खुदरा बाजार में एफ़डीआई यानी ………..

खुदरा बाजार में एफ़डीआई यानी संभोग से समाधि तक का हो गया जुगाड़

नवल किशोर कुमार

भारतीय राजनीति और अर्थ व्यवस्था के लिहाज से पिछले दस दिन बड़े महत्वपूर्ण रहे। हालांकि यह पहला अवसर नहीं था जब किसी अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह की आलोचना की। वास्तविकता यह है कि अनेक अवसरों पर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने डा सिंह को एक निष्क्रिय और रिमोट से चलने वाला प्रधानमंत्री बताया। लेकिन इसबार की बात अलग है। अलग इस मायने में कि अबतक निकम्मे कहे जाने वाले प्रधानमंत्री ने अंतरराष्ट्रीय स्तर की गुणवत्तायुक्त “संभोग से समाधि” तक का जुगाड़ करने का साहसी निर्णय ले ही लिया।

हालांकि इसे पश्चिमी मीडिया का दबाव कहा जाना ही सबसे बेहतर होगा। क्योंकि भारतीय मीडिया में छपी रिपोर्टों का कोई असर सरकारी तंत्र पर पड़ता हो, ऐसा क्म ही देखने को मिलता है। शनिवार को योजना आयोग की बैठक के दौरान अपने संबोधन में प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह ने स्पष्ट किया कि अभी हाल में सरकार ने जो भी फ़ैसले लिए हैं, वे देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिहाज से किया गया है। बकौल प्रधानमंत्री देश में वित्तीय घाटे की बढती दर को 2.9 फ़ीसदी तक सीमित रखने के लिहाज से केंद्र ने यह फ़ैसला लिया गया है।

खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी दिये जाने का विरोध होना अप्राकृतिक नहीं कहा जाना चाहिए। राजनीति में अपनी दुकानदारी चलाने के लिए राजनेताओं को मुद्दे चाहिए। वैसे इस मुद्दे ने भारत में विनिवेश प्रक्रिया का सफ़लतम उपयोग करने वाले एनडीए के नेताओं के द्वारा इसका विरोध किया जाना और तथाकथित तौर पर आम आदमी की वकालत करने वाले वामपंथियों को एक साझा मुद्दा दे दिया है। पूंजीवादी शक्तियों को संपोषित करने वाले दक्षिणपंथी दल मसलन भाजपा, जदयू, तृणमूल कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के द्वारा खुदरा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का विरोध किया जाने के अपने-अपने कारण हैं। जबकि वामपंथी पार्टियों के विरोध के अपने कारण। हालांकि दोनों का आशय करीब-करीब एक ही है।

यह साझा आशय है भारतीय बाजार में पीढी दर पीढी कब्जा जमाये व्यावसायिक वर्ग के हितों की रक्षा का। दरअसल ये राजनीतिक दल इस तथ्य को जानते हैं कि भारतीय बाजार में अभी भी खुदरा बाजार और इससे जुड़े कारोबारियों की संख्या और उनका प्रभाव कितना है। ताबड़तोड़ खुलासे हो रहे घोटालों के बावजूद मुद्दों की कमी का संकट झेलने वाले इन राजनीतिक दलों से यह अपेक्षा रखना कि वो भारतीय सामाजिक व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर रहने वाले वंचित तबके के हितों की रक्षा करने के संदर्भ में अपनी जुबान खोलें।

आज भारत के बाजार में बिचौलियों और नकली सामान बेचने वालों का दबदबा है। कोई मानक स्तर नहीं है। आम उपभोक्ता बिना यह जाने कि वह जिस वस्तु का उपयोग करने जा रहा है, उसकी वैधानिकता क्या है, उपयोग करने को मजबूर है। लेखा-जोखा की तकनीक और मानिटरिंग सिस्टम भी इतनी पुरानी हो चुकी है कि बड़े व्यापारियों के लिए किसी भी वस्तु की कीमत अपने हिसाब से घटाना-बढाना बायें हाथ के खेल से अधिक कुछ भी नहीं है।

अब सवाल यह उठता है कि क्या विपक्ष के द्वारा एफ़डीआई के विरोध को केवल यह मान लिया जाये कि वे ऐसा अपने देशी आकाओं के हितों की रक्षा के लिए कर रहे हैं? क्या वाकई में सबकुछ वैसा ही होगा जैसा प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह या वित्त मंत्री पी चिदम्बरम बता रहे हैं?

निश्चित तौर पर इन सवालों का जवाब नहीं ही है, क्योंकि देश ने वैश्वीकरण का दुष्परिणाम अबतक झेला है और संभवतः अब यह इसकी नियति बन चुकी है। कभी उत्पादनकर्ता कहलाने वाला उद्यमी आज की तारीख में किसी मल्टीनेशनल कंपनी के उत्पादों को बेचने के लिए दुकान खोलकर बैठा है। उपभोक्ता संस्कृति ने देश की उद्यमिता को समूल नष्ट कर दिया है। तकनीक और फ़ाइनांसियल बैक अप के बगैर भारतीय उद्यमियों से यह उम्मीद करना कि वे “वाल्मार्ट” जैसी कंपनियों का मुकाबला करेंगी, बेकार ही है।

अब यदि आम आदमी के लिहाज से देखें तो सबकुछ अच्छा ही अच्छा होने की उम्मीद है। बाघ और बकरी दोनों एक ही घाट पर एक ही क्वालिटी की पानी पीते दिखायी देंगे। भारत के आम आदमी(जिसे बेपेंदी का लोटा कहा जाना अधिक सटीक होगा) को तो खुश होना चाहिए कि अब उन्हें लोकल दुकानदारों की मनमर्जी नहीं सहनी पड़ेगी। न ही घटिया माल खरीदने की मजबूरी होगी। आने वाले समय में गरीब से गरीब आदमी भी “वाल्मार्ट” के वातानुकूलित शापिंग मालों में शान के साथ इंटरनेशनल क्लास की शापिंग के मजे ले सकेगा। भले ही उसे अपने लिए दो वक्त की रोटी और नून ही क्यों न खरीदनी हो। उसे इस बात का संतोष तो होगा ही कि उसने अंतरराष्ट्रीय स्तर की रोटी और नून के मजे लिए।

बहरहाल, मध्यम आय वर्ग और इससे अधिक आय वर्ग के लोगों के लिए तो प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह ने ओशो के प्रसिद्ध कथन “संभोग से समाधि तक” को चरितार्थ कर दिया है। अब लोग एक ही छत के नीचे सबकुछ पा सकेंगे और वह भी इंटरनेशनल क्वालिटी का। ऐसे में विपक्ष के द्वारा विरोध किए जाने का परिणाम क्या होगा, अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। जब इस देश की जनता को 80 रुपये करुआ तेल और दाल खरीदना मंजूर है, फ़िर किसी प्रकार की कोई क्रांति हो जाएगी, इसकी उम्मीद करना बेकार है। अब सब जीना चाहते हैं। इसलिए भारतीय जनता को प्रधानमंत्री का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने “संभोग से समाधि” तक की इंटरनेशनल क्वालिटी व्यवस्था हर नुक्कड़ पर करने का निर्णय ले लिया है।

 

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