जनता के ज्‍यादा निकट होती है मंचीय कविता

आशीष कुमार ‘अंशु’

बात अधिक पुरानी नहीं है, मंचीय कवि अशोक चक्रधर जब हिन्दी अकादमी दिल्ली के उपाध्यक्ष तय हुए, उस वक्त हिन्दी साहित्य समाज इसलिए उन्हें गंभीरता से लेने को तैयार नहीं हुआ क्योंकि वे एक मंचीय कवि थे। उस वक्त की मंचीय कवियों की एकता उल्लेखनीय है। कवि जो मंच के गणित में अशोक जी के साथ के थे या खिलाफ के। सभी एक मंच पर आए और उनमें अपना विश्वास जताया। चूंकि हिन्दी अकादमी, दिल्ली का मामला पूरी तरह से मंचीय और गैर मंचीय रुप ले चुका था।

मंचीय और गैर मंचीय कवियों के बीच यह अघोषित लकीर हमेशा से रही है। कभी कभी यह लकीर जरुर थोड़ी गहरी हो जाती है। जिससे इस भेद को बाहर का समाज भी समझने लगता है। मंचीय और गैर मंचीय लोगों के बीच होने वाले इस भेदभाव की कीमत ही आज कानपुर के प्रमोद तिवारी और दिल्ली के विनय विश्वास जैसे कवि चुका रहे हैं। वरना इनकी कविताओं पर भी अकादमिक चर्चा हो सकती थी। विश्वास बताते हैं, मंचीय और गैर मंचीय या साहित्यिक और गैर साहित्यिक जैसे लकीर का कोई अर्थ नहीं है। मंच की कविता साहित्यिक पत्रिकाओं में सराही जा सकती है। साहित्यिक पत्रिकाओं में छपने वाले कवियों की कविताएं मंच की वाह वाही लूट सकती हैं। विश्वास ने अपने स्तर पर एक प्रयास भी किया है। वे मंच से राजेश जोशी, हेमंत कुकरेती, बद्रीनारायण की पंक्तियों को समय समय पर अपनी प्रस्तुति में जोड़ते हैं। खास बात यह कि साहित्यिक कवि माने जाने वाले राजेश जोशी, बद्रीनारायण की कविताओं को मंच पर उद्धृत करने पर श्रोताओं की तरफ से कई-कई बार ‘एक बार फिर’ (वन्स मोर) का आग्रह आया है।

यदि साहित्यिक पत्रिकाओं के पास अरुण कमल, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, केदारनाथ सिंह, इब्बार रब्बी जैसे कवि हैं तो कविता के दूसरे पलड़े अर्थात मंच पर भी गोपाल दास नीरज, सोम ठाकुर, बाल कवि बैरागी, उदय प्रताप सिंह, सुरेन्द्र शर्मा जैसे हस्ताक्षर मौजूद हैं। अब मंच और साहित्यिक कविता के दो पलड़ों में कौन सा पलड़ा भारी है, यह कहना मंचीय कविता को कम करके आंकने वालों के लिए भी मुश्किल होगा।

वरिष्ठ हास्य कवि सुरेन्द्र शर्मा कहते हैं, मंच का कवि होना, पत्रिकाओं में कविता लिखने से अधिक चुनौतीपूर्ण हैं। चूंकि साहित्य की कविता का पाठक एक खास तरह का पाठक वर्ग होता है। मंच की कविता सुनने वालों में कुली से लेकर कलेक्टर तक मौजूद होते हैं। अब आपको कुछ ऐसा सुनाना है, जो दोनों के समझ में आए और दोनों उसकी सराहना किए बिना ना रह पाएं।

शर्माजी गंभीर साहित्यिक कविताओं पर चुटकी लेते हुए कहते हैं, उस कविता का क्या पर्याय जो जिस शोषित समाज के लिए लिखी जाए, उस समाज के समझ में ही ना आए।

शर्मा एक कविता का हवाला देते हैं,

‘एक कवि ने पसीना बहाने वालों पर कविता लिखी,

पसीना बहाने वालों को समझ में नहीं आई,

मुझे समझने में पसीने आ गए।’

मंच पर कवि अपनी रचना के साथ श्रोताओं के सामने होता है। इस तरह श्रोता कवि के सामने अपनी नाराजगी या खुशी प्रकट कर देता है। कविता पर तालियों की गड़गडाहट होती है या फिर कवि हूट होते हैं। जो भी अंजाम होना है, सरेआम होता है। यह मंचीय कविता का ही जादू है, जो श्रोता अपने प्रिय कवि को सुनने के लिए पूरी पूरी रात कवि सम्मेलनों में बैठा रह जाता हैं। गोपाल दास नीरज के लिए मशहूर है कि उनकी महफिल में जो बैठ गया, कार्यक्रम खत्म होने तक वह उठकर नहीं जा पाया। दूसरी तरफ साहित्यिक कविता के पाठकों के पास त्वरित प्रतिक्रिया का कोई विकल्प नहीं होता। पाठकों के सामने संपादक जी ने जो परोस दिया, उसे पढ़ना पड़ता है। साहित्य की पत्रिका ‘हंस’ के संपादक राजेन्द्र यादव शायद इन्हीं वजहों से साहित्यिक कही जाने वाली कविताओं को पसंद नहीं करते।

बात मंच के जादू की करें तो जनवरी महीने में होने वाले गणतंत्र दिवस लाल किले के कवि सम्मेलन में रात दस से सुबह तीन चार बजे तक ठिठुरती ठंड में भी कविता सुनने के लिए हजारों की संख्या में श्रोता बैठे होते हैं। क्या शालीनता के साथ चलने वाला कोई दूसरा आयोजन है, जो इतनी बड़ी संख्या में लोगों को अपने साथ कड़ाके की ठंड में पूरी रात बांध कर रखे।

उम्मीद है, मंचीय और गैर मंचीय कवियों के बीच जो सरहद बनी है, उसे आने वाले समय में दोनों तरफ के कवि ही ‘फिजूल’ साबित करेंगे। फिर निर्बाध दोनों तरफ के कवि एक दूसरे की सीमा में आ जा सकेंगे।

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