न्यायालयों की शुचिता और लोकतंत्र

वर्ष 2017 के नवंबर में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायपालिका में भ्रष्टाचार पर अपनी कड़ी आपत्ति व्यक्त की थी । सर्वोच्च न्यायालय ने तब 5 सदस्यीय पीठ का निर्माण कर भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान छेड़ने का सुखद संकेत दिया था । जिससे लगा था कि माननीय न्यायालय भ्रष्टाचार की दलदल को न्यायपालिका से साफ कर देना चाहता है , पर वादों के भार में पहले से ही दबे हुए सर्वोच्च न्यायालय की उस टिप्पणी का या कड़ाई का कोई सकारात्मक और ठोस परिणाम नहीं निकला । इसका कारण यही है कि भारत की व्यवस्था हाथी की चमड़ी की तरह हो चुकी है । जिसमें अंकुश उतनी ही देर प्रभाव करता है जितनी देर वह भीतर घुसा रहता है । जैसे ही वह निकलता है वैसे ही हाथीतंत्र या व्यवस्था अपनी पुरानी चाल में आज जाता है।
कुछ वर्ष पहले की बात है जब वरिष्ठ अधिवक्ता रहे शांतिभूषण ने न्यायालय के सामने ही यह आरोप लगाया था कि देश के कम से कम 8 प्रधान न्यायाधीश भ्रष्ट थे । यह अच्छी बात थी कि इस बारे में न्यायालय ने शांतिभूषण की भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए उनकी बात को ध्यानपूर्वक और पूरी संवेदनशीलता दिखाते हुए सुना ,अन्यथा न्यायालय यह भी कह सकता था कि ऐसा कहकर शांतिभूषण ने न्यायालय की अवमानना की है । इसका अर्थ था कि न्यायालय शांतिभूषण की बात के प्रति गंभीर था और उसे यह भी पता था कि दाल में कहीं ना कहीं काला तो अवश्य है । 
यह किसी भी देश और समाज के लिए लज्जास्पद होता है कि उसके नागरिकों को न्याय भी सिफारिश के साथ-साथ रिश्वत देकर मिले ।यद्यपि रिश्वत देकर न्याय पाने को भी लोगों ने सहन कर लिया था , पर जब रिश्वत देकर भी न्याय न मिले तब आप क्या करेंगे ? भारत के निम्न न्यायालयों में यही तो हो रहा है। वहां चोर और शाह दोनों से धन लेने की शिकायतों को आपने भली प्रकार सुना होगा । कभी न्यायालय चोर को जिताती है तो कभी शाह को जिता देती है । यह स्थिति सचमुच बहुत ही कष्टप्रद है । 2005 में भारत में भ्रष्टाचार के बारे में ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल और सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज ने मिलकर एक सर्वेक्षण कराया था । इस सर्वेक्षण में 59% लोगों ने अधिवक्ताओं 5% ने जजों और 30% लोगों ने न्यायालय के कर्मचारियों को भी कभी न कभी रिश्वत का पैसा देकर अपना काम कराया था । शांतिभूषण के ऐसे आरोपों ने देश की कलई खोल दी थी कि यहां न्यायपालिका में भी सब कुछ अच्छा नहीं है । वह देश मर्यादाहीन हो जाता है जहां न्याय देने के कार्य में लगे लोग न्याय को ही बेचने लगे रहते हैं और देश में अराजकता फैलाकर लोगों को लोकविरुद्ध और मर्यादा विरुद्ध आचरण करने के लिए प्रेरित करते हैं । क्योंकि न्याय तब तक ही न्याय रहता है , जब तक वह बिना किसी पूर्वाग्रह के और बिना किसी राग द्वेष के दबाव रहित होकर दिया जाता है । न्याय को रिश्वत का पैसा जटिल और कुटिल बनाता है , जटिल और कुटिल न्याय क्रूर होता है ,और अन्याय से भी कहीं निम्नतम श्रेणी का होता है ।जटिलता , कुटिलता और क्रूरता से सृष्टि व्यवस्था पर प्रभाव पड़ता है । फलस्वरूप सारा सृष्टि चक्र ही जटिल और कुटिल हो उठता है ।
जिस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायपालिका में भ्रष्टाचार को लेकर 5 सदस्य पीठ का निर्माण कर इस बीमारी के न्यायपालिका में प्रवेश पर अपनी कड़ी आपत्ति व्यक्त की थी , उसमें लखनऊ के एक प्रतिबंधित मेडिकल कॉलेज के प्रबंधकों को एक न्यायाधीश द्वारा यह आश्वासन दिया गया था कि वह सर्वोच्च न्यायालय से अपने अनुकूल आदेश करा पाने में सक्षम और समर्थ है । इस प्रकार ऐसा कहकर उक्त न्यायाधीश महोदय ने भारत के सर्वोच्च न्याय मंदिर की पवित्रता और गंभीरता को भंग करते हुए उसकी गरिमा पर कुठाराघात किया था । तब न्यायालय ने 5 सदस्यीय पीठ का गठन कर न्यायालयों में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की दिशा में कठोर कदम उठाया ।
भारत में यह भी सच है कि भारत के लोग स्वभाव से न्याय करने वालों को परंपरागत रूप से ईश्वर के समक्ष मानते आए हैं और वे ईश्वर के प्रति कभी भी कठोर या आस्थाहीन नहीं हो सकते । न्यायालय में रहकर जो लोग अपनी सीट पर बैठकर भ्रष्टाचार करते हैं उन्हें नहीं पता होता कि वह ऐसा करके कितना अनैतिक कृत्य कर डालते हैं , क्योंकि सब ओर से निराश होकर ही व्यक्ति न्याय की आशा में न्यायालय की ओर चलता है और जब वहां पर वह मुकदमों की आवाज लगाने के लिए भी संबंधित व्यक्ति को पेशी देता है या तिथि नियत कराने के लिए पेशकार को पेशी देता है तो उसका दिल टूट जाता है । वह न्यायालय की ऐसी अवस्था को देखकर दंग रह जाता है । 
प्रसंग वश यह उल्लेखनीय हो जाता है कि पिछली शताब्दी के 1980 के दशक में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए इंदौर नगर निगम के 6 अभियंताओं को भ्रष्टाचार के मामले में निलंबित कर उन्हें गिरफ्तार करा दिया था । अभियंता जेल भेज दिए गए । उक्त न्यायाधीश के इस प्रकार के आचरण की मीडिया जगत में भी जमकर प्रशंसा की गई थी । परंतु जब उक्त न्यायाधीश महोदय अपनी सेवानिवृत्ति के निकट आए तो उन्होंने उनको साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया था । तब लोगों को लगा कि सारा नाटक क्यों रचा गया था और साथ ही यह भी कि न्यायाधीश महोदय का उक्त अभियंताओं पर क्रोधित होकर महात्मा गांधी ,रविदास टैगोर , शेक्सपियर ,वर्ड्सवर्थ आदि के जीवन के इमानदारी भरे प्रवचनों को सुनाने का अर्थ क्या था ? न्यायाधीश ने सरकारी जांच एजेंसी को भी बहुत खरी खोटी सुनाई थी कि उसने कोई ठोस साक्ष्य अभियंताओं के लिए नहीं दिया है ।
अब इस समय भी न्यायपालिका में भीतरी तनाव है। यह तनाव बार बार दिखाई देता रहता है । सरकार और न्यायपालिका में भी कॉलेजियम की व्यवस्था को लेकर परस्पर मतभेद है , और एक बार तोदेश का विपक्ष देश के मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध महाभियोग चलाने तक की स्थिति में पहुंच गया था । यह सारी बातें कुछ संकेत दे रही है कि व्यवस्था में कहीं ना कहीं दोष है । जहां तक सरकार और न्यायपालिका के संबंधों की बात है तो यह संविधान की सीमाओं के भीतर रहकर मर्यादित और संतुलित रहकर ही चलने चाहिए । विपक्ष की अपनी सीमाओं में रहना चाहिए । 
आवश्यकता सर्वजनिक जीवन में शुचिता लाने की है । बिना शुचिता के व्यवस्था की पवित्रता का बना रहना असंभव है । यह बहुत ही दुखद है कि भारत की न्याय व्यवस्था पर भी प्रश्नचिन्ह लगाते हुए कुछ लिखा जाए । यह कम बात नही है कि देश के न्याय मंदिर के चार पुजारी बाहर निकले और उन्होंने न्याय मंदिर की भीतरी व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए प्रेस कॉन्फ्रेंस कर डाली । साथ ही साथ यह भी ध्यान रखने वाली बात है कि भारत के न्याय मंदिर के पुजारी किसी भी संप्रदाय से प्रेरित होकर न तो कुछ बोले और न कुछ लिखेंगे ।उन्हें ईश्वर की व्यवस्था को लागू करने का माध्यम बनकर अपने आचरण और व्यवहार की शुचिता का परिचय देना चाहिए । न्याय मंदिर मानवता के संदेश वाहक होते हैं , यद्यपि सभी मंदिर ऐसे ही होते हैं । पर न्याय मंदिर तो और भी अधिक मानवतावाद के पोषक होते हैं , क्योंकि वहां बहुत ही ऊंची और पवित्र आत्मा बैठी होगी , ऐसी मान्यता समाज में होती है ।देश की संस्कृति और धर्म को अर्थात मानवतावाद को उजाड़ने वालों के प्रति भी न्यायालय को कठोर होना चाहिए , उनके प्रति किसी भी प्रकार का नरम दृष्टिकोण देश के लिए घातक हो सकता है । हमें याद रखना चाहिए कि देश का न्याय मंदिर सारे देश की आशाओं और अपेक्षाओं का एकमात्र आश्रय स्थल होता है । सर्वोच्च न्यायालय ने इंदौर नगर निगम के मामले में शेक्सपियर को उधृत करने वाले न्यायाधीशों को संकेत में बहुत कुछ बताया था ।उसने कहा था कि शेक्सपियर ने अपने नाटक हैमलेट में कहा है कि डेनमार्क राज्य में कुछ सड़ा हुआ है । 
सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसी ही टिप्पणी एक बार इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के आचरण को लेकर भी की थी । न्यायालय ने कहा था कि इस उच्च न्यायालय के कई न्यायाधीशों के बेटे और संबंधी वहां वकालत कर रहे हैं और वकालत के कुछ वर्षों में ही वे करोड़पति हो गए हैं । उनके पास भव्य भवन और महंगी गाड़ियां आ गई है । वह बहुत ही ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जी रहे हैं । जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने सर्वोच्च न्यायालय की उक्त कठोर टिप्पणियों को हटाने के लिए न्यायालय के समक्ष समीक्षा याचिका दायर की तो सर्वोच्च न्यायालय ने 10 दिसंबर 2010 को इस याचिका को भी ठुकरा दिया था । इतना ही नहीं न्यायाधीशों को कड़ा संदेश भी दिया था कि देश की जनता बुद्धिमान है , वह सब जानती है कि कौन जज भ्रष्ट है और कौन ईमानदार है ? सचमुच हमारे लोकतंत्र के लिए न्याय मंदिरों की शुचिता बनाए रखना समकालीन इतिहास की सबसे बड़ी चुनौती है । यह अलग बात है कि हम इस ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं।

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