। किसी के दरवाजे पहुंचने पर पानी के साथ चीनी या गुड़ मिल जाए तो यही बहुत माना जाता था। बहुत हुआ तो घर वालों से मेहमान के लिए रस यानी शरबत बना कर लाने का आदेश होता। खास मेहमानों के लिए नींबूयुक्त शरबत पेश किया जाता । लेकिन इस बीच बहुराष्ट्रीय कंपनियों के शीतल पेय ने भी देश में दस्तक देनी शुरू कर दी थी। गांव जाने को ट्रेन पकड़ने के लिए कोलकाता जाना होता. तब हावड़ा रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर हाकरों द्वारा पैदा की जाने वाली शीतल पेय के बोतलो की ठुकठुक की आवाज मुझमें इसके प्रति गहरी जिज्ञासा पैदा करने लगी थी। एक शादी में पहली बार शीतल पेय पीने का मौका मिलने पर पहले ही घुंट में मुझे उबकाई सी आ गई थी । मुझे लगता था कि बोतलबंद शीतल पेय शरबत जैसा कोई मजेदार पेय होगा। लेकिन गैस के साथ खारे स्वाद ने मेरा जायका बिगाड़ दिया था। लेकिन कुछ अंतराल के बाद शीतल पेय के विज्ञापन की कमान तत्कालीन क्रिकेटर इमरान खान व अभिनेत्री रति अग्निहोत्री समेत कई सेलीब्रिटीज ने संभाली और आज देश में शीतल पेय का बाजार सबके सामने है। कभी-कभार गांव जाने पर वहां की दुकानों में थर्माकोल की पेटियों में बर्फ के नीचे दबे शीतल पेय की बोतलों को देख कर मैं सोच में पड़ जाता हूं कि ठंडा यानी शीतल पेय शहरी लोग ज्यादा पीते हैं या ग्रामीण। खैर , पूंजी औऱ बाजार की ताकत का दूसरा उदाहरण मुझे कालेज जीवन में क्रिकेट के तौर पर देखने को मिला । 1983 में भारत के विश्व कप जीत लेने की वजह से तब यह खेल देश के मध्यवर्गीय लोगों में भी तेजी से लोकप्रिय होने लगा था। लेकिन इस वजह से अपने सहपाठियों के बीच मुझे झेंप होती थी क्योंकि मैं क्रिकेट के बारे में कुछ भी नहीं जानता था। मुझे यह अजीब खेल लगता था। मेरे मन में अक्सर सवाल उठता कि आखिर यह कैसा खेल है जो पूरे – पूरे दिन क्या लगातार पांच दिनों तक चलता है। कोई गेंदबाज कलाबाजी खाते हुए कैच पकड़ता औऱ मुझे पता चलता कि विकेट कैच लपकने वाले को नहीं बल्कि उस गेंदबाज को मिला है जिसकी गेंद पर बल्लेबाज आउट हुआ है, तो मुझे बड़ा आश्चर्य होता। मुझे लगता कि विकेट तो गेंदबाज को मिलना चाहिए , जिसने कूदते – फांदते हुए कैच लपका है। इसी कश्मकश में क्रिकेट कब हमारे देश में धर्म बन गया, मुझे पता ही नहीं चला। इसी तरह कुछ साल पहले अाइपीएल की चर्चा शुरु हुई तो मुझे फिर बड़ी हैरत हुई। मन में तरह – तरह के सवाल उठने लगे। आखिर यह कैसा खेल है, जिसमें खिलाड़ी की बोली लगती है। टीम देश के आधार पर नहीं बल्कि अजीबोगरीब नामों वाले हैं। यही नहीं इसके खिलाड़ी भी अलग-अलग देशों के हैं। लेकिन कमाल देखिए कि देखते ही देखते क्या अखबार औऱ क्या चैनल सभी अाइपीएल की खबरों से पटने लगे। जरूरी खबर रोककर भी अाइपीएल की खबर चैनलों पर चलाई जाने लगी। यही नहीं कुछ दिन पहले कोलकाता नामधारी एक टीम के जीतने पर वहां एेसा जश्न मना मानो भारत ने ओलंपिक में कोई बड़ा कारनामा कर दिखाया हो। करोड़ों में खेलने वाले इसके खिलाड़ियों का यूं स्वागत हुआ मानो वे मानवता पर उपकार करने वाले कोई मनीषी या देश औऱ समाज के लिए मर – मिटने वाले वीर – पुरुष हों। एक तरफ जनता लाठियां खा रही थी, दूसरी तरफ मैदान में शाहरूख और जूही ही क्यों तमाम नेता – अभिनेता और अभिनेत्रियां नाच रहे थे। पैसों के बगैर किसी को अपना पसीना भी नहीं देने वाले अरबपति खिलाड़ियों को महंगे उपहारों से पाट दिया गया। इस मुद्दे पर राज्य व देश में बहस चल ही रही है। लिहाजा इसमें अपनी टांग घुसड़ने का कोई फायदा नहीं। लेकिन मुझे लगता है कि ठंडा यानी शीतल पेय हो किक्रेट या फिर अाइपीएल। यह क्षमता व पूंजी की ताकत ही है, जो अनहोनी को भी होनी करने की क्षमता रखती है। पता नहीं भविष्य में यह ताकत देश में और क्या – क्या करतब दिखाए।

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तारकेश कुमार ओझा
पश्चिम बंगाल के वरिष्ठ हिंदी पत्रकारों में तारकेश कुमार ओझा का जन्म 25.09.1968 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में हुआ था। हालांकि पहले नाना और बाद में पिता की रेलवे की नौकरी के सिलसिले में शुरू से वे पश्चिम बंगाल के खड़गपुर शहर मे स्थायी रूप से बसे रहे। साप्ताहिक संडे मेल समेत अन्य समाचार पत्रों में शौकिया लेखन के बाद 1995 में उन्होंने दैनिक विश्वमित्र से पेशेवर पत्रकारिता की शुरूआत की। कोलकाता से प्रकाशित सांध्य हिंदी दैनिक महानगर तथा जमशदेपुर से प्रकाशित चमकता अाईना व प्रभात खबर को अपनी सेवाएं देने के बाद ओझा पिछले 9 सालों से दैनिक जागरण में उप संपादक के तौर पर कार्य कर रहे हैं।

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