-आलोक कुमार-
दिल्ली का विधानसभा चुनाव इस बार पूरी तरह से चौंकाने वाले परिणामों से भरा रहा। यहां दो परम्परागत राजनैतिक दलों को सबसे बड़ी चुनावी चुनौती मिली वो भी एक ऐसी पार्टी से जो मात्र एक वर्ष पुरानी है। जनता ने ‘‘भाजपा’’ और ‘‘आप’’ को मिश्रित समर्थन दिया। भाजपा को 32 सीटें, ‘‘आप’’ को 28 सीटें और वहीं पिछले 15 वर्ष से सत्तासीन कांग्रेस को पूरी तरह नकारते हुए जनता ने सिर्फ 8 स्थानों पर योग्य पाया। चुनाव के बाद आये नतीजों से ये स्पष्ट है कि जनता ने कांग्रेस की वर्तमान सरकार को नकारते हुए, उसके विकल्प के रूप में सामने आयी ‘‘आम आदमी पार्टी’’ और 15 वर्ष से मुख्य विपक्ष की भूमिका निभाती आई भाजपा पर अपना विश्वास दिखाया है। प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी ‘‘भाजपा’’ ने बहुमत न होने के आधार पर सरकार बनाने से मना कर दिया था। वहीं प्रदेश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी ‘‘आम आदमी पार्टी’’ ने अपनी धुर-विरोधी कांग्रेस पार्टी के सहयोग से सत्ता के सिंहासन पर बैठने का फैसला किया। हालांकि ‘‘आम आदमी पार्टी’’ को ‘‘भाजपा’’ ने भी बिना शर्त समर्थन देने के संकेत दिये थे, इसके बाद भी ‘‘आम आदमी पार्टी’’ का सरकार बनाने से इनकार करना हैरान करने वाला फैसला था।
ये सर्वविदित है कि ‘‘आम आदमी पार्टी’’ का जन्म अन्ना आंदोलन की दिशा में परिवर्तन कर हुआ है। इसके मूल में भ्रष्टाचार, कुशासन और महंगाई जैसे आम मुद्दे हैं। ‘‘आप’’ के नेताओं का कहना था कि “हमारा किसी भी राजनैतिक पार्टी या नेताओं से बैर नहीं है, हम मुद्दों के आधार पर जनता की लड़ाई लड़ रहे हैं। “उनका स्पष्ट कहना था कि “वे सिस्टम को खत्म नहीं दुरूस्त करना चाहते हैं। “ऐसे में उन्हें आज जब सिस्टम में शामिल होकर सिस्टम को सुधारने का मौका मिल रहा है, तो वो पिछड़ते क्यूं जा रहे हैं? ये सबसे बड़ी विडम्बना और विरोधाभास है “आप” की राजनीति का।
अन्ना के आंदोलन की दिशा बदलकर राजनीति में उतरते हुए अरविन्द केजरीवाल ने कहा था कि “सिस्टम में शामिल होकर ही सिस्टम को सुधारा जा सकता है। “आज जनता ही नहीं उनकी धुर-विरोधी पार्टियां भी उन्हें ये अवसर दे रहीं हैं। फिर भी उनका मुद्दों से भटकाने का रवैया ! इसके के पीछे कहीं उनकी राजनैतिक अनुभवहीनता और अपरिपक्वता तो नहीं है ? वही दल जिन्हें केजरीवाल भष्ट्र और कुशासन देने वाले दल के रूप में परिभाषित करते हैं , वही जब केजरीलवाल को ताकत और सत्ता दे रहे हैं तब संकोच कैसा और क्यूं ? सभी पार्टियों और नेताओं को एक ही चश्मे से देखने वाले केजरीवाल को अपनी स्वयं की पार्टी को छोड़कर सभी पार्टियां और राजनेता भ्रष्टाचारी और चोर नजर आते हैं। ये “अतिशय-विश्वास” का मामला प्रतीत होता है। चुनाव के पहले , परिणामों के बाद और सत्ता सम्भालने के तुरन्त बाद ही इनकी पार्टी के चंद नेताओं का संदेहास्पद चरित्र उभर का सामने आया है और सबसे अहम बात कि सत्ता के साथ और आगे जाने के बाद इनके नेताओं का चरित्र कैसा रहता है ये तो वक्त ही बतलाएगा !
चुनाव शुरू होने से पहले ही साफ हो चुका था की इस चुनाव में भ्रष्टाचार, कुशासन, ईमानदारी और महंगाई के मुद्दे पर चुनाव लड़ा जाना है। ऐसे में 32 सीटों और 33 प्रतिशत वोट शेयर के साथ भाजपा जनता की पहली पसंद बनी। जनता ने ‘‘आप’’ के साथ ही ‘‘भाजपा’’ को बड़ा समर्थन देकर भाजपा के 32 प्रत्याशियों को ईमानदारी और भ्रष्टाचार मुक्त होने का सर्टिफिकेट दिया है। जनता ने कांग्रेस के भी 8 प्रत्याशियों को अपना प्रतिनिधित्व करने के योग्य माना है और कांग्रेस को भी 25 फीसदी लोगों का साथ मिला है। ऐसे में केजरीवाल का भाजपा और कांग्रेस की इस जीत को मानने से इनकार करना और जनता द्वारा चुने जाने के बावजूद भाजपा और कांग्रेस को भ्रष्टाचारी कहना, क्या यह भाजपा के समर्थक 33 प्रतिशत मतदाताओं और कांग्रेस के 25 प्रतिशत मतदाताओं का अपमान नहीं है ? क्या केजरीवाल यह जताना चाहते हैं कि दिल्ली में उनके 30 फिसदी को छोड़कर वे 58 प्रतिशत मतदाता जिन्होंने भाजपा और कांग्रेस को समर्थन दिया है वे भी भ्रष्ट हैं या भ्रष्टाचारियों के हिमायती हैं ? या फिर यह कि मतदाता भ्रष्टाचारी और कुशासन युक्त शासन पसंद करते हैं ?
आम आदमी पार्टी ‘‘एकला चलो’’ और ‘‘हम ईमानदार बाकी सब बेईमान’’ वाली जो सोच लेकर चल रही है, वह लोकतंत्र और देशहित में कतई नजर नहीं आती। “आप” का अक्खड़ व आक्रामक स्वभाव , एकतरफा बातचीत का तरीका निश्चित ही युवाओं को रास आ रहा है और इससे उन्हें तात्कालिक फायदा भी मिल रहा है। परन्तु जब जनता इनकी मूल भावना और उद्देश्यों के बारे में विचार करेगी तो निश्चित ही ‘‘आम आदमी पार्टी’’ की महत्वाकांक्षाओं पर प्रश्न उठेगा जिसका जवाब उन्हें देना ही होगा।
आम आदमीं पार्टी को जनता के विश्वास और समर्थन का मान रखते हुए देश की राजनीति और व्यवस्था के अंतर -निहित भ्रष्टाचार और अराजकता को खत्म करने की दिशा में शुरुआती कदम तो उठाना ही होगा। दिल्ली की जनता को एक ईमानदार और जनहित के सरोकारों वाली सरकार की जरूरत है और यह मौका आज केजरीवाल को अगर मिल रहा है तो उन्हें इसे चुनौती के रूप में स्वीकार करना चाहिए। केवल परिवर्तन की लम्बी -चौड़ी बातों से जनता को ज्यादा दिनों तक बरगलाया नहीं जा सकता, अंग्रेजी में एक उक्ति है ना “Now it’s High – Time to deliver”।
मीडिया कांग्रेस और भाजपा चाहे जो करले आप को रोकना उनके वश में नही है रहा सवाल लोकसभा चुनाव का तो कांग्रेस का तो सूपड़ा साफ़ होना ही है भाजपा भी सरकार बनाने से दिल्ली कि तरेह महरूम रेह जायेगी . आम जनता का रुझान बड़े पैमाने पर केजरीवाल के साथ बढ़ रहा है.
इब्तदाये इश्क़ है , रोता है क्या,आगे आगे देखिये होता है क्या.
जब नए किसान को हल सोंप दें तो वह पुरे खेत को ही खोद खोद कर ख़राब कर देता है. डेल्ही की युवा पीढ़ी ने केजरीवाल कि क्षमताओं पर कुछ ज्यादा ही विश्वास व अपेक्षाएं कर ली.अब वे और उनकी नौसिखिआ टीम क्या करेगी सोचा नहीं जा सकता.स्वयं केजरीवाल भी सत्ता को देख बौरा गएँ हैं, वे भी नवयुवकों की भांति जिद व कार्य कर रहें हैं. गलती को स्वीकार न करना,अपनी जिद पर अड़े रहना आदि ऐसी बातें हैं जिनसे राजकाज नहीं चलता.पर वे हैं कि मानने को तैयार नहीं.दिल्ली का बुद्धिजीवी मतदाता तो अब कुछ समझने लग गया है व महसूस भी करने लगा है कि कुछ गलती हुई है पर आम आदमी अभी भी उसी सपने में जी रहा है.भा जा पा व कांग्रेस के दुशासन से मुक्ति पाने के लिए परिवर्तन जरुरी तो था पर कुछ परिपक्व अनुभवी लोग भी होते तो यह बहुत सुचारु होता.अब तो देखो ये क्या करेंगे? कांग्रेस क्या करने देगी? व केजरीवाल ने अति उत्साह में जो वादे कर दिए,वे कितने साकार होंगे. क्योंकि केजरीवाल ने भी पूर्व सरकार की कमियों व गलतियों को बहुत बढ़ा चढ़ा कर बता दिया था.दीक्षित भी साड़ी रसोई साफ़ कर गयी है कि आसानी से साबुत नहीं मिले.और यदि नहीं मिले तो आम पार्टी की और भी किरकिरी होगी.