जनता परिवार, क्या स्थापित हो पाएगा ?

-मोहम्मद आसिफ इक़बाल

Janata_Parivar_PTI_650 सफर रिक्शा से किया जाये या बस कार और रेल से, सफर के बीच में कई सारे दर्शय हमारी आँखों से गुज़रते हैं। कभी ऐसा होता है की हम इन दर्शयो को सरसरी तौर पे देख कर गुज़र जाते हैं, कभी वो हमे प्रभावित करते हैं, कभी हमारी सोच और कर्म को झनजोड़ते हैं और कभी ऐसा भी होता है की हम बिलकुल ही उन्हें नज़रअंदाज़ कर देते हैं। अधिकतर लोगो के साथ नज़रअंदाज़ या उसपर ध्यान न देने का ही रवैया सामने आता है। फिर जिस तरह सफर के बीच में बेशुमार दर्शय हमें देखने को मिलते हैं और कोई न कोई रिएक्शन हम करने को मजबूर हो जाते हैं। ठीक उसी प्रकार जीवन में होने वाली घटनाएं हमारे मस्तिष्क, काम काज और सोच पर असर डालती हैं। ये अलग बात है की सफर के बीच में देखे गए नज़ारों की हमें जिस तरह नज़रअंदाज़ करने की आदत पढ़ चुकी होती है, कुछ उसी तरह ज़िन्दगी के अलग अलग रास्ते पे होने वाली घटनाएं और तरह तरह की निशानिया और ऐतिहासिक घटनाएं भी हमें कुछ करने को उभरती नहीं हैं। और हम अपनी ज़िन्दगी को जीते चले जाते हैं। और एक ख़ास समय गुजरने के बाद फिर ये कसक बाक़ी रह जाती है की काश उस अहम दौर में हम कुछ ऐसा कर लेते, जबकि हमारे इरादे भी मज़बूत थे और हमारे अंदर क्षमताये भी थीं ! लेकिन ये समय ऐसा होता है की जब क्षमताये मांद पढ़ जाती हैं, इरादे कमज़ोर हो चुके होते हैं और अनुभव व इच्छाओं के अलावा जीवन में कुछ बचता नहीं है। इसके बावजूद अकलमंद इंसान वही है जो समय से पहले अपनी इच्छाओं को सही दिशा दे, अपनी क्षमताओं को पहचाने, उनका विकास करे और अपनी सोच को सही दिशा दे, ताकि जीवन के ऊचे नीचे रास्ते पर होने वाली घटनाओं पे सोचे, समझे और सही समय पर व्यक्तिगत और सामूहिक संघर्ष को रूप दे।

शुरूआती बातचीत के बाद पिछले दिनों इस प्यारे देश भारत में होने वाले लोकसभा इलेक्शन और उसके नतीजे पे एक दर्ष्टि डालते हैं तो संचारों पर दृष्टि रखने वाला व्यक्ति खूब जनता हैं की कुछ महीने पहले लोकसभा एलकेशन और उसके नतीजे से देश में कोई अगर सब से ज़्यादा चिंतित था तो वो देश के अल्पसंख्यक थे। और ये सच्चाई भी खूब सामने आ चुकी है कि देश की अल्पसंख्यकों की ये चिंता बेवजह नहीं थी। क्योकि जिस तरह एक साल के अंदर ही इस महान देश भारत में अल्पसंख्यको के साथ जो बर्ताव किया गया है वो कोई ढंकी छुपी बात नहीं। उनके खिलाफ खुले आम नकारात्मक ब्यानबाज़िया की गईं और ये ब्यानबाज़िया आज भी जोर-शोर से जारी हैं। विभिन्न मुद्दो के नाम से जैसे कभी घर-वापसी के नारे सामने आते हैं तो कभी अल्पसंख्यकों के खिलाफ बहुसंख्यको को एक जुट करने के नाम पर नारे लगाये जाते हैं, कभी इस देश में रहने वालो को हिन्दू कहने का मामला उठाया जाता है तो कभी कानून में बदलाव करके मज़हब बदलने के खिलाफ मोर्चा खोलने की बात कही जाती है, कभी नसबंदी करवाये जाने के धमकी भरे बयान सामने आते हैं तो कभी वोट देने के अधिकार को खत्म करने की बात कही जाती है। और इन तमाम ब्यान के साथ साथ विशेष वर्ग के धार्मिक स्थलों की बेइज़्ज़ती की घटनाएं। ये वह बाते हैं जिनका अंदाजा किसी हद तक देश की 60% वोटिंग का 31% हासिल करने वालो की सत्ता पर आते ही समय हो गया था इसके बावजूद कुछ मासूम और नादान ऐसे भी थे जिन्होंने कुल आबादी के 15% से 18% वोट हासिल करने वालों से बहुत सी सकारात्मक उम्मीदे लगा रखी थीं। और शायद वो उम्मीदें इस बुनियाद पे थीं की जब कोई देश का प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री और कोई सवैधानिक ज़िम्मेदारी पर चुना जाता है तो वो न सिर्फ अपनी पार्टी या अपने वोटर का बल्कि पूरे देश का ज़िम्मेदार हो जाता है। साथ ही उसकी ज़िम्मेदारी होती है कि वो पूरे देश के नागरिकों के लिए पॉलिसी और प्रोग्राम बनाये, साथ ही पालिसी और प्रोग्राम के पालन में रुकावट बनने वाले गिरोहों और व्यक्तियों पर शिकंजा कसे। लेकिन अखबार, मैगज़ीन एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को पढ़ने-सुनने से ऐसा महसूस होता है की इस मामले में कुछ कोशिशें भी की गईं इसके बावजूद वास्तविकता ये है की जमीन पर कोई ऐसी गवाही या सच्चाई नहींं मिलती जो सुनी और देखी बातों पर यकीन में मदद करे।

पिछले दिनों जब देश में लोकसभा चुनाव के परिणामों ने कमजोर वर्गों तथा अल्पसंख्यकों को चिंता के घेरे में लिया हुआ था। उस समय एक लेख “भारत का बदलता राजनीतिक परिदृश्य” के अंतिम पैराग्राफ में हम ने लिखा था कि “इस समय मुसलमानों पर जो ख़ास कर 16 मई के बाद एक संघर्ष में मुब्तिला हैं तो आप का यह व्यवहार आपकी हैसियत के लिहाज़ से मुनासिब नहीं है। यह अलग बात है कि हम अपनी हैसियत से आज खुद भी परिचित नहींं हैं। लेकिन जिस तरह से हारे हुए लोगों और पार्टियो ने अपनी हार का ठीकरा मुसलमानों के सर फोड़ने की कोशिश की है और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उन पर इसका इल्ज़ाम रखा है, वह सही नहीं है। वहीं खुद मुसलमान भी मुस्लिम संगठनों के नेताओं, विद्वानों और उल्माए कराम के फैसलों को बुरा भला कह रहे हैं। अब सवाल ये पैदा होता है की नाकामी आपकी हुई है या उन सियासी पार्टियो के लीडरों की जिन की रोज़ी रोटी ही आपके द्वारा पहुँचती है। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में जब आप ने भरपूर बहुमत के साथ एक पार्टी को कामयाब किया था तब आप को क्या फायदा पहुंचा? सच तो ये है की प्रदेश में कामयाबी के साल दो साल भी न गुज़रे थे कि लगभग सौ से ज़्यादा दंगों ने अपनी लपेट में ले लिया और अब जबकि वह (लोक सभा चुनाव में) हार चुके हैं तो क्या ऐसा बड़ा नुक्सान होने वाला है जिससे आज तक आप दो-चार नहीं हुए हैं? सच तो यह है बंटे वे हैं और उन्ही के कुछ बुरे अमाल ने उन्हें रुस्वा भी किया है। इस से आगे बढ़ें तो मालूम होता है की वह न सिर्फ अपनी गलतियों का अंदाजा कर चुके है बल्कि व्यवहार में बदलाव भी लाना चाहते है। यही वजह है की आज बिहार का राजनीतिक परिदृश्य बदल रहा है। उम्मीद है की उन गलतियों को सुधरने के नतीजे में 2015 के आखरी तक होने वाले इलेक्शन में आपको अपने स्टैंड पर बने रहने के बावजूद नतीजों में बड़ी तब्दीली सामने आएगी। याद रखे मुल्क का राजनीतिक परिदृश्य पिछले 70 साल से लगातार तब्दील होता रहा है। लेकिन कामयाबी उन्हीं को मिली है जो लोग असफलताओं के बाद भी अपने स्टैंड पर जमे रहें, हौसले बुलंद रखें, रणनीति में बदलाव लाएं और उपलब्धियों के सुराग खोजते रहे।

इस एक उद्धरण की रोशनी में मौजूदा हालात की अगर समीक्षा की जाए तो ये बात अच्छी तरह से सामने आ जाती है की इस समय जिस तरसह देश की 6 राजनैतिक पार्टिया जनतादल (यूनाइटेड), रजद ,समाजवादी पार्टी, इंडियन नेशनल लोकदल, जनतादल (सेक्युलर), समाज वादी जनता पार्टी, सब मिलकर एक नयी पार्टी के गठन का एलान करती नज़र आ रही है। दरअसल ये उसी विफलता की पहचान है जिसकी वजह कल आप नहींं बालकः यह खुद थे। एक जमाने में यह सभी दल और उसके प्रमुख “जनतादल” का हिस्सा रहे हैं। जो वर्ष 1988 में अस्तित्व में आया था। उसी हिसाब से इसे ‘जनता परिवार’ के नाम से भी जाना जाता है।

1988 में जनतादल कांग्रेस के खिलाफ अस्तित्व में आया था, तब इसे भाजपा का साथ मिला था। लेकिन आज उसी जनता-परीवार के गठबंधन की सभी कोशिशें भाजपा के खिलाफ हैं और कांग्रेस का साथ मिलता दिखाई दे रहा है। इसके साथ ही जहां भारतीय राजनीति का एक दौर पूरा हो रहा है, वहीं एक नए युग की शुरुआत भी हो चुकी है। अस्तित्व को बनाए रखने के प्रयास और संघर्ष में “जनता-परिवार” का बहुत हद तक गठन हो चुका है। इसके बावजूद देखना यह है कि इसको तोड़ने, और विफल बनाने में लगे लोग कहां तक सफल होते हैं। वहीं दूसरी ओर यह भी देखना होगा कि आप अपनी पहचान और मददों को उठाने में किस हद तक कामयाब होते हैं। इसके लिए जहां आपकी व्यावहारिक भागीदारी आवश्यक है वहीं रंग,नस्ल और जाति,समुदाय से ऊपर उठकर मानवीय बुन्यादों पर सच्चे शुभचिंतक के रूप देश और देशवासियों के लिए मैदान में आना होगा।

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  1. बजाय ”जनता परिवार” कहने के इस संघठन को केवल ”परिवार ”खा जाए तो कैसा लगेगा?यदि इसे महागठबंधन खा जाए और इसमें से लालू,मुलायम और देवगौड़ा के परिवार को सादर करबद्ध निवेदन कर बिठा जाय तो फिर न तो जनता दिखेगी और न गठबंधन दिखेगा. यह कहीं से कही तक दल है कहाँ/पिता अध्यक्ष,बेटा मुख्यमंत्री। बहु सांसद, भाई सांसद, भतीजा सांसद, एक अन्य महाशय स्वयं भु.पु। मुख्यमंत्री उनकी पत्नी भी भुपु मुख्यम्नत्री साला नेता,बेटी नेता, /तो भाई यह तो दो तीन कुनबे हैं। दाल कहाँ हैं ?दल हो सकते हैं बशर्ते की परिवार न हो।

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