सवाल ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ की सीमाओं के निर्धारण का?

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तनवीर जाफरी

अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन मनुष्य की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सबसे प्रबल पक्षधर है। होना भी चाहिए। निश्चित रूप से दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति को अपनी बात को व्यक्त करने का अधिकार होना चाहिए। इसकी स्वतंत्रता होनी चाहिए। परंतु ठीक इसके विपरीत आए दिन दुनिया के किसी न किसी कोने से ऐसे समाचार आते रहते हैं जिनसे यह पता चलता है कि अमुक देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटने का प्रयास किया जा रहा है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर ही 30सितंबर 2005 में डेनमार्क से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र जीलैंड पोसटेन में एक कार्टूनिस्ट द्वारा इस्लाम धर्म के पैगम्बर हज़रत मोहम्मद के आपत्तिजनक कार्टून प्रकाशित किए गए। इस प्रकाशन की प्रतिक्रियास्वरूप दुनिया के अधिकांश मुस्लिम बाहुल्य देशों में उबाल आ गया। भारी हिंसा हुई तथा जान व माल की भारी क्षति हुई। यदि डेनमार्क के अ$खबार जीलैंड पोसटेन में प्रकाशित कार्टून कार्टूनिस्ट की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक उदाहरण था फिर आखिर उस दौरान हुई व्यापक हिंसा एवं विरोध प्रदर्शनों का क्या औचित्य था?

इसी प्रकार सलमान रुश्दी द्वारा लिखी गई ‘द सेटेनिक वर्सेस’ पुस्तक को लेकर मचा बवाल थमने का नाम नहीं ले रहा है। शायद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का लाभ उठाते हुए ही सलमान रुश्दी ने इस्लाम धर्म संबंधी कई बातों व कई चरित्रों को अपनी सोच व समझ के दृष्टिगत् प्रस्तुत किया होगा। फिर आखिर उनके विरुद्ध ईरान द्वारा जारी किए गए मौत के फतवे का क्या औचित्य? उनके भारत आने की खबर पर उनके विरोध का क्या कारण? उनकी भारत आमद तो दूर उनकी वीडियो कांफ्रेसिंग तक न होने देने पर आमादा लोगों द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर आखिर इतना ज़बरदस्त प्रहार क्यों? तस्लीमा नसरीन के व्यक्तिगत् विचारों से किसी को क्यों बैर? तस्लीमा अपनी पुस्तकों में अथवा अपने आलेख में जिस प्रकार से चाहें अपने विचार व्यक्त करती रहें। आखिर वह भी तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हकदार हैं। परंतु उनपर भी हमला किया गया। पिछले दिनों कोलकाता में आयोजित हुए 36वें कोलकाता अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेले उनकी आत्मकथा पर आधारित सातवें संस्करण ‘निर्बासन’ नामक पुस्तक का विमोचन नहीं होने दिया गया। स्थानीय मुस्लिम संगठन मिली इत्तेहाद द्वारा इस कार्यक्रम का विरोध किया गया था। क्या तस्लीमा नसरीन को अपने विचार या अपनी जीवन व्यथा को अपने शब्दों में लिपिबद्ध करने या व्यक्त करने का कोई अधिकार नहीं है?

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटने के हमारे देश में और भी तमाम उदाहरण मिल सकते हैं। मिसाल के तौर पर मकबूल फिदा हुसैन द्वारा सरस्वती की बनाई गई पेंटिग को देश के एक अतिवादी वर्ग ने आपत्तिजनक पेंटिंग बताया। इस पेंटिंग को बनाने के बाद एम एफ हुसैन की चित्रशाला में तोडफ़ोड़ की गई व उन्हें जान से मारने की धमकियां दी गई। आखिरकार उन्हें देश छोडक़र जाना पड़ा। यहां तक कि वे अपनी जान पर खतरा मानते हुए भारत वापस नहीं लौटे और लंदन प्रवास के दौरान 95 वर्ष की आयु में 30 जून 2011 को उनका देहांत भी हो गया। भारत छोडऩे के बाद हुसैन ने कतर की नागरिकता भी ले ली थी। इसी प्रकार गुजरात दंगों पर आधारित गुजरात राज्य सरकार को आईना दिखाती हुई एक फिल्म परज़ानिया का अतिवादियों द्वारा जमकर विरोध किया गया था। अतिवादी ता$कतें नहीं चाहती थी कि गुजरात दंगों की सच्चाई समाज के सामने आए। और इसी प्रकार के अन्य कई विवादित मुद्दों को लेकर देश में कई बार टी वी चैनल के कार्यालयों,समाचार पत्र के दफ्तरों तथा संपादकों के घर व कार्यालयों पर भी आक्रमण व हिंसक प्रदर्शन हो चुके हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटने का आखिर यह कैसा प्रयास?

जनता पार्टी के नेता सुब्रमणियम स्वामी द्वारा पिछले दिनों एक लेख लिखा गया जिसमें उन्होंने भारतीय मुसलमानों को मतदान से वंचित किए जाने जैसा अपना ‘बेशकीमती’ मत पूरी स्वतंत्रता से अभिव्यक्त किया। स्वामी के ऐसे ‘काबिलेकद्र’ विचारों का भारत में तो उतना विरोध सुनने को नहीं मिला जितना कि हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में देखा गया। विश्वविद्यालय ने स्वामी के उन विचारों को विश्वविद्यालय के स्तर व नीतियों के विरुद्ध मानते हुए उन्हें विश्वविद्यालय के प्रो$फेसर के पद से हटा दिया। यही नहीं विश्वविद्यालय व इसके पूर्व व वर्तमान छात्रों के संगठन ने भी स्वामी के इस प्रकार के बयान को आपत्तिजनक व निंदनीय बताया। आ$िखर क्यों? यह भी तो स्वामी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मामला था। इसमें आपत्ति किस बात की? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार की ताज़ातरीन घटना पिछले दिनों पुणे के सिम्बियॉसिस कॉलेज ऑफ आर्ट एंड कॉमर्स में उस समय घटी जबकि कश्मीरी मूल के फिल्म निर्माता संजय काक कश्मीर विषय पर आधारित कश्मीर की आवाज़ नामक एक तीन दिवसीय कार्यक्रम में अपनी ‘जश्र-ए-आज़ादी’ नामक एक डाक्यूमेंट्री फिल्म प्रदर्शित करना चाह रहे थे। संजय काक ने अपनी फिल्म में हिंसाग्रस्त कश्मीर के लोगों के लिए आज़ादी के महत्व का चित्रण करने का प्रयास किया है। यह फिल्म कई सच्ची घटनाओं व वास्तविक दृश्यों पर आधारित है। इस तीन दिवसीय सम्मेलन में भारत सरकार की ओर से कश्मीर मामले में मध्यस्थता कर रहे दिलीप पडगांवकर भी शिरकत करने वाले थे। परंतु अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के विरोध के चलते इस फिल्म के प्रदर्शन तथा इस तीन दिवसीय सम्मेलन दोनों को ही रोक दिया गया। संजय काक का कहना था कि यह कार्यक्रम व फिल्म जश्र-ए-आज़ादी दोनों ही से देश के दूसरे भागों के लोगों को कश्मीर की वास्तविक स्थिति का पता चल सकेगा। परंतु कश्मीरी फिल्म निर्माता द्वारा कश्मीर की वास्तविकताओं के फिल्मांकन को नज़रअंदाज़ करते हुए कश्मीर से दूर पुणे में बैठे अतिवादी लोगों द्वारा इसे आपत्तिजनक बताया जाना वास्तव में आश्चर्यजनक है। इतना ही नहीं फिल्म प्रदर्शन का विरोध करने वालों द्वारा यह भी ‘उपदेश’ दिया गया कि इस फिल्म में यदि कश्मीर में फौजियों के योगदान पर चर्चा की गई होती तो ठीक था। गोया फिल्म निर्माताओं को अब किसी प्रकार के विरोध से बचने के लिए अतिवादी संगठनों की सलाह पर फिल्म बनानी चाहिए?शायद ऐसी ही विचारधारा के कुछ युवकों द्वारा प्रशांत भूषण पर भी इसी लिए हमला किया था क्योंकि उन्होंने भी कश्मीर के विषय में कुछ ऐसे विचार सार्वजनिक रूप से व्यक्त किए थे जो उन युवकों को नहीं भाए।

कुल मिलाकर उपरोक्त सभी उदाहरण हमें निश्चित रूप से यह सोचने के लिए विवश करते हैं कि आखिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है क्या? इसकी सीमाएं क्या हैं और यदि किसी प्रकार के विचार, कथन, वक्तव्य या आलेख किसी के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का विषय हैं तो वही विषय किसी दूसरे व्यक्ति,समाज, समुदाय या संगठन के लिए आपत्ति का विषय आखिर क्यों हैं। दरअसलअभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की ही तरह मानवीय संवेदनाओं से जुड़ा एक दूसरा ऐसा ही पहलू है किसी व्यक्ति,वर्ग समाज या समुदाय के लोगों की भावनाओं को आहत न होने देना। यह विषय भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से किसी भी $कीमत पर कम मूल्य नहीं रखता। आम लोगों की भावनाएं कहीं अपने धर्म से जुड़ी हैं तो कहीं जाति से, कहीं आस्था से तो कहीं विश्वास से। कहीं देश से, कहीं राज्य से तो कहीं भाषा से। समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपनी धार्मिक, विरासत में मिली मान्यताओं,इतिहास, रीति-रिवाज, परंपरा आदि से बंधा हुआ है। और विरासत में मिली ऐसी चीज़ों के प्रति लगभग प्रत्येक व्यक्ति पूरी तरह गंभीर व संवेदनशील है। दूसरे लोगों की नज़र में ऐसे व्यक्ति भले ही संकुचित सोच रखने वाले, सीमित विचारों वाले, असहिष्णुशील या तंगनज़र क्यों न समझे जाएं परंतु अतिवादी विचारधारा के ऐसे लोग अपनी इन्ही सीमाओं को व अपने इन्हीं सीमित विचारों को ही सर्वोच्च,सर्वात्तम तथा सही मानते व समझते हैं। ऐसा समाज इस प्रकार के संवेदनशील विषयों पर किसी प्रकार की बहस,नुक्ताचीनी, पुनरावलोकन या पुनर्समीक्षा की गुंजाईश ही महसूस नहीं करता

ज़ाहिर है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की राह पर चलने वालों तथा इसका विरोध करने वालों में जहां कई बार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मानवीय अधिकारों का सहारा लेकर दूसरों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने जैसा गैरजि़म्मेदाराना काम किया जाता है वहीं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटने वालों द्वारा भी कई बार वास्तव में अपनी सीमाओं का घोर उल्लंघन करते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का खुलेआम हनन भी किया जाता है। परंतु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व इसका गला घोंटने की दशकों से चली आ रही उहापोह के मध्य आज तक यह निर्धारित नहीं किया जा सका है कि आखिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाएं क्या हों और इन सीमाओं का निर्धारण ऐसे किन लोगों के द्वारा किया जाए जोकि देश, दुनिया व समाज के सभी वर्गों के लोगों द्वारा सर्वस्वीकार्य हों? निश्चित रूप से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विषय पर छिडऩे वाली बहस,विरोध तथा हिंसा को भविष्य में टालने का एक यही उपाय है कि इनकी सीमाओं का निर्धारण किया जाए। परंतु प्रश्र यह भी है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाओं का निर्धारण करना क्या इतना आसान होगा?

5 COMMENTS

  1. कट्टर लोगों के कारण अभिव्यक्ति की असीमित आज़ादी अभी नहीं मिल सकती क्योंकि सरकार भी इनके दबाव में आ जाती हैं

  2. आलोचना और विरोध करना अलग बात है लेकिन अभिव्यक्ति के नाम पर भावनाओ को ठेस पहुँचाना ठीक नहीं

  3. जब आप कट्टरता पर प्रहार कर रहे होते हैं तो दोनों तरफ की कट्टरता पर बराबर प्रहार करना चाहिए…पर आपने दो प्यार भरे शब्द मुस्लिमो को बोल कर बन्दूक का मुहं हिन्दुवों की तरफ कर दिया जबकि हिन्दू कितने भी उग्र हुए हों ऐसी घटनावों पर न तो किसी की हत्या की है, न ही हाथ काटे हैं, और न ही कोई फ़तवा ही दिया है, जबकि हिन्दू देवी देवतावो का अक्सर कहीं न कहीं अपमान किया ही जाता रहता है…आपने इस लेख में हिन्दुवों के प्रति सिर्फ अपने पूर्वाग्रह का ही प्रदर्शन किया है….

  4. तनवीर जाफरी जी आपने एक बहुत ही संवेदनशील विषय को विचार के लिए चुना है.अगर उन लोगों के अनुसार चला जाये जिन्हें सलमान रुश्दीसे चिढ है या फिर तसलीमा नसरीन चिढ है या उस कार्टूनिस्ट से चिढ है जिसने पैगम्बर का कार्टून बनाया था,तो .न जाने वे फ़िदा हुसैन से चिढ़ने वाले के लिए वे क्या कहेंगे?या फिर फ़िदा हुसैन से चिढ़ने वाले दूसरे को क्या कहेंगे?वाटर और फायर फिल्म भी इसी श्रेणी में आते हैं या थोड़ा अलग कहा जा सकता है.इसी तरह की अनेको घटनाएं इसमे जोड़ी जा सकती हैं.इससे यह जाहिर होता है कि आपकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी सीमित है,पर इसकी सीमा कौन तय करेगा?अब रहा दूसरे की भावनाओं के ठेस पहुँचने या पहुँचाने का प्रश्न तोइसकी सीमा निर्धारण भी आसान नहीं है.कोई भी नेता या समाज का ऐसा व्यक्ति जिसे लोग जानते हैं ,अगर उसके विरुद्ध कुछ कहा जाता है तो उसको और उसके अनुयाइयों की भावनाओं को तो ठेस पहुँचता ही है तो छोड़ दीजिये किसी की भी आलोचना करना या किसी के भी विरुद्ध बोलना. अब बता इए कि इसका सीमा निर्धारण कैसे किया जाए?

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