भारतीय भाषाएँ और छात्रों के मानवीय अधिकारों का प्रश्न- डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

 

पिछले दिनों उत्तराखंड के नगर रुड़की में स्थित आई.आई.टी (भारतीय प्राद्यौगिकी संस्थान ) ने अपने पचास से भी ज़्यादा छात्रों को बाहर का दरवाज़ा दिखा दिया । संस्थान का कहना है कि ये छात्र पढ़ाई लिखाई में बहुत पिछड़े हुये हैं । यहाँ का कोर्स पूरा कर पाना इन छात्रों के बस का काम नहीं है । ये छात्र अपनी फ़रियाद लेकर राज्य के उच्च न्यायालय के पास भी गये , लेकिन न्यायालय ने भी इन छात्रों को कोई राहत नहीं दी । ( वैसे अब संस्थान ने इन छात्रों को दयावश एक मौक़ा परीक्षा पास कर लेने के लिये और दे दिया है) अब प्रश्न यह है कि क्या ये सभी छात्र पढ़ने लिखने में सचमुच इतने निक्कमे हैं , जितना संस्थान बता रहा है ? संस्थान के इस तर्क को प्रथम दृष्ट्या तो स्वीकार नहीं किया जा सकता । क्योंकि यह संस्थान अपने यहाँ किसी को बिना बौद्धिक जाँच पड़ताल के प्रवेश नहीं दे देता । प्रवेश से पहले यह ठोंक पीट कर स्वयं जांचता है कि छात्र योग्य है या नहीं ? यदि योग्य है तभी उसे अन्दर आने दिया जाता है । लेकिन कुछ महीने बाद संस्थान स्वयं ठोंक पीट कर लिये गये अपने छात्रों को अब अयोग्य और निक्कमे बता रहा है । किसी एक आध छात्र के बारे में संस्थान निकम्मा होने का फ़तवा जारी करता तो बात समझ आ सकती थी । असली सिक्कों के बीच धोखे से एक आध खोटा सिक्का भी चला ही जाता है । परन्तु यहाँ तो संस्थान बता रहा है कि पूरी गुल्लक ही खोटे सिक्कों से भरी पड़ी है ।
लेकिन उपर के तर्कों के बल पर ही संस्थान को कटघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता । क्योंकि संस्थान के पास तो पुख़्ता प्रमाण है । इन छात्रों को पढ़ाने के बाद बार बार परीक्षा ली गई । लेकिन परिणाम हर बार एक ही आया । ये सभी languageपरीक्षा में बुरी तरह फ़ेल हो गये । संस्थान का यही तर्क सभी पर भारी पड़ता है । जब छात्र परीक्षा में पास ही न हो पाये तो संस्थान बेचारा क्या करे ? संस्थान ने इन छात्रों को प्रवेश दिया , इससे ही यह सिद्ध होता है कि ये छात्र योग्य है । लेकिन ये छात्र बार बार फ़ेल हो रहे हैं , इससे यह सिद्ध होता है कि ये छात्र अयोग्य हैं । इन दोनों ध्रुवों के बीच की पहेली को सुलझाना जरुरी है ।
इन छात्रों का शैक्षिक रिकार्ड तो बहुत बढ़िया है । लेकिन इनमें से ज़्यादा की पढ़ाई लिखाई हिन्दी माध्यम से हुई है । दसवीं बाहरवीं तक छात्रों को आम तौर पर किसी भी भारतीय भाषा में पढ़ने लिखने की सुविधा प्राप्त है । इस सुविधा का लाभ यह हुआ कि गाँव के , पिछड़ी जातियों के , सामान्य परिवारों के बच्चे भी अपनी योग्यता का प्रदर्शन करने लगे हैं और ताल ठोंक कर उन लोगों के साथ आकर खड़े हो जाते हैं जिन्होंने सभी सुविधाओं का उपभोग करते हुये अंग्रेज़ी भाषा के माध्यम से पढ़ाई की है । कबीर ने कहा भी है,”मोल करो तलवार का पड़ा रहन दो म्यान”। भाषा के म्यान को परे रख कर जब केवल ज्ञान का मोल किया गया था तो ये छात्र भी दूसरों के समकक्ष आ खड़े हुये थे । लेकिन दुर्भाग्य से रुड़की के इस संस्थान में दाख़िल हो जाने के उपरान्त , वहाँ फिर म्यान को लेकर ही चर्चा होने लगी । जिस भाषा में संस्थान इन लड़कों को इंजीनियरिंग पढ़ा रहा था , वह भाषा इन छात्रों के पल्ले नहीं पड़ रही थी और जिस भाषा में ये छात्र इंजीनियरिंग समझना चाहते थे , उस भाषा में न पढ़ाने की अपनी ज़िद पर संस्थान अडा हुआ था । किस भाषा में पढ़ना है, इस विषय पर निर्णय लेने का अवसर आता है , तो हमारे देश में निर्णय करने की ताक़त संस्थान के पास है , छात्र के पास नहीं । यह हमारी शिक्षा पद्धति की आतंरिक विसंगति है जिसने न जाने कितने क्षमतावान छात्रों का जीवन लील लिया है । उनकी बौद्धिक क्षमताओं को कुंठित कर दिया है । जब किस भाषा में छात्र को पढ़ना है , इतना ही नहीं बल्कि किस भाषा में उत्तर देना है , इसका निर्णय संस्थान को करना था , तो उसका जो परिणाम निकल सकता है , वही निकला । छात्र लगातार फ़ेल होते गये और संस्थान अपनी जीत के जश्न मनाता रहा । कई समाजों में जीत के जश्न पर बलि देने की परम्परा है । इसलिये संस्थान ने अपनी जीत के अनुष्ठान में इन छात्रों को बाहर निकाल नर बलि देने का कर्मकाण्ड भी पूरा कर लिया ।
इस नरबलि से बचने का इन छात्रों के पास एक ही रास्ता था कि वे उच्च न्यायालय में गुहार लगाते । लेकिन इन छात्रों के धैर्य और गुरुभक्ति की दाद देनी होगी कि न्यायालय के पास भी दया की भीख माँगने के लिये ही गये कि संस्थान हमें परीक्षा देने का एक और अवसर प्रदान कर दे । बस इतना ही । हम एक बार फिर संस्थान की भाषा में बोल पाने और लिख पाने में सक्षम बनने के लिये जी जान लगा देंगे । इन छात्रों ने ये नहीं कहा कि संस्थान ने अपने भीतर ही बीमारी के कीटाणु संभाल कर रखे गये हैं , जो प्रतिभावान छात्रों को भी एक आध सत्र में ही पंगु कर देते हैं । उन में हीन भावना भर देते हैं जिसके कारण वे अपनी बौद्धिक क्षमताओं के अनुरूप जीवन में लम्बी छलाँग लगाने में नकारा हो जाते हैं । न्याय तो अन्धा होता है । उसने संस्थान के पक्ष में ही फ़ैसला देना था । उसके लिये निर्णय करने के लिये यह विषय है ही नहीं कि छात्र को अपनी भाषा में पढ़ने लिखने का अधिकार है या नहीं । उसके लिये देखने का विषय केवल इतना ही है कि संस्थान के मापदंडों पर छात्र पूरे उतरते हैं या नहीं ? जब अलग बात है कि ये मापदंड उन विदेशी साम्राज्यवादी शासकों ने अपने हितों के लिये निर्धारित किये थे , जिन्होंने दो सौ साल इस देश पर राज किया और अब उन्हें यहाँ से गये भी सात दशक हो गये हैं । जैसा कि मैंने उपर लिखा है जब छात्र सब जगह से हार गये तब संस्थान ने तरस खाकर उन्हें परीक्षा उत्तीर्ण करने का एक और अवसर दे दिया है । लेकिन जिन कारणों से ये प्रतिभाशाली छात्र फ़ेल हो रहे थे , उन कारणों को संस्थान ने बदलना तो दूर , उन पर ग़ौर करना भी उचित नहीं समझा ।
अध्यापन का सबसे उत्तम तरीक़ा अध्यापक की सम्प्रेषणियता है । अध्यापक के पास जो ज्ञान है , वह उसको ठीक तरीक़े से अपने छात्र तक पहुँचा दे । इस काम के लिये भाषा माध्यम या साधन का काम करती है । ज़ाहिर है अध्यापक की भाषा वही होनी चाहिये जो उसके शिष्यों की भाषा हो । यदि शिष्य और गुरु की भाषा अलग अलग होगी तो ज्ञान सम्प्रेषण का प्रवाह अवरुद्ध हो जायेगा । रुडकी का यह संस्थान राजकीय संस्थान है । वह आम आदमी के पैसे से चलता है । उसी आम आदमी के पैसे से जिसकी भाषा को संस्थान के प्रवेश द्वार पर ही रोक दिया गया है । आम आदमी से संस्थान को चलाने के लिये पैसा तो लिया जा रहा है , लेकिन उसे उसकी भाषा में पढ़ाने को यह संस्थान तैयार नहीं है ।
संस्थान में अंग्रेज़ी भाषा में ही पढ़ाये जाने की नीति के पक्षधर यहाँ एक तर्क दे सकते हैं कि संविधान की सूची में तो अनेक भाषाओं को दर्ज किया गया है , इसलिये कल कोई छात्र आकर कह सकता है कि उसे तमिल में पढ़ाया जाये , दूसरा कह सकता है मुझे पंजाबी में पढ़ाया जाये , तीसरा हिन्दी की माँग करेगा और चौथा असमिया की । इस प्रकार तो संस्थान में अराजकता फैल जायेगी । उपर से देखने पर यह तर्क भारी भरकम लगता है । इसके नीचे बाक़ी सारी बहस दब सकती है । लेकिन यह तर्क उपर से जितना भारी दिखाई देता है , भीतर से उतना ही खोखला है । किसी भी राजकीय संस्थान को दो भाषाओं में पढ़ने की अनुमति तो देनी ही होगी । पहले उस प्रदेश की भाषा जिस में संस्थान स्थित है और दूसरा हिन्दी , क्योंकि वह संविधान के अनुसार राज भाषा है । उदाहरण के लिये जो भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान तमिलनाडु में है , उसे तमिल और हिन्दी में पढ़ने पढ़ाने का अधिकार तो देना ही होगा । इसके अतिरिक्त वह जितनी ज़्यादा भाषाओं में अध्यापन की सुविधा प्रदान कर सकता है , वह उसकी उदारता मानी जायेगी । रुड़की का यह संस्थान हिन्दी भाषी प्रदेश उत्तराखंड में स्थित है । अत यहाँ तो छात्रों को हिन्दी में पढ़ने लिखने का और भी ज़्यादा अधिकार है ।
कुछ अति बुद्धिजीवियों ने छात्रों की जाति तलाशना शुरु कर दिया है । अपनी तलाश में उन्होंने पाया कि अधिकांश छात्र अनुसूचित जातियों के हैं । बस , उन्होंने अपना वही पुराना राग अलापना शुरु कर दिया । अनुसूचित जातियों के छात्रों से अन्याय । और जो लोग अनुसूचित जाति के छात्रों से खार खाए रहते हैं , उन्होंने भी मोर्चा संभाला । हमने तो पहले ही कहा था , जैसी शैली में , कि अनुसूचित जातियों के लिये सीटें आरक्षित करके , आई आई टी जैसे उच्च शिक्षा संस्थानों की गुणवत्ता मत बिगाड़ो । ये लोग यहाँ चल नहीं पायेंगे । दरअसल दोनों ही पक्ष उन्हीं साम्राज्यवादी हितों की रक्षा कर रहे , जिन हितों की रक्षा की ज़िम्मेदारी इन्हें गोरे प्रभु सौंप गये थे । इनका तरीक़ा अलग अलग है और उपर से परस्पर विरोधी भी मालूम पड़ता है , लेकिन उद्देश्य दोनों का एक समान ही है । मारों कहीं, लगे वहीं । अपनी भाषा में पढ़ने के अधिकार की तर्कसम्मत लड़ाई को इन्होंने जाति की लड़ाई में बदल दिया । ध्यान रहे आई आई टी में अनुसूचित जाति के जिन छात्रों को प्रवेश मिलता है , उनकी शैक्षिक उपलब्धियाँ किसी से कम नहीं होतीं । वे भी मुक़ाबले की लड़ाई जीत कर ही यहाँ तक आ पाते हैं । यह अलग बात है कि यहाँ उनकी घेराबन्दी की पूरी व्यवस्था है । वे कबड्डी में यानि अपनी भाषा में पढ़ने लिखने में माहिर हैं और संस्थान उनको क्रिकेट यानि अंग्रेज़ी की पिच पर घेर कर मारता है । संस्थान की इस तरकीब को भी स्वीकार किया जा सकता है यदि वह इस घटिया तरकीब में भी संस्थान के सभी छात्रों के साथ समान व्यवहार कर रहा होता । संस्थान यदि उन छात्रों की परीक्षा , जो दस जमा दो की अपनी कलास अंग्रेज़ी माध्यम से उत्तीर्ण करके आये हैं , हिन्दी भाषा के माध्यम से ले लेता और जो दस जमा दो की क्लास हिन्दी माध्यम से पास करके आये थे , उनकी परीक्षा अंग्रेज़ी माध्यम से लेता और फिर परिणाम घोषित करता तब पता चल जाता कि विपरीत भाषा में परीक्षा देने से परिणाम पर क्या असर पड़ता है । तब शायद पहले वर्ग के छात्र भी बार बार के प्रयास में पास न हो पाते । संस्थान खेल कोई भी खेले , लेकिन कम से कम खेल के नियम तो सभी छात्रों के लिये समान रखे । दुर्भाग्य से संस्थान यही नहीं कर पाया । नियम अंग्रेज़ी भाषा के पक्ष में है और खेलने के लिये बुलाया जा रहा है भारतीय भाषा के माध्यम से परीक्षा देने वालों को । इस पर भी धूर्तता यह कि उनके हार जाने पर उनकी योग्यता को लेकर ही प्रश्न खड़े किये जा रहे हैं ।
ऐसे मौक़ों पर बुद्धिजीवियों की एक और जमात नमूदार होती है । यह इस पूरी बहस को एक नया ऐंगल देती है । चेहरे पर गंभीरता इतनी है कि इनकी धूर्तता को कोई लाख चाहने पर भी सूंघ नहीं सकता । इनका कहना है कि उच्च शिक्षा भारतीय भाषाओं के माध्यम से दी ही नहीं जानी चाहिए , क्योंकि भारतीय भाषाओं में पढ़ने से छात्रों के भविष्य पर ग्रहण लग जाता है । उनको नौकरी कहाँ मिलेगी , यह सोच सोच कर इस जमात का हाज़मा ख़राब होने लगता है । छात्रों के भविष्य को ध्यान में रखते हुये यह जमात, उच्च शिक्षा , ख़ास कर विज्ञान के विषयों की , भारतीय भाषाओं में देने का निषेध करती हैं । आम आदमी इस जमात की मंशा को लेकर धोखा खा जाता है । वह सोचता है , ठीक ही कहते हैं । इस जमात का इसमें अपना स्वार्थ तो है नहीं । बेचारे हमारे भविष्य की ख़ातिर तो कह रहे हैं । लेकिन सच्चाई इसके विपरीत है । पहला प्रश्न तो यही है कि इनको , दूसरों के भविष्य को लेकर दूरगामी प्रभाव के निर्णय लेने का अधिकार किसने दिया ? कहीं ऐसा तो नहीं कि इनको चिन्ता अपने भविष्य की है और ये नाटक भारतीय भाषाओं में पढ़ने वाले छात्रों के भविष्य की चिन्ता का कर रहे हैं ? उच्च शिक्षा संस्थानों में पढ़ने के लिये जो भी छात्र आते हैं , वे बालिग़ या व्यस्क ही होते हैं । उनको हमारा संविधान सभी अधिकार देता है । वे सम्पत्ति ख़रीद और बेच सकते हैं । वे अपने जीवन का सबसे बड़ा निर्णय यानि अपनी इच्छा से विवाह करने का अधिकार रखते हैं । इतना ही नहीं , उन्हें वोट देने का अधिकार है । संविधान मानता है कि वे इतने मैच्योर हो चुके हैं कि अपनी इच्छा से सरकार बना सकें । परन्तु उन्हें यह निर्णय करने का अधिकार नहीं है कि उन्हें किस भाषा में परीक्षा देनी है । किस भाषा में पढ़ना है । यह निर्णय करने का अधिकार उनके पास नहीं है । उनका यह अधिकार , उन्हीं के भविष्य की दुहाई देकर छीना गया है । हमारा तर्क बहुत सीधा है । एक बालिग़ व्यक्ति को यदि लगता है कि उसका भविष्य अंग्रेज़ी के माध्यम से पढ़ने लिखने में है तो वह जरुर अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ेगा और लिखेगा । उसे ऐसा करने का पूरा अधिकार भी है और सरकार उसके इस अधिकार की रक्षा भी करती है । लेकिन दूसरे बालिग़ व्यक्ति को लगता है कि उसका भविष्य भारतीय भाषा में पढ़ने लिखने में है । उसे भी इसका अधिकार है । लेकिन दुर्भाग्य से सरकार और उस द्वारा संचालित शिक्षा संस्थान उसे उसका यह अधिकार देने को तैयार नहीं है । ज़ाहिर है कि उच्च शिक्षा संस्थानों में बालिग़ छात्रों के दो समूह बन गये हैं । पहला समूह अपना भविष्य अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ने लिखने में देखता और दूसरा समूह अपना भविष्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ने लिखने में देखता है । बालिग़ होने के कारण दोनों समूहों के छात्रों को यह निर्णय करने का अधिकार है । लेकिन उच्च शिक्षा संस्थान पहले समूह के इस अधिकार की तो रक्षा करते हैं लेकिन दूसरे समूह के छात्रों के अधिकार की रक्षा करने की बात तो दूर , वह उसका डंके की चोट पर हनन करते हैं । इसलिये मूल प्रश्न भारतीय भाषाओं के महत्व या उनकी उपादेयता का नहीं है , बल्कि यह प्रश्न एक ख़ास वर्ग के मानवीय अधिकारों के हनन का है ।
रुड़की का यह संस्थान अपने छात्रों से पहले तो , उनका यह मानवीय अधिकार या जन्म सिद्ध अधिकार छीनता है और उसके बाद उनको अयोग्य घोषित करता है । वह पहले उनके प्रकृति प्रदत्त कवच और कुंडल छीनता है और उसके बाद उनको निहत्था करके , उन्हें अयोग्य घोषित करता है । लेकिन आश्चर्य है कि इस बात पर तो सभी टीका टिप्पणी कर रहे हैं कि उन छात्रों को एक और अवसर दिया जाना चाहिये या नहीं , लेकिन मूल प्रश्न की ओर कोई ध्यान देने को तैयार नहीं है । यहाँ तक भी सिर धुना जा रहा है कि कैसे कैसे लोग अब आई आई टी तक में आने लगे हैं । भाव कुछ इसी प्रकार का है जैसे किसी अभिजात्य वर्ग के क्लब में कोई धोती पहने नंगे पैरों , देहात का आदमी घुस आया हो ।
किसी ने यह प्रश्न नहीं उठाया कि इन छात्रों के अपनी भाषा में पढ़ने के मानवीय अधिकारों की भी रक्षा की जानी चाहिये । राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग भी चुप्पी साध कर बैठ गया है । अपने देश में आतंकवादियों के मानवीय अधिकारों की रक्षा के लिये भी ख़ून पसीना एक कर देने वाले खूंखार बुद्धिजीवियों की भी एक जमात है । याकूब मेनन के मामले में , उसके मानवीय अधिकारों के लिये लड़ने वाले अली बाबा के ऐसे “चालीस”ने तो अपनी शिनाख्ती परेड भी इस देश के लोगों के सामने कर दी थी । लेकिन इस ग्रुप के मुँह पर , इन प्रतिभाशाली छात्रों के मानवीय अधिकारों का प्रश्न आने पर ताला क्यों लग गया ? यहाँ यह ध्यान रखने की भी जरुरत भी है कि रुड़की के संस्थान का नाम तो इस पूरी बहस में केवल एक प्रतीक के रुप में प्रयोग किया गया है । यह बहस और इसमें उठाये गये मुद्दे भारत के सभी उच्च शिक्षा संस्थानों पर समान रुप से लागू होते हैं ।
एक और समूह भी इस पूरी बहस में अपनी हिस्सेदारी संभाल कर बैठा है । यह समूह ,उपर से देखने पर उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रवेश ले लेने के बावजूद वहाँ के माहौल में स्वयं को मिसफ़िट पाते हुये , अनुत्तीर्ण हो गये छात्रों का सबसे बडा हितचिन्तक दिखाई देता है । लेकिन असल में यह समूह इन छात्रों का सबसे बड़ा शत्रु है । यह समूह सबसे पहले तो व्यवस्था और सरकार को लताड़ लगाता है कि वह भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ कर आये छात्रों को आई आई टी और ऐसी ही अन्य संस्थाओं में प्रवेश दे देने के बाद उनकी भूल जाती है । अब इन छात्रों की अंग्रेज़ी कमज़ोर है , इसीलिए तो ये छात्रों बाक़ी छात्रों के साथ चल नहीं पाते और फ़ेल हो जाते हैं । इसलिये शिक्षा संस्थानों को चाहिए कि वे ऐसे छात्रों को अंग्रेज़ी में अव्वल बनाने के भी प्रयास करें ताकि ये छात्र दूसरे छात्रों का मुक़ाबला कर सकें । इस समूह के इस दयानुमा सुझावों के पीछे वही धूर्तता छिपी हुई है कि यदि आई आई टी में पढ़ना है तो अंग्रेज़ी तो सीखनी ही पड़ेगी । हाँ तुम्हें सिखाने के अतिरिक्त प्रयास किये जा सकते हैं । कोई कम्बख़्त यह नहीं कहता कि जो छात्र भारतीय भाषाओं में पढ़ना चाहते हैं , उनके लिये वैसी ही व्यवस्था कर दी जायेगी , ताकि सारी समस्याओं का ही अन्त हो जाये ।

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  1. हिन्दी हित चिंतकों के लिए:
    (१) भाषा का बदलाव एक परम्परा का या नदी के प्रवाह की दिशा के बदलाव जैसा होता है। अनेक समांतर बढते अंगों को बदले बिना ऐसा एकांगी बदलाव संभव नहीं।
    (२) शिक्षाका माध्यम बदले। परीक्षाका भी माध्यम बदले। साथ साथ पाठ्य पुस्तकों की उपलब्धि भी हो; इत्यादि।
    (३) उसी प्रकार व्यावसायिक समवायों को भी अपने साक्षात्कार की विधा बदलनी होगी।
    (४) विश्व विद्यालय के प्रथम वर्ष से प्रारंभ कर एक एक वर्ष (जैसे प्रथम वर्ष का छात्र आगे बढता है) उसके साथ साथ बदलाव को आगे बढाना होगा।
    (५) इस बदलाव को होना ही चाहिए।
    (६) किसी कुशल चिन्तक समिति को नियुक्त किया जाए। जिस समिति में सारे भारत और भारत निष्ठा वाले अन्यान्य भाषाओं के विद्वान सदस्य लिए जाने चाहिए।
    (७) पर हर वर्चस्ववादी (हिन्दी के भी)भाषा के पुरस्कर्ता को दूर रखा जाए।
    (८)सुनियोजित विधि और विधा से, यह काम अवश्य सफल हो सकता है।
    (९) प्रारंभ में परिश्रम दूगुना करना होगा–कुछ अंग्रेज़ी भी और हिन्दी भी दोनों आत्मसात करनी होंगी।
    (१०)पारिभाषिक शब्दावली सारे भारत में अपवाद रहित, संस्कृत ही चल पाएगी।

    (११)जापान ने और इज़राएल ने दोनों का माध्यम बदलाव का इतिहास सारे हिन्दी के विद्वानों ने पढना चाहिए।

    (१२) ये “झट मँगनी पट विवाह” जैसे सुलझने वाली समस्या नहीं है। प्रारंभ हो, कुछ फल भी आप को ४-५ वर्षके पश्चात ही दिखेगा।
    (१३) इस टिप्पणीकार ने प्रायः ४० से ४५ आलेख भिन्न भिन्न दृष्टिकोणों पर इसी प्रवक्ता में डाले हैं।
    (१४) मैं स्वयं ऐसी समिति में विनामूल्य सहायक हो सकता हूँ।

    डॉ. मधुसूदन ( पारिभाषिक शब्दावली पर विशेष अध्ययन और लेखन)

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